निबंध लेखन। विभिन्न प्रकार के निबंध लेखन। निबंध लेखन कैसे लिखे। उदाहरण सहित निबंध लेखन

 Class : 11th & 12th

Type : NCERT Most Important Question Answer



निबंध लेखन

1. हमारे त्योहार अथवा त्योहार और हम अथवा त्योहारों का महत्व:-

श्रम से थके-हारे मनुष्य ने समय-समय पर ऐसे अनेक साधन खोजे जो उसे थकान से छुटकारा दिलाए। जीवन में आई नीरसता से उसे छुटकारा मिल सके। इसी क्रम में उसने विभिन्न प्रकार के उत्सवों और त्योहारों का सहारा लिया। ये त्योहार अपने प्रारंभिक काल से ही सांस्कृतिक चेतना के प्रतीक तथा जनजागृति के प्रेरणा स्रोत है

 भारत एक विशाल देश है। यहाँ नाना प्रकार की विभिन्नता पाई जाती है, फिर त्योहार इस विभिन्नता से कैसे बच पाते। यहाँ विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग परंपराओं तथा धार्मिक मान्यताओं के अनुसार रक्षाबंधन, दीपावली, दशहरा, होली, ईद, ओणम, पोंगल, गरबा, पनिहारी, बैसाखी आदि त्योहार मनाए जाते हैं। इनमें दीपावली और दशहरा ऐसे त्योहार हैं जिन्हें पूरा भारत तो मनाता ही है, विदेशों में बसे भारतीय भी मनाते हैं। बैसाखी तथा वसंतोत्सव ऋतुओं पर आधारित त्योहार हैं। इस प्रकार यहाँ त्योहारों की कमी नहीं है। आए दिन कोई-न-कोई त्योहार मनाया जाता है।

भारतवासियों को स्वभाव से ही उत्सव प्रेमी माना जाता है। वह कभी प्रकृति की घटनाओं को आधार बनाकर तो कभी धर्म को आधार बनाकर त्योहार मनाता रहता है। इन त्योहारों के अलावा यहाँ अनेक राष्ट्रीय पर्व भी मनाए जाते हैं। इनसे महापुरुषों के जीवन से हमें कुछ सीख लेने की प्रेरणा मिलती है। गाँधी जयंती हो या नेहरू जयंती इसके मनाने का उद्देश्य यही है। इस तरह त्योहार जहाँ उमंग तथा उत्साह भरकर हमारे अंदर स्फूर्ति जगाते हैं, वहीं महापुरुषों की जयंतियाँ हमारे अंदर मानवीय मूल्य को प्रगाढ़ बनाती हैं। त्योहरों के मनाने के ढंग के आधार पर इसे कई भागों में बाँटा जा सकता है।

कुछ त्योहार पूरे देश में राष्ट्रीय तथा राजनीतिक आधार पर मनाए जाते हैं; जैसे-15 अगस्त, गणतंत्र दिवस, गाँधी जयंती (साथ ही लालबहादुर शास्त्री जयंती) इन्हें राष्ट्रीय पर्व कहा जाता है। कुछ त्योहार अंग्रेजी वर्ष के आरंभ में मनाए जाते हैं; जैसे-लोहिड़ी, मकर संक्रांति। कुछ त्योहार भारतीय नववर्ष शुरू होने के साथ मनाए जाते हैं; जैसे-नवरात्र, बैसाखी, पोंगल, ओणम। पंजाब में मनाई जाने वाली लोहड़ी, महाराष्ट्र की गणेश चतुर्थी. पश्चिम बंगाल की दुर्गा पूजा को प्रांतीय या क्षेत्रीय त्योहार कहा जाता है।

परिवर्तन प्रकृति का नियम है, फिर ये त्योहार ही परिवर्तन से कैसे अप्रभावित रहते। समय की गति और समाज में आए परिवर्तन के परिणामस्वरूप इन त्योहारों, उत्सवों तथा पर्वो के स्वरूप में पर्याप्त परिवर्तन आया है। इन परिवर्तनों को विकृति कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। आज रक्षाबंधन के पवित्र और अभिमंत्रित रूप का स्थान बाजारू राखी ने लिया है। अब राखी बाँधते समय भाई की लंबी उम्र तथा कल्याण की कामना कम, मिलने वाले उपहार या धन की चिंता अधिक रहती है। मिट्टी के दीपों में स्नेह रूपी जो तेल जलाकर प्रकाश फैलाया जाता था, उसका स्थान बिजली की रंग-बिरंगी रोशनी वाले बल्बों ने ले लिया है। सबसे ज्यादा विकृति तो होली के स्वरूप में आई है।

टेसू के फूलों के रंग और गुलाल से खेली जाने वाली होली जो दिलों का मैल धोकर, प्रेम, एवं सद्भाव के रंग में रंगती थी, वह अश्लीलता और हुड़दंग रूपी कीचड़ में सनकर रह गई है। राह चलते लोगों पर गुब्बारे फेंकना, जबरदस्ती ग्रीस, तेल, पेंट पोतने से इस त्योहार की पवित्रता नष्ट हो गई है। आज दशहरा तथा दीपावली के समय करोड़ों रुपये केवल आतिशबाजी और पटाखों में नष्ट कर दिया जाता है। इन त्योहारों को सादगी तथा शालीनतापूर्वक मनाने से इस धन को किसी रचनात्मक या पवित्र काम में लगाया जा सकता है, जिससे समाज को प्रगति के पथ पर अग्रसर होने में मदद मिलेगी। इससे त्योहारों का स्वरूप भी सुखद तथा कल्याणकारी हो जाएगा। आज आवश्यकता इस बात की है कि लोग इन त्योहारों को विकृत रूप में न मनाएँ हमारे जीवन में त्योहारों, उत्सवों एवं पर्वो का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।

एक ओर ये त्योहार भाई-चारा, प्रेम, सद्भाव, धार्मिक एवं सांप्रदायिक सौहार्द बढ़ाते हैं तो दूसरी ओर धर्म-कर्म तथा आरोग्य बढ़ाने में भी सहायक होते हैं। इनसे हमारी सांस्कृतिक गरिमा की रक्षा होती है तो भारतीय संस्कृति के मूल्य एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आसानी से पहुँच जाते हैं। ये त्योहार ही हैं जिनसे हमारा अस्तित्व सुरक्षित था, सुरक्षित है और सुरक्षित रहेगा। हमारे त्योहारों में व्याप्त कतिपय दोषों को छोड़ दिया जाए या उनका निवारण कर दिया जाए तो त्योहार मानव के लिए बहुपयोगी हैं। ये एक ओर मनुष्य को एकता, भाई-चारा, प्रेम-सद्भाव बढ़ाने का संदेश देते हैं तो दूसरी ओर सामाजिक समरसता भी बढ़ाते हैं। हमें इन त्योहरों को शालीनता से मानाना चाहिए, ताकि इनकी पवित्रता एवं गरिमा चिरस्थायी रहे।


2. मेरे प्रिय कवि तुलसीदास

हिंदी साहित्य जगत् में ऐसे अनेक उद्भट कवि हुए, जिनकी प्रतिभा युगों तक सराही जाती रहेगी। क्योंकि इन महान कवियों ने समाज को ऐसे संदेश दिए हैं, जिनसे मानव-समाज उनका चिर ऋणी रहेगा। हालाँकि ऐसे भी कवि हुए हैं जिनकी कविताएँ तात्कालिक परिस्थितियों को बाखूबी चित्रित करती हैं और संदेश देती हैं, तथापि समाज पर दीर्घकालीन अपनी छाप नहीं छोड़ पाती हैं। वहीं ऐसे अनेक महाकवि हुए हैं जिन्हें सदियाँ बीत जाने पर भी सम्मान के साथ याद किया जाता है और उनके काव्य को आज भी सराहा जाता है। ऐसे ही थे मेरे प्रिय महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी। उनके प्रति आकर्षण होने का कारण है कि जीवन के प्रारंभिक काल से या कहा जाए कि जन्मते ही जिस पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा था, लाख विपत्तियों व विषम परिस्थितियों के बावजूद ईश्वर ने उन्हें जीवित रखा। इस प्रकार वे ईश्वरी कृपा और अपनी जिजीविषा व परिश्रम की बदौलत एक दिन फर्श से अर्श पर विराजमान हो गए। उनकी प्रतिभा का लोहा भारती ही नहीं संपूर्ण विश्व ने स्वीकारा। अन्य बहुत-से कवियों की तरह उनके जन्मकाल और स्थान के बारे में संदेह बना रहा है।

अधिकतर विद्वानों ने उनकी रचनाओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि उनका जन्म सन् 1532 ई. में शूकर क्षेत्र (सोरों) जनपद में हुआ। उनके जीवन में जन्मते ही ऐसी अप्रत्याशित घटनाएँ घटीं, जिनके कारण इनका जीवन संघर्षपूर्ण हो गया। इनके पिता आत्माराम और माता हुलसी बाई थीं। कहा जाता है कि इनके मुँह से ‘राम’ निकला. इसलिए इनका नाम ‘राम बोला’ पड़ गया। गाँव के दकियानूसी लोगों ने बत्तीस दाँत साथ होने से गाँव के लिए अपशकुन माना गया। अत: उनके माता-पिता को उन्हें लेकर गाँव छोड़ना पड़ा। इतना ही नहीं, कुछ अनहोनी घटनाएँ माता-पिता के साथ घटीं और अंतत: उनका कारण तुलसी को ही माना गया तुलसी पर ऐसा कहर टूटा कि उनके माता-पिता ने उनको भटकने के लिए छोड़ दिया। अबोध बालक भूखा, असहाय इधर-उधर भटकता रहा। कहा तो यह भी जाता है कि बालक की दयनीय दशा देखकर सबसे बड़े लालची कहे जाने वाले बंदरों को उस बालक पर दया आ गई और अपने इकट्ठे किए चने उन्हें खाने के लिए देने लगे, किंतु मानवता के धनी मानव को इन पर दया नहीं आई। हाँ ईश्वर से उलाहना देते हुए विनम्र निवेदन किया-

‘पालि के कृपाल, ब्याल-बाल को न मारिए”

मानव समाज में लोकोक्ति प्रचलित है कि ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’ नियति ने करवट बदली, भटकते हुए बालक पर एक सहृदय आचार्य ‘श्री नरहरि’ की दृष्टि पड़ी। भटकते बालक की दुर्दशा को देखकर उनकी मानवता और ममता एक साथ चीख पड़ी या यह कहा जाए कि बालक की प्रतिभा को उन्होंने पहचाना और वे अपने साथ ले आए। तुलसी से आचार्य नरहरि या नरहरि से तुलसी धन्य हो गए और तुलसी की काया पलट यहीं से शुरू हो गई। आगे चलकर उनके सानिध्य में अध्ययन करने लगे। भटकता हुआ बालक आगे चलकर, संस्कृत और हिंदी भाषा के आचार्य, सुयोग्य और सम्माननीय हो गए। भारतीयता और भारतीय संस्कृति के वेत्ता बन गए। बादल सूर्य को कब तक ढककर रख सकता है, तुलसी की प्रतिभा को कब तक छिपाया जा सकता था।

कालांतर में स्वयं ही उनकी प्रतिभा से लोग प्रभावित होने लगे, ईष्यालु ईष्या करने लगे। ऐसे ही लोगों ने उनके अस्तित्व पर आघात किए किंतु कोई भी आघात उनकी विनम्रता के आगे टिक न सका। अन्य सभी ईष्र्यालु लोगों ने अपनी घिनौनी आदतों को इकट्ठा कर दीपक जलाने के असफल प्रयास किए और टिम-टिमाकर बुझ गए। कुछ ने सूरदास को आगे कर विवाद ही खड़ा करना चाहा। कहा-

‘सूर-सूर तुलसी शशी उडगन केशव दास’

तुलसी की नियत  में कुछ और ही था। इनका विवाह भी हुआ। यह सोच रहे थे, कि माता-पिता के स्नेह से वंचित पत्नी का प्यार मिलेगा। आशा और कल्पना के विपरीत पत्नी से भी धकियाए गए। पत्नी की यह अवमानना उनके जीवन में लिए प्रेरणा और वरदान बन गई। पत्नी ने अपमानित ही नहीं किया अपितु शिक्षा भी दे दी-

अस्थि चम मम देह तन, तामें ऐसी प्रीति।

ऐसी जो श्रीराम में , तो न होति भवभीति

यहाँ से तुलसीदास जी की दशा बदल गई, सोच बदल गई। श्रीराम के प्रति विश्वास, श्रद्धा इतना बढ़ा कि उससे हटकर कुछ और, सोचना ही बंद कर दिया, इसका परिणाम यह हुआ कि मानव समाज को अमर ग्रंथ, घर-घर की शोभा का ग्रंथ, ‘रामचरितमानस’ दे दिया। जिसकी सराहना उनके प्रति ईष्र्या रखने वाले व्यक्तियों को भी विवश होकर करनी पड़ी। इस अमर ग्रंथ ने उन्हें जन-जन का हदय-सम्राट बना दिया। इस तरह उनकी पत्नी रत्नावली की अवहेलना उनके लिए ऐसी प्रेरणा बनी, जिसे वे भुला न सके। आचार्य तुलसीदास जी ऐसे महाकवि थे जो विनम्रता की प्रतिमूर्ति थे, धुन के पक्के थे, आपदाओं में धैर्य बनाए रखने में समर्थ थे।

अपने आराध्य के प्रति विश्वास के आधार पर बड़े-से-बड़े आघातों को सरलता से सहन करते चले गए। विषमताओं में भी अपनी विनम्रता और धैर्य को नहीं छोड़ा। क्रोध उन्हें छू भी न सका। तुलसीदास जी ने अपने ग्रंथ या कहो कि महाकाव्य रामचरितमानस के माध्यम से मानव जीवन को जो प्रेरणा और चेतना दी है, वह सर्वथा अप्रत्याशित रहेगी। जीवन के प्रत्येक पहलू को छूकर मनुष्य को नई दिशा दी। अत: ऐसे महाकवि मेरे ही नहीं, अपितु जन-जन के प्रिय और हृदय सम्राट बन गए।


3. महानगरीय जीवन : अभिशाप या वरदान

कहा गया है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। मानव ने ज्यों-ज्यों सभ्यता की ओर कदम बढ़ाए त्यों-त्यों उसकी आवश्यकताएँ बढ़ती गई। अपनी इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वह इधर-उधर जाने के लिए विवश हुआ। इसी क्रम में मनुष्य ने बेहतर जीवनयापन के लिए शहर की ओर कदम बढ़ाए।

महानगरीय जीवन का अपना एक विशेष आकर्षण होता है। यह आकर्षण है-आधुनिकता की चमक-दमक। यही चमक-दमक गाँवों तथा छोटे-छोटे शहरों के वासियों को आकर्षित करती है। महानगर की प्रच्छन्न समस्याएँ यहाँ आने वालों को अपने जाल में यूँ उलझा लेती हैं जैसे मकड़ी के जाल में कोई कीड़ा। महानगर की इन समस्याओं से आम आदमी का निकलना आसान नहीं होता है। गाँवों से या छोटे शहरों से आने वालों के लिए महानगरीय जीवन दिवास्वप्न बनकर रह जाता है। हमारे देश में दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई और मुंबई की गणना महानगरों में की जाती है। इन महानगरों का अपना विशेष आकर्षण है। 

इनका ऐतिहासिक महत्व होने के साथ-साथ सांस्कृतिक महत्त्व भी है। इन महानगरों में विश्व की आधुनिकतम सुविधाएँ उपलब्ध हैं। यहाँ रोजगार के साधन हैं। शिक्षा एवं परिवहन की उत्तम व्यवस्था है। यहाँ की गगनचुंबी इमारतें जनसाधारण के लिए कौतूहल का विषय बनती हैं। ये महानगरों के सौंदर्य में चार चाँद लगाती हैं। यह सब देखकर विदेशी पर्यटक भी इन महानगरों की ओर आकर्षित हो पर्यटन के लिए आते हैं। महानगरों में पाई जाने वाली इन सुख-सुविधाओं की ओर जनसाधारण आसानी से आकर्षित होता है। वह कभी रोजगार की तलाश में तो कभी बेहतर जीवन जीने की लालसा में यहाँ आता है और यहीं का होकर रह जाता है।

दिल्ली जैसे महानगर की जनसंख्या तो कई साल पहले ही एक करोड़ को पार कर चुकी थी। इसमें कोई संदेह नहीं कि महानगरीय जीवन संपन्न लोगों के लिए वरदान है। उनके व्यवसाय तथा कारोबार यहीं फलते-फूलते हैं, जो शहरों के लिए भी लाभदायी होते हैं। अपनी बेहतर आमदनी के कारण ये संपन्न व्यक्ति कार, ए.सी. तथा विलासिता की वस्तुओं को प्रयोग कर स्वर्गिक सुख की अनुभूति करते हैं। इसके अलावा शिक्षा की बेहतर सुविधाएँ, आवागमन के उन्नत साधन, चमचमाती सड़कें, स्वास्थ्य की बेहतर सुविधाएँ, एक फोन काल की दूरी पर पुलिस, खाद्य वस्तुओं की बेमौसम लगता है। महानगरों की बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में मूलभूत सुविधाओं में वृद्ध न होने से यहाँ के अधिकतर निवासियों का जीवन दूभर हो गया है। यहाँ सबसे बड़ी समस्या आवास की है।

थोड़ी-सी जगह मिली नहीं कि निम्नवर्ग ने अपनी झोंपड़ी/झुग्गी बना ली। एक ओर गगनचुंबी अट्टालिकाएँ तो दूसरी ओर शहर के माथे पर दाग बनकर सौंदर्य का नाश करती झोंपड़पट्टयाँ। यहाँ संपन्न वर्ग के एक आदमी के लिए बीस-बीस कमरे हैं तो दूसरी ओर किराए के एक कमरे में पंद्रह या बीस आदमी रहने के लिए विवश हैं। इसके अलावा यहाँ न पीने के लिए शुद्ध पानी और न साँस लेने के लिए स्वच्छ हवा है। खाद्य वस्तुओं में मिलावट का कहना ही क्या। कुछ भी शुद्ध नहीं। कमरे ऐसे कि जिनमें शायद ही कभी धूप के दर्शन हों। यहाँ की दूषित वस्तुएँ अकसर बीमारी की जनक होती हैं। इस प्रकार जनसाधारण के लिए ये महानगर किसी अभिशाप से कम नहीं हैं। जिस प्रकार हर सिक्के के दो पहलू होते हैं उसी प्रकार नगरीय जीवन के भी अच्छाई और बुराई रूपी दो पहलू हैं। संपन्न वर्ग के लिए महानगर किसी वरदान से कम नहीं है तो गरीबों के लिए अभिशाप है। यह सत्य है कि महानगरों में आगे बढ़ने के पर्याप्त अवसर हैं। अथक परिश्रम और लगन से इस अभिशाप को वरदान में बदलकर इनका लाभ उठाया जा सकता है।






4. पुरुषार्थ और भाग्य अथवा ‘दैव-दैव आलसी पुकारा’:-

भाग्य और पुरुषार्थ दोनों सहोदर, किंतु वैचारिक और व्यावहारिक स्वभाव से विपरीत प्रवृत्ति वाले हैं। दोनों में संघर्ष होता रहता है। दोनों ही अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास करते हैं। जहाँ भाग्य ने स्थान बना लिया वहाँ मनुष्य अकर्मण्य और आलसी बन जाता है और अपने भाग्य को कोसता है। परिस्थितियों का दास बनता जाता है। अनेक विषमताओं से घिर जाता है। आगे कदम बढ़ाने में डरने लगता है। दूसरी ओर पुरुषार्थ के स्थान पा लेने पर मनुष्य साहसी हो जाता है। कर्म करने में अधिकार समझता है। विषमताओं को भी धता बताते हुए आगे बढ़ता है। परिस्थितियाँ उसकी दास हो जाती हैं। प्रसन्न रहता है, सफलताएँ उसके चरण चूमने को आतुर रहती हैं। इस तरह हर मनुष्य के विचारों में द्वंद्व चलता है। मनुष्य की प्रवृत्ति के अनुसार ही भाग्य और पुरुषार्थ में से कोई स्थान बनाने में सफल हो जाता है।

जीवन में सफलता भाग्य के आधार पर नहीं मिलती है, अपितु पुरुषार्थ से मिलती है। हमारे जीवन में अनेक विपत्तियाँ आती हैं। ये विपत्तियाँ हमें रुलाने के लिए नहीं, अपितु पौरुष को चमकाने के लिए आती हैं। जीवन में यदि किंचित भी भाग्य के आधार पर अकर्मण्यता ने प्रवेश पा लिया तो सफलता दूर हो जाती है। विद्वानों का विचार है कि पहाड़ के समान दिखाई देने वाली बाधाओं को देखकर विचलित होना पौरुषता का चिहन नहीं है। हताशा, निराशा, तो कायरता के चिहन हैं। मनुष्य के अंदर वह शक्ति है जो यमराज को भी ललकार सकती है। केवल एक बार संकल्प करने की आवश्यकता होती है। असफलता की जो चट्टान सामने दिखाई देती है वह इतनी मजबूत नहीं है जो गिराई न जा सके। सिर्फ एक धक्का देने की आवश्यकता है, चकनाचूर हो जाएगी। ठहरें नहीं, रुकें नहीं, संघर्ष हमें चुनौती दे रहा है।

चुनौती स्वीकार करें और पूरी ताकत से प्रहार करें। सफलता मिल कर रहेगी। इस संबंध में भगवान श्रीकृष्ण का विचार था कि यदि तुम चाहते हो कि विजयी बनो, सफलता तुम्हारे चरण चूमे तो फिर रुकने की क्या आवश्यकता है? परिस्थितियाँ तुम्हारा क्या बिगाड़ लेंगी? विरोधी पस्थितियों से मित्रता नहीं, संघर्ष अपेक्षित है। अपने पुरुषार्थ पर विश्वास रखें। अवसर की प्रतीक्षा करें। अवसर चूकना बुद्धमानी नहीं है। अत: याद रहे कि जलधारा के बीच पड़ा कंकड़ नदी के प्रवाह को बदल देता है। एक छोटी-सी चींटी भीमकाय हाथी की मृत्यु का कारण बन सकती है, फिर हम तो पुरुष हैं। अपने पुरुषार्थ से असंभव को संभव बना सकते हैं। जीवन में यदि संघर्ष और खतरों से खेलने की प्रवृत्ति न हो तो जीवन का आधा आनंद समाप्त हो जाता है। जिस व्यक्ति के मन में सांसारिक महत्वाकांक्षाएँ नहीं हैं उसे किसी भी प्रकार के संशय और विपदाएँ विचलित नहीं कर सकती हैं।

आत्मबल और दृढ़ संकल्प के सम्मुख तो बड़े-से-बड़ा पर्वत भी नत हो जाता है। कहा जाता है एक निर्वासित बालक श्रीराम के पौरुष के सामने समुद्र विनती करते हुए आ खड़ा हुआ, नेपोलियन बोनापार्ट के साहस को देखते हुए आल्पस पर्वत उसका रास्ता न रोक सका। महाराजा रणजीत के पौरुष को देखते हुए कटक नदी ने रास्ता दे दिया। संसार को रौदता हुआ जब सिकंदर ने भारत में प्रवेश किया तो राजा पोरस के पौरुष को देखकर हतप्रभ रह गया और आचार्य चाणक्य के शिष्य चंद्रगुप्त मौर्य के सामने मुँह की खानी पड़ी। छत्रपति शिवाजी के सम्मुख अतुल सेना का मालिक औरंगजेब थर-थर काँपता रहा, वीरांगना झाँसी वाली रानी के शौर्य के सम्मुख अंग्रेज दाँतों तले अँगुली दबाकर रह गए। स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में जाकर भारतीय संस्कृति की सर्वोत्कृष्टता की पताका फहराई। डॉ. हेडगेवार ने विषम परिस्थितियों में देश को राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत संगठन खड़ा किया।

लौह-पुरुष सरदार बल्लभभाई पटेल ने देश की सभी रियासतों को एक झंडे के तले खड़ा कर दिया। महात्मा-गाँधी जहाँ भी रहे, जहाँ भी गए, परिस्थितियों को चुनौती देते रहे। पुरुषार्थ से अलग भाग्यवादी लोग चलनी में दूध दुहते हैं और पश्चात्ताप करते हैं और भाग्य को कोसते हैं। भाग्यवादी मनुष्य सदैव रोता है, समय खोता है, शेखचिल्ली की कल्पना करता है, परिस्थितियों को देख घबराता है, समाज, देश, यहाँ तक कि स्वयं अपने लिए बोझ बनता है। निराशाओं से घिरा रहता है, हाथ आए सुअवसर को भी हाथ से निकाल देता है। चलनी में दूध दुहता है। दूसरों से ईष्र्या करता है, दूसरों को दोष देता है। कल्पवृक्ष हाथ लगने की कल्पना करता है और रोता हुआ आता है; रोता हुआ चला जाता है। जीवन निदित और तिरस्कृत होता है, कुंठित होता है। इस प्रकार सर्वथा निंदनीय और हेय होता है। संपूर्ण जीवन नारकीय बन जाता है। इतना ही नहीं परंपरा से विरासत में मिली पूर्वजों की संपत्ति, यश, समृद्ध को नष्ट कर कलकित हो जाता है। ऐसे लोगों को ही पाठ पढ़ाने की आवश्यकता होती है कि

उद्येमेन हि सिद्वायन्ति कार्याणि, न मनोरथै:

नहीं सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।

हमारे सामने ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि स्वतंत्रता के बाद जो छोटी-छोटी रियासतें थीं या कही छोटे-मोटे राजा थे, वे अपनी अतीत की परंपरा में परिवर्तन न कर सके। फलस्वरुप उन परिवारों की ओर कोई ‘आँखें’ उठाकर देखने वाला नहीं है। निरुद्यमी होने के कारण वे सड़क पर आ खड़े हुए। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार दृष्टि जितनी ऊँची होगी तीर उतनी ही दूर जाएगा। पुरुषार्थ भी जितनी सही दिशा में होगा उतना ही पुरुष उन्नत होगा। भाग्य के भरोसे बैठे रहना कायरता है, नपुंसकता है। अत: हमें ध्यान रखना चाहिए कि पुरुषार्थ मनुष्य को महान बना देता है। कार्य के प्रति निष्क्रियता मानव को पतन की ओर ले जाती है। तमिल में एक लोकोक्ति है ‘यदि पैर स्थिर रखोगे तो दुर्भाग्य की देवी मिलेगी और पैर चलेंगे तो श्री देवी मिलेगी।’ यह सटीक एवं सार्थक है।

5. मनोरंजन के साधन:-

मनुष्य कर्मशील प्राणी है। जीवन की बढ़ती आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वह कर्म में लीन रहता है। काम की अधिकता उसके जीवन में नीरसता लाती है। नीरसता से छुटकारा पाने के लिए उसे मनोविनोद की आवश्यकता होती है। इसके अलावा काम के बीच-बीच में उसे मनोरंजन मिल जाए तो काम करने की गति बढ़ती है तथा मनुष्य का काम में मन लगा रहता है।

मनुष्य ने जब से विकास की ओर कदम बढ़ाया, उसी समय से उसकी आवश्यकता बढ़ती गई। दूसरों के सुखमय जीवन से प्रतिस्पर्धा करके उसने अपनी आवश्यकताएँ और भी बढ़ा लीं, जिसके कारण उसे न दिन को चैन है न रात को आराम। ऐसे में उसका मस्तिष्क, तन, मन यहाँ तक कि उसका अंग-अंग थक जाता है। एक ही प्रकार की दिनचर्या से मनुष्य उकता जाता है उसे अपनी थकान मिटाने और जी बहलाने के लिए मनोरंजन की आवश्यकता होती है, जो उसकी थकान भगाकर उसके मन को पुन: उत्साह एवं उमंग से भर देता है। यही कारण है कि मनुष्य आदि काल से ही किसी-न-किसी रूप में अपना मनोरंजन करता आया है।

मानव ने प्राचीन काल से ही अपने मनोरंजन के साधन खोज रखे थे। अपने मनोविनोद के लिए पक्षियों को लड़ाना, विभिन्न जानवरों को लड़ाना, रथों की दौड़, धनुष-बाण से निशाना लगाना, लाठी-तलवार से मुकाबला करना, कम तथा बड़ी दूरी की दौड़, वृक्ष पर चढ़ना, कबड्डी, कुश्ती, गुल्ली-डंडा, गुड्डे-गुड़ियों का विवाह, रस्साकशी करना, रस्सी कूदना, जुआ, गाना-बजाना, नाटक करना, नाचना, अभिनय, नौकायन, भाला-कटार चलाना, शिकार करना, पंजा लड़ाना आदि करता था। मनुष्य के जीवन में विकास के साथ-साथ मनोरंजन के साधनों में भी बदलाव आने लगा।

आधुनिक युग में मनोरंजन के अनेक साधन उपलब्ध हैं। यह तो मनुष्य की रुचि, सामथ्र्य आदि पर निर्भर करता है कि वह इनमें से किनका चुनाव करता है। विज्ञान ने मनोरंजन के क्षेत्र में हमारी सुविधाएँ बढ़ाई हैं। रेडियो पर हम लोकसंगीत, फिल्म संगीत, शास्त्रीय संगीत का आनंद लेते हैं तो सिनेमा हॉल में चित्रपट पर विभिन्न फिल्मों का। इसके अलावा ताश, शतरंज, सर्कस, प्रदर्शनी, फुटबॉल, हॉकी, क्रिकेट, टेनिस, खो-खो, बैडमिंटन आदि ऐसे मनोरंजन के साधन हैं, जो स्वास्थ्य के लिए भी लाभप्रद हैं।

हमारे सामने आजकल मनोरंजन के अनेक विकल्प मौजूद हैं, जिनमें से अपनी रुचि के अनुसार साधन अपनाकर हम अपना मनोरंजन कर सकते हैं। आज कवि सम्मेलन सुनना, ताश एवं शतरंज खेलना, फिल्म देखना, रेडियो सुनना, विभिन्न प्रकार के खेल खेलना तथा संगीत सुनकर मनोरंजन किया जा सकता है। सिनेमा हॉल में फिल्म देखना एक लोकप्रिय साधन है। मजदूर या गरीब व्यक्ति कम कमाता है, फिर भी वह समय निकालकर फिल्म देखने अवश्य जाता है। युवकों से लेकर वृद्धों तक के लिए यह मनोरंजन का सबसे लोकप्रिय साधन है। आज मोबाइल फोन पर गाने सुनने का प्रचलन इस प्रकार बढ़ा है कि युवाओं को कानों में लीड लगाकर गाने सुनते हुए देखा जा सकता है।

मनोरंजन करने से मनुष्य अपनी थकान, चिंता, दुख से छुटकारा पाता है या यूँ कह सकते हैं कि मनोरंजन मनुष्य को खुशियों की दुनिया में ले जाते हैं। उसे उमंग, उत्साह से भरकर कार्य से छुटकारा दिलाते हैं। बीमारियों में दर्द को भूलने का उत्तम साधन मनोरंजन है। यह मनुष्य को स्वस्थ रहने में भी मदद करता है। ‘अति सर्वत्र वर्जते’ अर्थात् मनोरंजन की अधिकता भी मनुष्य को आलसी एवं अकर्मण्य बनाती है। अत: मनुष्य अपने काम को छोड़कर आमोद-प्रमोद में न डूबा रहे अन्यथा मनोरंजन ही उसे विनाश की ओर ले जा सकता है। हमें मनोरंजन के उन्हीं साधनों को अपनाना चाहिए, जिससे हमारा चरित्र मजबूत हो तथा हम स्वस्थ बनें।


6. भय बिनु होइ न प्रीति

प्राय: कहा जाता है कि मिमियाते बकरे कसाई के हृदय में परिवतन नहीं कर सकते और घिघियाते मनुष्य दुष्टों के हृदय में करुणा नहीं जगा सकते हैं। दया-ममता का उपदेश कोई नहीं सुनता है। भय के बिना तो प्रीति का राग नहीं सुना जा सकता। संसार में चमत्कार को नमस्कार किया जाता है। आज मनुष्य की विनम्रता को उसका संस्कार नहीं, अपितु उसकी कमजोरी समझी जाने लगी है। इस संदर्भ में राष्ट्रीय स्तर पर विचार किया जाए कि भारत की विनम्रता या भारत की अहिंसावादी नीति को इसकी कमजोरी समझ कर पाकिस्तान कभी सीमा-उल्लंघन तो कभी आतंकवादी-घुसपैठ या अन्य हरकतें करता रहता है। उसकी इस दुष्प्रवृत्ति में निरंतर वृद्ध होती जा रही है जिसका मुख्य कारण राजनैतिक इच्छाशक्ति व दृढ़ता में कमी है। ऐसी ही प्रवृत्ति के प्रतीक समुद्र से तीन दिन तक श्री राम रास्ता देने के लिए विनम्रतापूर्वक अनुरोध करते रहे परंतु समुद्र पर कोई असर नहीं पड़ा। फलस्वरूप उनका पौरुष धधक उठा और उन्होंने लक्ष्मण से अग्निबाण लाने के लिए कहा-

विनय न मानत जलधि जड़, गए तीन दिन बीति।

बोले राम सकोप तब , भय बिनु होई न प्रीति।

लक्ष्मण बाणा सरासन आना

सोखौं बारिधि बिसिखि कृसाना।

अन्याय का विरोध न होने पर उसका प्रचार-प्रसार बढ़ता जाता है। धीरे-धीरे वह इतना प्रचार-प्रसार पा लेता है कि फिर उसको रोकना कठिन हो जाता है और जन-जीवन को इतना संत्रस्त कर देता है कि लोगों का जीवन जीना दूभर हो जाता है। समयोपरांत प्रबुद्ध-वर्ग भी अन्यायी का मुँह कुचलने की हिमायत करता है। वह चाहता है कि येन-केन प्रकारेण अन्यायी का सिर इस प्रकार कुचल दिया जाए कि वह फिर कभी सिर न उठा सके। न्याय और सुव्यवस्था बनाए रखने के लिए भी उचित है कि अन्यायी का प्रतिकार दंड से किया जाए, क्योंकि लातों के भूत बातों से नहीं मानते हैं।

भारतीय समाज अपनी घिघियाने की प्रवृत्ति और निरीहता को प्रदर्शित कर शत्रुओं को आक्रमण के लिए आमंत्रित करता रहा है। इतिहास-प्रसिद्ध घटना ‘सोमनाथ’ के मंदिर की प्रतिष्ठा लोगों की प्रार्थना, चीख और करुण-क्रदन के कारण जाती रही। आक्रांता सबको पद्दलित कर लूटकर चला गया। लोगों की चीख-पुकार ने आक्रांता के कार्य को सरल तथा सुगम बना दिया। इसलिए अन्याय के सम्मुख सिर झुकाकर अपना स्वत्व छोड़ देना मनुष्य धर्म नहीं है, अपितु कायरता ही है।

मनुष्य कुछ हद तक तो सामान्य स्थितियों तक अन्याय को सहन कर सकता है, किंतु अन्याय सिर पर चढ़कर बोलने लगता है या आसमान को छूने लगता है तो सामान्य आदमी भी प्रतिकार करने के लिए खड़ा हो जाता है। अंत: हृदय से यही अवाज निकलती है कि अन्याय को सहन करना कायरतापूर्ण अधर्म है और अन्याय का प्रतिकार करना मानव-धर्म है। अन्याय को सहन कर लेने से अपराधी के अपराध बढ़े हैं, घटे नहीं हैं। असहाय अवस्था में अन्याय के प्रति सहिष्णुता विवशता है, किंतु निरंतर विवश बने रहना निष्क्रियता और दब्बूपन ही है। अन्याय का विरोध न्याय ही कहा जा सकता है। न्याय का पक्ष मनुष्य को युद्ध की स्थिति तक भी ले जा सकता है।

महाभारत का युद्ध अन्याय के विरोध के लिए ही तो था। अपराधों को सहन करना या उसका विरोध न करना, अनदेखा करना उसको बढ़ावा देना है। कभी-कभी तो इतना दुष्परिणाम देने वाला होता है जिसका खामियाजा सदियों तक भुगतना पड़ता है। अंग्रेजों का प्रतिकार न होने से सदियों तक अंग्रेजों के पैरों तले भारतीय कुचले जाते रहे। अन्याय का विरोध उचित है, किंतु उसके विरोध के लिए मजबूत साहस की आवश्यकता होती है। मानव का मनोबल अन्याय और अन्यायी को धराशायी करने में सहायता देता है। दुष्ट की दुष्टता तब तक विराम नहीं लेती है जब-तक उसका मुकाबला डटकर नहीं किया जाता है। हालाँकि मुकाबला करने के लिए मनोबल और उत्साह की आवश्यकता होती है। दुष्ट तब तक भयावह दिखाई देता है जब तक उसके शरीर पर जख्म नहीं होता है।

पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गाँधी के उत्साह और सकारात्मक सोच ने पाक की रोज बढ़ती हुई उच्छुखलता पर जो निशान दिए, उसके बाद दशकों तक पाकिस्तान ने कोई गलती नहीं की। दुष्ट-जनों को सबक सिखाने के लिए स्वयं सामथ्र्यवान होना बहुत जरूरी है। आचार्य चाणक्य ने कहा है कि पैर में मजबूत जूता होने पर काँटे को कुचलते हुए चलो जिससे किसी और के न चुभ जाए और जूता कमजोर है तो रास्ता बदल कर चले जाना ही उचित है। शस्त्रों से सुसज्जित होने पर भी साहस और मनोबल के अभाव में बड़े-बड़े आततायी उदित होकर स्वयं अस्त हो जाते हैं। पाक के साथ ऐसा ही हुआ था कि अमेरिका से खैरात में मिले युद्ध-विमानों के होते हुए भी प्राकृतिक मनोबल के अभाव में भारत-पाक युद्ध के दौरान मुँह की खाकर रह गया। दार्शनिकों का विचार है कि दुष्टों के साथ प्रीति तभी तक सार्थक होती है जब तक वे भय के सानिध्य में रहते हैं।

परिस्थितियों का आकलन करते हुए दुष्ट की दुष्टता का प्रतिकार करना सामाजिक और पुण्यात्मक कृत्य है। ऐसा न होने पर दृष्ट की दुष्टता समाज और राष्ट्र के लिए त्रासदी बन जाती है और इतनी बड़ी त्रासदी कि जिसकी बहुत बड़ी कीमत मानव समाज को चुकानी पड़ती है। जीवन कठिन हो जाता है। मानवता, सहिष्णुता कलकित हो जाती है। प्रमाणस्वरूप इतिहास के पृष्ठों का अवलोकन करें तो चंगेज, तैमूर, मुसोलिनी आदि के रूप में ये दुष्ट शक्तियाँ आम नागरिक को समय-समय पर परेशान करती रही हैं। तत्कालिन मानव-समाज द्वारा प्रतिकार न करना ही इसका मुख्य कारण रहा है। कलम का सिपाही होने के नाते हमारे देश के कवियों व लेखकों ने इन दुष्ट लोगों के विरोध में अपनी लेखनी के माध्यम से जनमत तैयार करने का काम किया है। उनका कहना है कि क्षमाशील होना अच्छी बात तब है जब आप समर्थवान है अन्यथा आप निरीह हैं। यदि आप समर्थवान हैं फिर भी विरोध नहीं करते हैं तो भी आपको कायर समझा जाएगा। दिनकर जी ने भी कहा है

क्षमा शोभती उसी भुजंग को

जिस के पास गरल हो।

7. शिक्षा में खेलों का महत्व अथवा जीवन में खेलों का महत्व

विधाता ने सृष्टि में जितने भी प्राणियों की रचना की उनमें मनुष्य सर्वश्रेष्ठ है। जैसे मनुष्य किसी बिंदु या विचार पर चिंतन कर सकता है, वैसे अन्य प्राणी विचार नहीं कर सकते। अपनी इसी शक्ति के बल पर वह अन्य प्राणियों पर शासन करता आया है। मनुष्य ने अपनी शक्ति के बल पर प्रकृति के कार्य-कलाप में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया है। मनुष्य की शक्ति में जहाँ उसकी बुद्ध और विवेक की भूमिका है वहीं इसमें उसके शारीरिक बल के योगदान को कम करके नहीं आँका जा सकता है। मस्तिष्क के विकास का साधन यदि शिक्षा है तो शारीरिक विकास का साधन परिश्रम एवं खेल है। परिश्रम खेल में किसी-न-किसी रूप में समाया रहता है। खेल शारीरिक विकास के सर्वोत्तम साधन हैं।


घर के बाहर खेले जाने वाले खेल-कबड्डी, कुश्ती, फुटबॉल, टेनिस, बालीवॉल, क्रिकेट, भ्रमण, दौड़ आदि शारीरिक विकास के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। इनकी गणना स्वास्थ्यवर्धक खेलों में की जाती है। कैरम, शतरंज, ताश आदि कुछ ऐसे खेल हैं जिन्हें घर में बैठकर खेला जा सकता है। इन खेलों से हमारा मानसिक विकास होता है। खेलों से हमारा शारीरिक और मानसिक विकास होता ही है साथ ही मनोरंजन भी होता है। खेल थके-हारे शरीर की थकान हर लेते हैं और हमें ऊर्जा एवं उत्साह से भर देते हैं। आदमी खेलते समय अपनी चिंता एवं छोटे-मोटे दुख भूल जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में मजदूर वर्ग तथा किसानों को दोपहर के भोजन के बाद ताश खेलकर समय बिताते देखा जा सकता है। इससे उनका मनोरंजन होता है और वे अपनी थकान से छुटकारा पाकर दोपहर बाद काम पर जाने को तैयार होते हैं।

विद्यार्थियों के लिए खेलों का विशेष महत्व है। वे मध्यांतर में अपना खाना जल्दी से समाप्त कर खेलने में व्यस्त हो जाते हैं। उनकी पढ़ाई के घंटों में खेल के लिए समय निर्धारित होता है, जिससे वे अपनी शारीरिक तथा मानसिक थकान भूल जाएँ। उनका मनोरंजन हो और वे प्रसन्नचित्त होकर बाद की पढ़ाई में एकाग्रचित्त हो सकें। खेलों से खिलाड़ियों में मानवीय गुणों का उदय होता है। खिलाड़ी खेल-खेल में कब यह सब सीख जाते हैं पता ही नहीं चलता। कुछ खेल खिलाड़ियों द्वारा सामूहिक रूप में खेले जाते हैं; जैसे-कबड्डी, क्रिकेट, फुटबॉल, वालीबॉल आदि। इनसे खिलाड़ियों में सामूहिकता की भावना विकसित होती है, क्योंकि टीम की हार-जीत प्रत्येक खिलाड़ी के योगदान पर निर्भर करती है। इसके अलावा खिलाड़ी में आत्मनिर्भरता की भावना भी विकसित होती है।

उसमें अपने साथियों के लिए स्नेह और मित्रता पैदा होती है जो बाद में अपनत्व की भावना प्रबल करती है। खेलते समय खिलाड़ी में जो प्रतिस्पर्धा की भावना होती है वही खेल की समाप्ति पर हाथ मिलाते ही मित्रता में बदल जाती है। ऋषियों-मुनियों को यह बात भली प्रकार पता थी कि शारीरिक और मानसिक विकास बनाए रखने के लिए खेलों का बहुत महत्व है। वे अपने आश्रम में विद्यार्थियों को विभिन्न खेलों में पारंगत बना देते थे। इससे वे बलिष्ठ बनते थे, जो रणकौशल के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण योग्यता थी। शारीरिक रूप से स्वस्थ होने पर वे मानसिक रूप से भी स्वस्थ होते थे।


मानसिक स्वास्थ्य के साथ शारीरिक बल ‘सोने पर सुहागा’ के समान होती है। अकसर देखा गया है कि दिन-रात किताबों में डूबा रहने वाला विद्यार्थी यदि बीमार रहता है तो उससे सफलता की आशा कैसे की जा सकती है। वास्तव में शारीरिक बल के अभाव में सभी गुण विफल हो जाते हैं। कुछ समय पहले तक खेलों को बहुत अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था पर अब समय एवं सोच बदल चुकी है। ‘खेलोगे-कूदोगे हो जाओगे खराब’ वाली कहावत को लोग भूलकर ‘खेलोगे-कूदोगे बनोगे नवाब’ वाली कहावत को अपने जीवन का अंग बना चुके हैं।

ओलंपिक खेलों और कॉमनवेल्थ खेलों आदि में विजयी होने वाले खिलाड़ियों पर होने वाली नोटों की बरसात से यह बात प्रमाणित भी हो चुकी है। खेलों के माध्यम से इतना धन, यश तथा सुख-सुविधाएँ प्राप्त होती हैं कि आम आदमी बस इनकी कल्पना भर कर सकता है। सचिन तेंदुलकर, महेंद्र सिंह धोनी, विजेंद्र कुमार, सोमदेव देव वर्मन, सायना नेहवाल आदि कुछ ऐसे ही नाम हैं जिनके कदम यश और धन चूम रहे हैं। अति हर चीज की बुरी होती है। यह सत्य है कि विद्यार्थियों के लिए शिक्षा के समान ही खेल भी आवश्यक है पर वही विद्यार्थी खेलों में इतना लीन हो जाए कि पढ़ाई भूल जाए तो अच्छा नहीं होगा; क्योंकि हर बालक सचिन तेंदुलकर नहीं बन सकता है। अत: आवश्यक है कि खेल और शिक्षा में समन्वय बनया जाए तथा खेलों को शिक्षा का अंग बनाकर प्रत्येक विद्यालय में लागू किया जाए।

8. मेरी प्रिय पुस्तक-रामचरित मानस

यद्यपि पुस्तकें मानव के लिए हित-चिंतक मित्र हैं। पुस्तकों को पढ़ने से मनुष्य को कुछ-न-कुछ सकारात्मक संदेश मिलता है, किंतु निर्भर करता है कि हम किस प्रकार की पुस्तकें पढ़ते हैं। सत्-साहित्य को पढ़ना घर बैठे सत्संग हो जाता है। 

सत्-साहित्य मनुष्य को नयी दिशा प्रदान करता है। जिस व्यक्ति को सत्-साहित्य के अध्ययन की आदत पड़ जाती है, उसका चिंतन, उसके कार्य, उसके व्यवहार में सद्-परिवर्तन हो जाता है। हिंदी साहित्य समृद्ध साहित्य है, जिसमें जीवन के प्रत्येक पहलू का चिंतन है, किंतु मेरी प्रिय पुस्तक ‘रामचरित मानस’ ऐसी पुस्तक है जिसमें एक में ही जीवन के प्रत्येक पहलू का दार्शनिक चिंतन है जो सहजता से मनुष्य को प्रेरित करता है, विपदाओं में धैर्य बनाए रखने की प्रेरणा देता है। सावधान करता है। उसके प्रत्येक संदेश अपने ही जीवन को स्पर्श करते हुए प्रतीत होते हैं।

एक में ही समग्रता है। इस तरह इसमें धैर्य है, उत्साह है, रोष है, करुणा है, ममता है, वीभत्सता है, आदर्श है, उत्कृष्टता है अर्थात् संपूर्णता है। मेरी प्रिय पुस्तक ‘रामचरितमानस’ के नायक श्रीराम और रचनाकार श्री तुलसीदास जी हैं। तुलसीदास जी ने नायक श्रीराम में जो रंग भरे हैं, वे अप्रतिम हैं, जो अन्यत्र सुलभ नहीं है। तुलसीदास जी ने अपने आराध्य नायक के बहाने मानव-समाज के लिए जो संदेश दिए हैं, जिन परिस्थितियों को छुआ है उनका समाधान भी किया है और सावधान भी किया है। जिसमें आदर्श-मूल्यों की सराहना है। व्यावहारिक पक्षों का निरूपण किया है। जिसे पढ़कर ऐसा लगता है कि तुलसीदास जी को जीवन के प्रत्येक पक्ष का गहन अनुभव अध्ययन था।

थोड़ी-थोड़ी दूर पर ही उपमाओं और सूक्तियों का सहारा लेकर मनुष्यों को संदेश देते हुए और सावधान करते हुए चले गए हैं। इस पुस्तक की एक बड़ी विशेषता यह भी है कि इसमें तुलसीदास जी ने व्यर्थ के पांडित्य का प्रदर्शन नहीं किया है। सहज, सरल, सुबोध अवधी भाषा में लिखी यह पुस्तक सरलता से ही प्राय: लोगों की समझ में आ जाती है। इसमें प्राय: उन बातों को नहीं छुआ गया है जो विवादित हो सकते हैं। सर्वत्र समन्वय की भावना को दर्शाया गया है। ‘रामचरितमानस’ के सभी पात्र व्यक्ति, समाज और राष्ट्रीय मूल्यों की व्याख्या करते हुए सम्मुख आते हैं।

कर्तव्य-बोध कराते हैं विषमताओं में जीने की सीख देते हैं। इसके नायक कहीं शत्रु को भी गले लगाते हुए दिखाई देते हैं तो कहीं शत्रु को ललकारते हुए। कहीं शबरी के आश्रम में पधार कर जूठे बेर खाते हुए उसकी प्रतिष्ठता बढ़ाते हैं तो कहीं काल को भी ललकारने की हिम्मत करते हुए दिखाई देते हैं। कहीं असहायों को गले लगाते हैं तो अन्यायी को ठिकाने लगाने में चूक नहीं करते हैं। यहीं जड़ समुद्र को भी भयभीत करते हैं तो कहीं ऋषियों के आश्रम में जाकर उनकी वंदना करते हुए दिखाई देते हैं। स्वयं सीखने की बात आती है तो शत्रु रावण से शिक्षा ग्रहण करने के लिए लक्ष्मण को भेज देते हैं। राजनीति का सहारा लेते हैं और विभीषण को अपने पक्ष में लेकर भेदनीति से शत्रु की लंका में फूट डाल देते हैं।

ऐसा धीरोदात्त नायक अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। ‘रामचरितमानस’ ग्रंथ में एक प्रेरणा है, चेतना है। भटकते मनुष्य के लिए सहारा है, एक दिशा है। धैर्य और उत्साह का साक्षात् शरीर जैसा है, आत्मीय संवेदना है. दुष्टों के लिए वेदना है, पारिवारिक-जीवन का पाठ है। राष्ट्रीय संचेतना है, प्रायश्चित की गरिमा है। संगीत का गायन है, भक्तों के लिए रामायण है, आर्यावर्त की स्थापना है, वाचकों के लिए कथा है। ऐसे ‘रामचरितमानस’ में सबको संदेश है। जो व्यक्ति इसके अध्ययन से प्रेरणा लेकर अपने जीवन को सुशिक्षित करता है वह सर्वथा प्रसन्न रहता है। कदम-कदम पर संदेश है। उदाहरण के रूप में यात्रा के लिए जा रहे दंपत्ति रेल में चढ़ रहे थे पहले पुरुष स्वयं चढ़ गया और पत्नी नहीं चढ़ पाई। रेल चल दी। उन्हें अपनी असावधानी का बोध हुआ और ‘रामचरितमानस’ का अनुकरण न करने के कारण चूक हो गई। उन्हें चौपाई याद आई-

‘सिया चढाई चढ़े रघुराई’

‘रामचरितमानस’ अपने लिए, अपने देश के लिए अपनी संस्कृति-पहचान के रूप में अमूल्य धरोहर है। इस ग्रंथ की अपनी विशिष्टता रही है। अनेक मठाधीशों और धर्म के ठेकेदारों के विरोध के बावजूद भी इसकी लोकप्रियता बढ़ती चली गई। हर कसौटी पर खरी उतरी। आज यह भारतीयता की पहचान बनी हुई है। धरोहर के रूप में हर घर में विद्यमान है। पूज्य ग्रंथ के रूप में सुशोभित है। कुछ लोग तो इसकी श्रेष्ठता को मानते हुए पंचम वेद कहने में भी नहीं हिचकिचाते हैं। जब-जब इसकी श्रेष्ठता के गीत गाए जाते हैं तो अनायास ही रचनाकार श्री तुलसीदास जी के प्रति श्रद्धा से माथा नमन करने लगता है। इसमें लोकमंगल की कामना है। इससे तुलसीदास जी भी जन-जन के हृदय सम्राट बने हुए हैं। इसकी श्रेष्ठता को देखते हुए इस पुस्तक का अनुवाद भी अनेक भाषाओं में हो चुका है।

अत: इस पुस्तक का या इस महाकाव्य के अस्तित्व के बारे में कहा जाता है कि यह महाकाव्य धरोहर के रूप में तब तक रहेगा जब-तक गंगा-यमुना में पानी है। यह भारतीयता को अक्षुण्ण बनाए हुए है या यह कहा जाए कि यह भारतीयता का पर्याय है तो अतिशयोक्ति न होगी। इसकी श्रेष्ठता को देखते हुए घर-घर में पहुँचाने में जो उदारता गीता प्रेस, गोरखपुर ने दिखाई है वह भी सर्वथा वंदनीय ही है। यह पठनीय है। अत: इसका अध्ययन अवश्य करना चाहिए। जिस पुस्तक में लोक मंगल की कामना है, वह मेरी ही नहीं, अपितु जन-जन के लिए सराहनीय है। इसकी सरल भाषा में मनुष्य के लिए जो संदेश है, जो आदर्श है, वे संसार की अन्य पुस्तकों में इतनी सरलता से हृदय-ग्राहय नहीं है। यह महाकाव्यत्व के गुणों पर खरा उतरने के कारण यह महाकाव्य है। श्रेष्ठता की कसौटी पर खरा उतरने वाला ‘रामचरितमानस’ श्रेष्ठतम रचना है। इसलिए कहा गया है कि ‘तुलसी के मानस में डुबकी लगाइए’।

9. वर्तमान शिक्षा–प्रणाली कितनी उपयोगी अथवा आधुनिक शिक्षा-प्रणाली

शिक्षा के इस युग में जब हम उस मानव की कल्पना करते हैं जो अशिक्षित होता था, तो कितना हास्यास्पद तथा आश्चर्यजनक लगता है। मनुष्य को उस दशा में कितनी मुसीबतों को सामना करना पड़ा होगा, यह सोचना भी चिंतनीय है। यही कुछ कारण रहे होंगे जिनके कारण मनुष्य ने पढ़ना-लिखना सीखकर प्रगति की दिशा में अपना कदम आगे बढ़ाया। शिक्षा का कितना महत्व है-यह आज बताने की आवश्यकता नहीं है। मानव को मनुष्य बनाने में शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है। शिक्षा के अभाव में उसमें और पशु में विशेष अंतर नहीं रह जाता है। ऐसे ही मनुष्य के लिए कहा गया होगा”ते मृत्युलोके भुविभारभूता मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति।”

शिक्षा ही पशु और मनुष्य में फर्क पैदा करती है। मनुष्य का स्वभाव है कि वह उम्र बढ़ने के साथ-साथ सीखना शुरू कर देता है। अनेक बातें वह माता-पिता और साथियों से सीख जाता है। वह चार-पाँच साल तक बहुत-सी बातें तथा कई शब्दों तथा वाक्यों का प्रयोग करना सीख जाता है। सामान्यतया यही वह समय होता है जब उसे स्कूल भेजा जाता है। शिक्षा-प्रणाली अर्थात् एक निश्चित तरीके से शिक्षा देने की पद्धति कब अस्तित्व में आई यह कहना मुश्किल है। वेदों-पुराणों में इसका उल्लेख मिलता है कि वनों में गुरुकुल होते थे, जहाँ पर बच्चों को अल्पायु में ही भेज दिया जाता था। गुरु के सानिध्य में रहकर बालक पच्चीस वर्ष की उम्र तक विद्यार्जन करता था।

यहाँ रहकर वह उन सभी विद्याओं की शिक्षा प्राप्ति करता था जो उसे एक अच्छा तथा ज्ञानवान मनुष्य बनाती थी। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। इस परिवर्तन से शिक्षा कैसे अछूती रह सकती थी। शिक्षा-प्रणाली में भी परिवर्तन हुए। बदलते वक्त के साथ शिक्षा-प्रणाली अपने वर्तमान स्वरूप में हमारे समक्ष हैं, इसमें भी अनेक गुण और दोष देखे जा रहे हैं। आज हमारे समाज में सरकारी, अर्धसरकारी, प्राइवेट आदि अनगिनत शैक्षिक संस्थाएँ हैं, जिनमें बच्चे को प्राथमिक शिक्षा दी जाती है। इनमें बच्चे को तीन साल से पाँच साल की उम्र में प्रवेश दिया जाता है जिनमें पाठ्यक्रम के अलावा खेल-खेल के माध्यम से शिक्षा दी जाती है। इनमें साधारणतया दस वर्ष की उम्र तक के बच्चे को शिक्षा तथा सामान्य विषयों की प्रारंभिक जानकारी दी जाती है। इनमें पढ़ाने वाले अधिकांश शिक्षक प्रशिक्षित होते हैं। खेद का विषय है कि इस प्राथमिक शिक्षा को प्राप्त करते समय ही बहुत-से विद्यार्थी विद्यालय छोड़ देते हैं और माता-पिता की आमदनी में सहयोग देने हेतु काम में लग जाते हैं। इस प्रकृत्ति को रोकने के लिए सरकार ने अनेक कदम उठाए हैं।

फलस्वरूप प्राथमिक स्तर में विद्यालय छोड़ने वाले विद्यार्थियों में कमी आई है। माध्यमिक स्तर प्राथमिक और महाविद्यालयी शिक्षा के बीच का स्तर है। प्राथमिक शिक्षा उत्तीर्ण करने वाला विद्यार्थी इसमें प्रवेश लेता है। यहाँ बालक का ज्ञान क्षेत्र बढ़ता है। उसे कई विषयों को पढ़ना पड़ता है। यहीं विद्यार्थी अपनी रुचि के अनुसार विषयों को पसंद करने लगते हैं। प्रशिक्षित अध्यापकों के नेतृत्व में वे उत्तरोत्तर आगे बढ़ते जाते हैं। दसवीं की पढ़ाई के बाद की शिक्षा विभिन्न वर्गों एवं व्यवसायों में बँट जाती है।

छात्रों की संख्या ग्यारहवीं कक्षा तक आते-आते प्राथमिक शिक्षा की तुलना में लगभग आधी रह जाती है। बारहवीं पास छात्र फिर विभिन्न क्षेत्रों में बँट जाते हैं। यहाँ तक आते-आते कुछ छात्र बीच में ही विद्यालय छोड़ जाते हैं, पर सरकारी नीतियों में बदलाव आने के कारण विद्यालय छोड़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या में कमी आई है। प्रत्येक देश की उन्नति वहाँ के नागरिकों पर निर्भर करती है। आज शिक्षा के माध्यम से जिस तरह के नागरिक तैयार किए जाएँगे, देश की प्रगति भी उसी तरह होगी। अंग्रेजों को इस बात की समझ थी। उन्होंने भारतीय साहित्य और इतिहास नष्ट करने के साथ ही शिक्षा को अपने अनुकूल बनाया और ऐसी शिक्षा-प्रणाली भारत में लागू की जिससे भारतीय सिर्फ क्लर्क बनें और वे भारत में उनके शासन को मजबूत बनाने में अपना सहयोग दें।

सन् 1828 में लार्ड विलियम बैंटिक ने भारत में शिक्षा-प्रणाली में सुधार किया। उसी समय भारत की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी घोषित की गई थी। इससे भारतीयों का मस्तिष्क संकुचित हुआ और शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य नौकरी भर रह गया। वर्तमान शिक्षा-प्रणाली ऐसी है कि विश्वविद्यालय की शिक्षा पाने के बाद भी विद्यार्थी स्वयं को अनिश्चित दिशा में खड़ा पाता है। आज शिक्षा पाकर भी अनेकानेक विद्यार्थी निराशाग्रस्त हैं। वे बस सरकारी नौकरी करना चाहते हैं। उसे पाने के लिए अपना समय, श्रम तथा धन गवाते रहते हैं। ऐसी शिक्षा-प्रणाली मनुष्य-को-मनुष्य बनाना, आत्मनिर्भरता की भावना भरना, चरित्र-निर्माण करना जैसे उद्देश्य से कोसों दूर है। आज यह उदरपूर्ति का साधन मात्र बनकर रह गई है। आज ऐसी शिक्षा-प्रणाली की आवश्यकता है जो देश के लिए अच्छा नागरिक, कुशल कार्यकर्ता उत्पन्न करे तथा व्यक्ति को आत्मनिर्भरता की भावना से भर दे। शिक्षा में व्यावहारिकता तथा रचनात्मकता हो जिससे आगे चलकर वही छात्र देश के विकास म हर तरह का सहयोग दे सके।

10. सत्संगति

सत्संगति को लेकर अनेक सार्थक और तथ्यपूर्ण उक्तियाँ कही गई हैं। अनेक कहानीकारों ने सत्संगति की महत्ता को अपनी कहानी का विषय बनाया है जिसके माध्यम से उन्होंने लोगों के जीवन में सत्संगति के प्रभाव को दर्शाया है। कहानीकार सुदर्शन जी की कहानी ‘हार की जीत’ का डाकू खडग सिंह, बाबा भारती की थोड़ी-सी बात सुनकर उससे इतना प्रभाव पड़ा कि बाबा भारती का छीना हुआ घोड़ा वापस ही नहीं किया अपितु डाकू-प्रवृत्ति को ही त्याग दिया है। इसलिए श्री तुलसीदास की उक्ति सार्थक ही है कि-

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।

तुलसी संगति साधु की, कटै कोटि अपराध।।

सज्जन पुरुषों का सत्संग पाकर अतिसामान्य जन महान हो गए। जीवन सुधरा और उनके जीवन लक्ष्य बदले और ध्येय पथ पर अग्रसर होते हुए महानों से महान हुए। अंगुलिमाल जैसा पातकी महात्मा बुद्ध के सानिध्य से अपनी हिंसक प्रवृत्ति को छोड़ दिया। ऐसे ही डाकू रत्नाकर जो डाकू-प्रवत्ति को ही अपनी कमाई का साधन मानता था, ऐसा डाकू देवर्षि नारद के सानिध्य में आया और इतना परिवर्तन हुआ. इतना प्रभाव पड़ा कि कवियों का कवि आदि कवि बन गए और डाकू रत्नाकर से महिर्ष वाल्मीकि बन गए। यह सत्संगति का प्रभाव था। इसलिए यह सत्य है कि संत्संगति सद्गुणों का विकास करती है। मनुष्य के असत् विचारधाराओं को दूर कर सद् प्रवृत्ति का विकास करती है। जिस प्रकार बुरे लोगों के पास बैठने से वैसा ही प्रभाव पड़ता है उसी प्रकार सज्जन लोगों के संसर्ग से भी प्रभाव पड़े नहीं रहता है। इन तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि श्री तुलसीदास जी ने सत्य ही कहा है कि

शठ सुधरहिं सत्संगति पाई।

पारस परसि कुधात सुहाई।।


इसलिए महापुरुषों का सत्संग तीर्थ से भी बढ़कर है या यह कहा जाए कि महापुरुषों का सत्संग चलता हुआ तीर्थ है जिससे ब्रारह वर्ष के बाद आने वाले महाकुंभ के स्नान से भी बढ़कर पुण्य मिलता है, जिसका फल तुरंत मिलता है, जबकि तीर्थों का फल कुछ समय के बाद ही मिलता है। अत: सत्य सिद्ध है कि विज्ञ पुरुषों के कथानुसार सत्संग से जीवन पवित्र हो जाता है, असत् प्रवृत्तियाँ पलायन कर जाती हैं और शांति मिलती है। शांतचित्त को प्रतिक्षण आनंदानुभूति होती है। सत्संग के महत्व को स्वीकारते हुए श्री तुलसीदास जी ने यहाँ तक कहा है कि-

तात स्वग अपवर्ग सुख धरिआ तुला एक अग।

तूल न तोहि सकल मिलि, जो सुख लव सत्संग।

जहाँ विद्वानों ने सत्संग की महिमा के गीत गाए हैं वहीं कुसंग से बचने की सलाह भी दी है। यद्यपि सज्जन पुरुष पर कुसंग का प्रभाव नहीं पड़ता है, तथापि लगातार कुसंग के संसर्ग में रहने का प्रभाव भी पड़े बिना भी नहीं रहता है। कुसंग में पड़कर बड़े-बड़े महापुरुष भी अपनी सत्प्रवृत्ति को छोड़ असत के पथ पर चल पड़े। पुराणों की कथा के अनुसार पूज्य, सज्जन अजामिल वैश्या के संसर्ग में आकर अपने पांडित्य को भुला बैठा और आजीवन उसी की सेवा में रहा। रघुवंश की राजरानी

जननी, कुत्सिता मंथरा के कुसंग के प्रभाव को न नकार सकी और सदा-सदा के लिए लोगों के लिए हेय बन गई। वैधव्य का कारण बनी, पुत्र स्नेह से वंचित हो गई. पवित्र-वंश रघुवंश के लिए कलंक बन गई। जो निरंतर राम का हित सोचती थी वही कैकयी मंथरा का संसर्ग पाकर बालक राम को वन भेजने के लिए हठ कर बैठी। इस संदर्भ में तुलसीदास जी ने इस प्रकार कहा है कि

को न कुसंगति पाई नसाई।

रहें न नीच मतें चतुराई।

अत: विद्वान मानव समाज को प्रेरित करते आए हैं कि यथासंभव कुसंग से, परनिंदा से बचना चाहिए। परनिंदा से सद्-प्रवृत्तियाँ कुंठित होती हैं। संत कवि कबीरदास जी ने भी समाज को सीख देते हुए कहा है कि-

कबिरा सगति साधु की, हरें और की व्याधि।

संगति बुरी असाधु की, आठों पहर उपाधि।।

स्वामी भतृहरि जी ने सत्संगति की पराकाष्ठा को स्वीकारते हुए कहा है कि संगति मनुष्य के लिए क्या-क्या नहीं करती है; सत्संगति बुराइयों से हटाकर अच्छाइयों की ओर प्रेरित करती है। कुत्सित मार्ग से हटाकर सन्मार्ग की ओर ले जाती है। अवनति से उन्नति की ओर ले जाती है। मन को प्रसन्न करती है. दुष्कृत्यों से रोकती है और निर्भय करती है। इस तरह सत्संगति मनुष्य जीवन के लिए वरदान है जो उसकी कीर्ति को दरमें दिशाओं में फैलाती है। सत्संगति का मनुष्य जीवन पर प्रभाव पड़ रहा है-इसका मूल्यांकन स्वयं ही होने लगता है कि वह प्रतिक्षण दूसरों के हित का चिंतन करता है, मन में परोपकार की भावना उत्पन्न होने लगती। परनिंदा में कोई रस नहीं आता है। मन में प्रफुल्लता रहती है, उत्साह रहता है।

अत: स्पष्ट है कि सत्संग मानव-जीवन को उन्नत पथ की ओर ले जाने वाली सहज कसौटी है, जो मनुष्य में परिवर्तन लाकर ऐसे स्थान पर पटक देती है कि जहाँ तड़पने के अतिरिक्त कुछ शेष नहीं है। प्रायश्चित करने पर भी माथे पर लगे कलंक को किसी प्रकार धोया नहीं जा सकता है। किसका चरित्र कितना उन्नत है या निम्न है यह उसके व्यवहार से पता चलता है और यह व्यवहार उसके संग को बताता है। इसलिए कहा-

जो जानव सत्संग प्रभाऊ।

लोकहुँ वेद न जान उपाऊ।

11. कंप्यूटर-आज की आवश्यकता

मनुष्य की प्रगति में विज्ञान की महत्वपूर्ण भूमिका है। उसने मनुष्य को वह सभी सुविधाएँ दी हैं जिनकी वह सदा से लालस: किया करता था। विज्ञान ने जिन उपकरणों एवं विशिष्ट साधनों से जीवन सुखमय बनाया है, उनमें दूरदर्शन, मोबाइल फोन, विभिन्न चिकित्सीय उपकरण, फ्रिज, ए.सी. कारें आदि हैं, परंतु कप्यूटर का नाम लिए बिना यह विकास यात्रा अधूरी सी लगती है। आज इसका प्रयोग लगभग हर स्थान पर देखा जा सकता है।


कंप्यूटर क्या है, ऐसी जिज्ञासा मन में आना स्वाभाविक है। वास्तव में कंप्यूटर अनेक यांत्रिक मस्तिष्कों का योग है, जो अत्यंत तेज गति से कम-से-कम समय में सही-सही काम कर सकता हैं। गणितीय समस्याओं को हल करने में कंप्यूटर का कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं है। इसके प्रयोग से हर कार्य को अत्यंत शीघ्रता से किया जा रहा है जो इसकी दिन-प्रतिदिन बढ़ती लोकप्रियता का कारण है। भारत में भी कंप्यूटर के प्रति आकर्षण बढ़ा है, जिसको और उन्नत बनाने के लिए विभिन्न देशों के साथ शोध कार्य किया जा रहा है।


कंप्यूटर का जन्म उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में हुआ। जिसके जनक थे-चालर्स बेवेज। यह कंप्यूटर जटिल गणनाएँ आसानी से और कम समय में कर सकता है। इसमें आँकड़ों को मुद्रित करने की भी अद्भुत क्षमता है। इसमें गणनाओं के लिए एक विशेष भाषा का प्रयोग किया जाता है जिसे ‘कंप्यूटर का प्रोग्राम’ कहा जाता है। कंप्यूटर की गणना कितनी शुद्ध है, इसका उत्तरदायित्व कंप्यूटर पर कम उसके प्रयोगकर्ता पर अधिक निर्भर करता है। आज इसका प्रयोग हर क्षेत्र में होने लगा है। कंप्यूटर का प्रयोग अब इतना बढ़ गया है कि यह सोचना पड़ता है कि कंप्यूटर का प्रयोग कहाँ नहीं हो रहा है। बैंक में हिसाब-किताब रखना हो या पुस्तकों का प्रकाशन, कंप्यूटर ने अपनी भूमिका से इसे आसान बना दिया है।


आज चिकित्सा, इंजीनियरिंग, रेलगाड़ियों के संचालन, उनके टिकटों की बुकिंग, वायुयान की उड़ान तथा टिकट बुकिंग में इसका प्रयोग किया जा रहा है। इसके अलावा भवनों, मोटर-गाड़ियों, हवाई-जहाज, विभिन्न उपकरणों के पुजों के डिजाइन तैयार करने में इसका उपयोग किया जा रहा है। कला के क्षेत्र में भी इसका प्रयोग किया जा रहा है। अंतरिक्ष विज्ञान, औद्योगिक क्षेत्र, आम-चुनाव तथा परीक्षा के प्रश्नपत्र बनाने और उनका मूल्यांकन करने के लिए भी कंप्यूटर का उपयोग किया जा रहा है। कंप्यूटर ने अपनी उपयोगिता के कारण कार्यालयों में गहरी पैठ बना ली है। इसकी मदद से अब फाइलों की संख्या घटकर बहुत ही कम हो गई है। कार्यालय की सारी गतिविधियाँ सी.डी. में संग्रहित कर ली जाती हैं और यथा समय उनको कंप्यूटर के माध्यम से सुविधाजनक तरीके से प्रयोग में लाया जा सकता है। स्थिति यह है कि ‘फाइलों को दीमक चाट गए’ वाली बातें बीते समय की होती जा रही हैं।


इंटरनेट का साथ कंप्यूटर के लिए सोने पर सुहागा वाली स्थिति बना देता है। अब तो समाचार-पत्र भी इंटरनेट के माध्यम से कंप्यूटर पर पढ़े जा सकते हैं। विश्व के किसी कोने में छपी पुस्तक हो या कोई फिल्म या किसी घटना की जानकारी इंटरनेट के माध्यम से कंप्यूटर पर उपलब्ध है। वास्तव में बहुत-सी जानकारियों का ढेर कंप्यूटर के रूप में हमारे कमरे में उपलब्ध है। , कंप्यूटर बहुत ही उपयोगी उपकरण है। यह विज्ञान की वह अद्भुत खोज है जो बहुउपयोगी है। आवश्यकता है कि इसका आवश्यकतानुरूप तथा ठीक-ठीक प्रयोग किया जाए। मनुष्य को चाहिए कि वह अपने हर कार्य के लिए कंप्यूटर पर आश्रित न बने तथा स्वयं भी सक्रिय रहे। इसे प्रयोग में लाते समय स्वास्थ्य संबंधी निर्देशों का पालन अवश्य करना चाहिए जिससे हमारे स्वास्थ्य पर इसका कुप्रभाव न पड़े।

12. समाचार-पत्रों का महत्व

मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह अपने आस-पास घटने वाली घटना के बारे में जानकारी लेना चाहता है। मनुष्य अपनी योग्यता, साधन और सामथ्र्य के अनुसार समय-समय पर समाचार जानने का प्रयास करता रहा है। जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता गया. उसकी जिज्ञासा आस-पास की परिधि तोड़कर देश-विदेश तक पहुँच गई। वह अन्य देशों की घटनाओं के बारे में जानने का इच्छुक हो गया। छापाखाना के आविष्कृत होने के बाद सामाचार-पत्रों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उससे घर बैठे विश्व की घटनाओं की जानकारी मिलने लगी।


समाचार-पत्रों के आविष्कार से पहले एक स्थान से दूसरे स्थान तक खबर भेजना या खबर पाना बड़ा ही कठिन काम था। राजा या संपन्न लोग प्राचीन काल में अपने हरकारों या अश्वारोहियों को भेजकर समाचारों का आदान-प्रदान कर लेते थे, पर आम आदमी के लिए यह बहुत ही मुश्किल कार्य था। समाचारों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजने में बड़ा समय लग जाता था। कभी-कभी तो किसी की बीमारी की खबर देकर जब कोई वापस आता था तब तक बीमार व्यक्ति की मृत्यु हो चुकी होती थी। सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को बौद्धधर्म के प्रचार-प्रसार हेतु श्रीलंका भेजा तथा अपने सिद्धांतों के प्रचार के लिए जगह-जगह लाटें खुदवाई और स्मारक बनवाए ताकि आने-जाने वाले इसे पढ़कर उनके विचारों से अवगत हो सकें।


पढ़े-लिखे व्यक्ति समाचार जानने के लिए प्रात:काल बिस्तर छोड़ते ही समाचार-पत्र ढूँढ़ते हैं। वह अपने समाज, देश तथा दुनिया के बारे में जानना चाहते हैं, जिसके लिए समाचार-पत्र सबसे अच्छा साधन है। प्रात: की चाय पीते समय यदि समाचार-पत्र न मिले तो चाय का स्वाद फीका-सा लगता है। लोग समाचार-पत्र पढ़ने के बाद ही अपने ऑफिस या काम पर जाना चाहते हैं। अपनी छपने की अवधि के आधार पर समाचार-पत्र कई प्रकार के होते हैं। जो समाचार-पत्र प्रतिदिन छपते हैं, उन्हें दैनिक समाचार-पत्र कहते हैं। इनमें नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान, पंजाब केसरी, दैनिक जागरण, राष्ट्रीय सहारा, आज, वीर अर्जुन, जनसत्ता प्रमुख दैनिक समाचार-पत्र हैं। इसी तरह टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान, दि हिंदू अंग्रेजी के दैनिक समाचार-पत्रों की श्रेणी में आते हैं। सप्ताह में एक बार छपने वाले पत्रों को साप्ताहिक समाचार-पत्र कहते हैं, जिनमें सप्ताह भर के प्रमुख समाचार, विभिन्न विषयों पर लेख, कहानियाँ तथा साप्ताहिक घटनाओं का विवरण होता है।


पंद्रह दिन में एक बार छपने वाले समाचार-पत्रों को पाक्षिक तथा महीने में एक बार छपने वाले समाचार-पत्रों को मासिक-पत्र कहा जाता है। इनमें ज्ञान से भरपूर लेख, सुंदर कहानियाँ, वैज्ञानिक तथा राजनीतिक लेख, पुस्तक समीक्षा आदि छपा होता है। समाचार-पत्रों के लाभ की स्थिति यह है कि इनसे ‘आम के आम गुठलियों के दाम’ वाली कहावत चरितार्थ होती है। समाचार-पत्र पढ़कर हम घर बैठे विश्व भर की घटनाओं का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। इससे हमारा मानसिक विकास होता है। यद्यपि समाचारों का संकेत हमें रेडियो और दूरदर्शन पर भी मिल जाता है, परंतु इनकी विस्तृत जानकारी हमें समाचार-पत्रों से ही होती है। दूरदर्शन और रेडियो पर समय की बाध्यता होती है, इनमें समाचार जानने के लिए हमें उनके समय पर वहाँ उपस्थित रहना होगा, किंतु समाचार-पत्र खरीदकर हम उसे अपनी मर्जी के अनुसार पढ़ सकते हैं।


कुछ आवश्यक समाचार, संपादकीय, कहानी या विशेष समाचार को बार-बार पढ़ सकते हैं। इसके अलावा इनमें से आवश्यक सामग्री का संग्रह भी किया जा सकता है, जिसे भविष्य में कभी भी प्रयोग में लाया जा सकता है। समाचार-पत्रों में बालक से वृद्ध तक हर आयु वर्ग के लिए उपयोगी सामग्री होती है। इनमें गीत, कहानी, चुटकुले, खेल, समाचार, वर्ग पहेली, आर्थिक समाचार, राजनीतिक समाचार, विभिन्न वस्तुओं के बाजार भाव, शेयरों के दाम, विभिन्न उपयोगी वस्तुओं के विज्ञापन के अलावा फिल्मी दुनिया की खबरें, समीक्षा तथा फिल्मी अभिनेता-अभिनेत्रियों की आकर्षक तस्वीरें होती हैं, जिसे युवा वर्ग रुचि से पढ़ता-देखता है। समाचार-पत्रों का लोकतंत्र को चौथा स्तंभ कहा जाता है। समाचार-पत्रों के संपादकों को अपना काम निष्पक्ष भाव से करना चाहिए, ताकि इनकी विश्वसनीयता पर आँच न आए। समाचार-पत्र बहुउपयोगी हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है।


13. खेल और स्वास्थ्य अथवा जीवन में खेलों का महत्व


खेल मात्र खाली समय का सदुपयोग नहीं है, अपितु जीवन की नियमित आवश्यकता है। अपनी दिनचर्या में जिसने खेलों के लिए स्थान दिया है, वह मनुष्य सदैव प्रसन्न रहता है। स्वस्थ रहता है, मजबूत रहता है। बड़ी-बड़ी मुसीबतों में विचलित नहीं होता है। सदैव सूरजमुखी के जैसा चेहरा खिला-खिला रहता है, नहीं तो गुड़हल-सा सदैव मुरझाया ही रहता है। युवक में आत्मविश्वास रहता है, नेतृत्व की क्षमता उत्पन्न होती है, इच्छाशक्ति सदैव बलवती रहती है। संगठन की शक्ति का अहसास होता है। निराशाएँ कभी ऐसे व्यक्ति का पीछा नहीं कर पाती हैं। होंठों पर मुस्कुराहट, वार्ता में आत्मविश्वास, मन में उत्साह, स्वस्थ-विचारों का विकास एक साथ झुंड बनाए रहते हैं। इस तरह स्वस्थ शरीर वरदान बन जाता है।


अत: खेल स्वास्थ्य का पर्याय है। अस्वस्थ शरीर में खेल की भावना नहीं हो सकती है। अस्वस्थ शरीर बोझिल बन अभिशाप होता है अर्थात् जीवन के हर आनंद से वंचित रहता है। मन में कुंठा होती है, ईष्या होती है, सर्वथा असमर्थ होने पर भी क्रोध होता है। अनमना रहता हुआ किसी भी व्यक्ति का सामना करने में संकोच करता है। घुट-घुट कर जीता है, किसी प्रकार जीवन-यात्रा पूरी करता हुआ ईश्वर से प्रार्थना में अपनी मौत माँगता है। अस्वस्थ शरीर सर्वथा हतोत्साहित रहता है। इस तरह खेलों का सीधा संबंध स्वास्थ्य, दृढ़ इच्छाशक्ति से है।


धन के अभाव में मनुष्य सुख का अनुभव कर सकता है। शरीर के स्वस्थ रहने पर धन प्राप्त करने के प्रयास किए जा सकते हैं। धन के अभाव में सामान्य-से-सामान्य जीवन जीता हुआ परिस्थितियों को सहन करते हुए सुख की कामना बनाए रख सकता है। किंतु अस्वस्थ रहने पर सुखों का अनुभव तो दूर, सब कुछ सामने होते हुए भी सुख की कामना नहीं कर पाता है। बुझा-बुझा सा, सुख में भी मुरझाया हुआ रहता है। किसी भी प्रकार की कल्पना नहीं कर सकता है। अत: जिसका स्वास्थ्य अच्छा है वह ही सब कुछ करने की और सब कुछ प्राप्त करने की इच्छा रख सकता है। इसलिए जीवंत पुरुष यही कहा करते हैं कि मनुष्य को स्वास्थ्य के प्रति सदैव सचेत रहना चाहिए। जिसने नियमित खेलना सीख लिया. जीवन में नियमित प्रात: भ्रमण करना सीख लिया उसने सब सीख लिया। रोग-व्याधि उससे दूर ही भागते हैं।


भौतिक सुखों को तभी प्राप्त किया जा सकता है जब शरीर आरोग्य हो। अत: विद्वान कहा करते हैं कि शरीर को स्वस्थ रखने लिए दवाओं के ढेर रखने से अच्छा है खेलना सीखो, सांसारिक सुखों की अनुभूति करनी है तो हँसना सीखी। उन्होंने यह भी कहा है अपने साथ दवाएँ रखने से तो अच्छा है कि खेलने वाले साथियों के मध्य रहो। यह भी न हो सके तो हँसोड़ व्यक्ति को अपने साथ रखो, जो सदैव हँसकर हँसाने का प्रयास करता रहे। हँसना भी खेल का एक हिस्सा है। हँसी तभी आनंददायक होगी जब शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होंगे। स्वस्थ युवक खेल-सामग्री के अभाव में भी खेल सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि खेल के लिए विशेष साधन जुटाए जाएँ। साधन के अभाव में भी खिलाड़ी कोई-न-कोई खेल ढूँढ़ ही लेते हैं। साथी न मिलने पर भी मस्ती में अकेले भी खेला जा सकता है।


प्रेमचंद की कहानी ‘बड़े भाई साहब’ में छोटा भाई किसी के न होने पर फाटक पर चढ़कर आगे-पीछे कर मस्त हो जाता है। इसलिए खेल के लिए विशेष साधन की आवश्यकता नहीं है, अपितु खेल के प्रति रुचि की आवश्यकता है। आज खेल के साधन बाजार में महँगे दामों पर मिलते हैं। यह सोचकर न बैठे कि जब तक साधन नहीं होंगे तब तक कैसे खेलेंगे। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। अधिकांश लोग आज अपने स्तर को बनाए रखने के लिए बच्चों को घर में कैद रखना चाहते हैं, वे खेल के सभी साधन घर में ही जुटा दिए हैं, जिससे सामूहिक खेलों से बालक वंचित रह जाता है। साथ ही घर में खेले जाने वाले खेलों से मानसिक खेल तो हो जाते हैं, किंतु शारीरिक खेल नहीं हो पाते हैं। शारीरिक खेल तो घर से बाहर सामूहिक रूप से ही संपन्न होते हैं।


आज क्रिकेट, फुटबॉल, बास्केटबॉल तथा अन्य-अन्य खेलों के प्रति स्तरीय रुचि संपन्न घरों में उत्पन्न हुई है। किंतु ग्रामीणी क्षेत्रों में आज भी साधारणत: चार लोग इकट्ठे हुए, शोर हुआ, ताली बजाई और हो गया खेल शुरू। ग्रामीण अंचल में खेले जाने वाले प्राय: सभी खेल बिना किसी विशेष साधन के खेले जाते रहे हैं। उनमें खेलों के प्रति पर्याप्त रुचि भी होती है। आयुर्वेद में कहा गया है कि खूब भूख लगने पर भोजन का आनंद मिलता है और परिश्रम से पसीना आने पर शीतल छाया का आनंद मिलता है। थकान के बाद शीतल छाया में और सामान्य भोजन में जो आनंद की अनुभूति होती है ऐसी आनंद की अनुभूति रोगस्त शरीर को विविध प्रकार के व्यंजनों में भी नहीं मिलती है। अत: किसी प्रकार की आनंदानुभूति के लिए खेल को नियमित रूप से अपनाना आवश्यक है।


उदाहरणस्वरूप जो बालक रुचि से खेलता है उसकी पाचन-शक्ति बढ़ती है। इसलिए उसे जोर की भूख लगती है रूखा-सूखा जो भी मिल जाता है, उसे मन भर खाता है और स्वस्थ रहता है। दूसरी तरफ ऐसे भी सुस्त और आलसी बच्चे होते हैं जिनके माँ-बाप टी०वी० पर आने वाले खाद्य पदार्थों के विज्ञापनों को दिखाकर उनके अंदर उसे खाने के लिए ललक पैदा करते हैं। फिर भी वो उसे खाने से कतराते हैं और अस्वस्थ रहते हैं। अत: खेलने वाले बच्चों, युवकों के लिए कभी चिकित्सकों की आवश्यकता नहीं पड़ती है। शरीर स्वयं ही आरोग्य रहता है। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है—इस उक्ति के अनुसार प्रत्येक कार्य के प्रति उनके अंदर उत्साह रहता है। कोई भी राष्ट्र शक्ति-साधन इकट्ठे कर लेने से शक्तिशाली नहीं हो सकता है, यदि उस राष्ट्र के निवासी स्वस्थ न हों।


आज उन्नत राष्ट्र की पहचान उस राष्ट्र के स्वस्थ नवयुवक हैं जिनमें अदम्य उत्साह दिखाई देता है। ऐसा न होने पर सारे उपकरण धरे-के-धरे रह जाते हैं। यदि हम चाहते हैं कि हमारा राष्ट्र उन्नत हो, शक्ति संपन्न हो तो राष्ट्र के युवक को स्वस्थ और आरोग्य होना आवश्यक है। यह तभी संभव है जब मनुष्य अपनी लाख व्यस्तता से समय निकाल कर व्यायाम और खेलों के लिए नियमित समय दें। यह जीवन का अंग हो। हम स्वयं खेलते हुए स्वस्थ रहते हुए दूसरों को भी प्रेरित करें।


14. पर्वों का बदलता स्वरूप


भारतीय स्वभावत: उत्सवप्रिय होते हैं। वे समय-असमय उत्सव मनाने का बहाना खोज लेते हैं। यह उनके स्वभाव में प्राचीन काल से शामिल रहा है। मनुष्य अपने थके-हारे मन को पुन: स्फूर्ति तथा उल्लासमय बनाने के लिए विभिन्न प्रकार के पर्व मनाता रहा है। मनुष्य के जीवन में पर्वो का महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि ये मानव-जीवन को खुशियों से भर देते हैं तथा हमें निराशा एवं दुख से छुटकारा दिलाते हैं। वास्तव में पर्व सांस्कृतिक चेतना के वाहक हैं।


भारत में आए दिन कोई-न-कोई पर्व और त्योहार मना लिया जाता है। यहाँ कभी महापुरुषों की प्रेरणाप्रद पुण्यतिथियों तथा जयंतियों का आयोजन किया जाता है तो कभी ऋतु मौसम, महीने के आगमन और प्रस्थान पर पर्व मनाए जाते हैं। साथ ही धार्मिक तथा क्षेत्रीय पर्व एवं त्योहर भी मनाए जाते हैं। इनमें से राष्ट्रीय और धार्मिक पर्व विशेष महत्व रखते हैं। कुछ पर्व ऐसे होते हैं, जिन्हें सारा देश बिना किसी भेदभाव के मनाता है और इनको मनाने का तरीका भी लगभग एक-सा होता है। ये राष्ट्रीय पर्व कहलाते हैं।


स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, गांधी जयंती (2 अक्टूबर) को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। इनके अलावा कुछ त्योहार धर्म के आधार पर मनाए जाते हैं। इनमें से कुछ को हिंदू मनाते हैं तो मुसलमान नहीं और मुसलमान मनाते हैं तो सिख या इसाई नहीं, क्योंकि ये उनके धर्म से संबंधित होते हैं। दीपावली, दशहरा, रक्षाबंधन, होली, मकर संक्राति तथा वसंत पंचमी हिंदुओं से संबंधित पर्व या त्योहार माने जाते हैं तो, ईद-उल-जुहा, बकरीद, मोहर्रम आदि मुसलिम धर्म मानने वालों के त्योहार हैं। बैसाखी. लोहिड़ी सिख धर्म से संबंधित त्योहार हैं तो क्रिसमस ईसाई धर्म मानने वालों का त्योहार है। भारत में पर्व मनाने की परंपरा कितनी पुरानी है, इस संबंध में सही-सही कुछ नहीं कहा जा सकता है। हाँ, त्योहारों में एक बात जरूर हर समय पाई जाती रही है कि इनके मूल में एकता, हर्ष, उल्लास तथा उमंग का भाव निहित रहा है। त्योहारों को मनाने के पीछे कोई-न-कोई घटना या कारण अवश्य रहता है, जो हमें प्रतिवर्ष इसे मनाने के लिए प्रेरित करता है।


उदाहरणार्थ-दीपावली के दिन भगवान रामचंद्रजी के वनवास की अवधि बिताकर अयोध्या वापस आए तो लोगों ने खुश होकर घी के दीप जलाकर उनका स्वागत किया। उसी घटना की याद में आज भी प्रतिवर्ष घी के दीपक जलाकर उस घटना की याद किया जाता है और खुशी प्रकट की जाती है। बाजार के प्रभाव के कारण हमारा जीवन काफी प्रभावित हुआ है, तो हमारे पर्व इसके प्रभाव से कैसे बच पाते। पर्वो पर बाजार का व्यापक प्रभाव पड़ा है। पहले बच्चे राम लीला करने या खेलने के लिए अपने आसपास उपलब्ध साधनों से धनुष-बाण, गदा आदि बना लेते थे, चेहरे पर प्राकृतिक रंग आदि लगाकर किसी पात्र का अभिनय करते थे, पर आज धनुष-बाण हो या गदा, मुखौटा हो या अन्य सामान सभी कुछ बाजार में उपलब्ध है। इसी प्रकार दीपावली के पर्व पर मिट्टी के दीप में घी या तेल भरकर दीप जलाया जाता था, बच्चों के खेल-खिलौने भी मिट्टी के बने होते थे, पर आज मिट्टी के दीप की जगह फैसी लाइटें, मोमबत्तियाँ तथा बिजली की रंग-बिरंगी लड़ियों ने ले ली है।


बच्चों के खिलौनों से बाजार भरा है। सब कुछ मशीन निर्मित हैं। रंग-बिरंगी आतिशबाजियाँ कितनी मनमोहक होती हैं. यह बताने की आवश्यकता नहीं है। सब बाजार के बढ़ते प्रभाव का असर है। कोई भी पर्व या त्योहार हो उससे संबंधित काडों से बाजार भरा है। समय की गति और युग-परिवर्तन के कारण युवकों के धार्मिक सोच में काफी बदलाव आया है। युवाओं का प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रति लगाव कम होता जा रहा है। वे विदेशी संस्कृति, रीति-रिवाज, फैशन को महत्व देने लगे हैं। इस कारण आज हमारे समाज में पाश्चात्य पर्वो को स्वीकृति मिलती जा रही है।


युवाओं का ‘वेलेंटाइन डे’ मनाने के प्रति बढ़ता क्रेज इसक: जीता-जागता उदाहरण है। आज की पीढ़ी को परंपरागत भारतीय त्योहारों की जानकारी भले न हो पर वे पाश्चात्य पर्वो की जरूर जानते हैं। पर्वो-त्योहरों के मनाने के तौर-तरीके और उनके स्वरूप में बदलाव आने का सबसे प्रमुख कारण मनुष्य के पास समय का अभाव है। आज मनुष्य के पास दस दिन तक बैठकर राम-लीला देखने का समय नहीं है। वे महँगाई की मार से परेशान हैं उनके लिए दो जून की रोटी जुटाना मुश्किल हो गया है। जिनके पास मूलभूत सुविधाएँ हैं वे सुखमय जीवन जीने की लालसा में दिन-रात व्यस्त रहते हैं और पर्व-त्योहार के लिए भी मुश्किल से समय निकाल पाते हैं। f. बदलते समय के साथ-साथ पर्व-त्योहार के स्वरूप में बदलाव आया है। महँगाई, समयाभाव, बाजार के बढ़ते प्रभाव ने इन्हें प्रभावित जरूर किया है, पर इनकी उपयोगिता हमेशा बनी रहेगी। इनके बिना जीवन सूखे रेगिस्तान के समान हो जाएगा।


15. ‘इंटरनेट-सूचना पौद्योगिकी क्षेत्र में क्रांति’


यदि आज स्वर्ग से मनु महाराज अपनी पृथ्वी को देखें तो वे शायद ही पहचान पाएँ कि यह वही पृथ्वी है जिसे वे हजारों वर्ष पूर्व छोड़ आए थे। इसका स्पष्ट कारण विज्ञान के ये नित नए-नए आविष्कार हैं, जिन्होंने धरती की कायापलट कर रख दी है। चिकित्सा सुविधा हो या खेती की बढ़ी पैदावार, यातायात के साधन में ना सुख देने वाला ‘एअरकंडीशनर’ सभी में विज्ञान का योगदान समाया है। विज्ञान की प्रगति के साथ-ही-साथ संचार जगत् में धूम मची हुई है। इन्हीं धूम मचाने वाले साधनों में एक है इंटरनेट और उससे जुड़ा कंप्यूटर।


इंटरनेट की गणना विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की दुनिया के नवीनतम संसाधनों में की जाती है। प्रोद्योगिकी के इस युग में जो अत्यंत लाभकारी एवं नवीनतम उपकरण मिले हैं, उनमें इंटरनेट अद्भवितीय है। इस साधन ने कंप्यूटर से जुड़कर विश्व समुदाय को विचार-विमर्श करने का एक मंच प्रदान किया है, जिससे दूरियाँ सिमटकर अब अत्यंत छोटी हो गई हैं। इसकी मदद से मनुष्य ने दूरी नामक बाधा पर विजय पा ली है। विज्ञान के इस नवीन आविष्कार का आरंभ सन् 1960 के दशक में हुआ। शीतयुद्ध के समय अमेरिका को ऐसी कमांड कंट्रोल संरचना की आवश्यकता थी, जो परमाणु आक्रमण के प्रभाव से बेअसर रहे। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने ऐसा विकेंद्रित सत्ता वाला नेटवर्क बनाया, जिसमें सभी कंप्यूटरों को समान दर्जा था।


विज्ञान के बढ़ते कदम तथा मनुष्य की बढ़ती जिज्ञासा की शांति करते-करते इंटरनेट बहुउद्देशीय हो गया। अब तो इंटरनेट का प्रयोग अनेक तरह से होने लगा है। इंटरनेट एक ऐसी प्रणाली है, जिसमें बहुत-से कंप्यूटरों को आपस में जोड़ दिया जाता है ताकि उनसे सूचनाएँ दी अथवा ली जा सकें। वास्तव में सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए ही इन कंप्यूटरों को आपस में जोड़ा जाता है। इस प्रकार इंटरनेट करोड़ों कंप्यूटरों को जोड़ने वाला विश्वव्यापी संजाल है। इसमें प्रत्येक इंटरनेट कंप्यूटर होस्ट के नाम से जाना जाता है। यह स्वतंत्र रूप से काम करता है। इंटरनेट के रूप में लोगों को ऐसा सशक्त साधन मिल गया है कि वे दो अलग-अलग प्रांतों में रह रहे हों या अलग-अलग सुदूर देशों में, इसके माध्यम से सुगमतापूर्वक विचार-विमर्श कर सकते हैं। वे एक-दूसरे को नाना प्रकार की सूचनाएँ दे रहे हैं अथवा ले रहे हैं। जिन सूचनाओं को पाना अत्यंत दुष्कर तथा दुर्लभ था, उन्हें इंटरनेट पर आसानी से पाया जा सकता है।


विद्यार्थियों को अब मोटी-मोटी पुस्तकों को खरीदने से छुट्टी मिल गई है। किताबों के रूप में जहाँ उनके पास संसाधन सीमित होते थे, वहीं इंटरनेट ने उनके सामने जानकारी का भंडार खोलकर रख दिया है। इंटरनेट के प्रयोग में 1996 तक काफी लोकप्रियता आ गई थी। लगभग 4.5 करोड़ लोगों ने इसका प्रयोग शुरू कर दिया था, जिनमें से करीब तीन लाख अकेले अमेरीका से थे। 1999 के आते-आते दुनियाभर में इंटरनेट प्रयोग करने वालों की संख्या बढ़कर 15 करोड़ तक जा पहुँची जिनमें आधे अमेरीकी थे। इस समय तक ई-कॉमर्स की अवधारणा तेजी से फैली, जिससे इंटरनेट से खरीद-फरोख्त लोकप्रिय हो गई।


भारत में भी इंटरनेट कनेक्शनों और प्रयोग करने वालों की संख्या बढ़कर करोड़ों में पहुँच गई है। यह संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। अति हर चीज की खराब होती है। इंटरनेट पर काम करते समय कंप्यूटर के सामने बैठना होता है, जिससे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इससे गर्दन तथा कमर में दर्द शुरू हो जाता है। इसका अधिक कुप्रभाव आँखों पर पड़ता है। बच्चे इससे विशेष रूप से प्रभावित होते हैं। इसके अलावा बच्चे अपनी पढ़ाई को छोड़कर इंटरनेट युक्त कंप्यूटर पर खेल खेलने लगते हैं, जिससे वे मोटापे, दृष्टिहीनता तथा आलस्य का शिकार होते जाते हैं। अच्छाई तथा बुराई एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इंटरनेट प्रयोग करने वालों के साथ भी यही बात है। इंटरनेट के प्रयोग से हानि की कोई संभावना नहीं। यह तो प्रयोगकर्ता की आदत, व्यवहार तथा प्रयोग करने के समय पर निर्भर करता है। इंटरनेट सूचना तथा ज्ञान का भंडार है। हमें इसका प्रयोग सावधानीपूर्वक करना चाहिए।


16. दैवीय प्रकोप—भूकंप


यद्यपि प्राकृतिक आपदा जब भी गुस्सा दिखाती है तो कहर ढहाए बिना नहीं मानती है। आकाश तारों को छू लेने वाला विज्ञान प्राकृतिक आपदाओं के समाने विवश है। अनेक प्राकृतिक आपदाओं में कई आपदाएँ मनुष्य की अपनी दैन हैं। कुछ वर्षों में प्रकृति के गुस्से के जो रूप दिखे हैं, उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि प्रकृति के क्षेत्र में मनुष्य जब-जब हस्तक्षेप करता है तो उसका ऐसा ही परिणाम होता है जो सुनामी के रूप में और गुजरात के भयावह भूकंप के रूप में देखने और सुनने में आया। इन दृश्यों को देखकर अनायास ही लोगों के मुँह से निकल पड़ता है कि जनसंख्या के संतुलन को बनाए रखने के लिए प्रकृति में ऐसी हलचल होती रहती है, जो अनिवार्य रूप में हमेशा से होती रही है। वर्षा का वेग बाढ़ बनकर कहर ढहाता है तो कभी ओला, तूफान, आँधी और सूखा आदि के रूप में प्रकृति मनुष्यों को अपनी चपेट में लेती है। अपनी प्रगति का डींग हाँकने वाला विज्ञान और वैज्ञानिक यहाँ असहाय दिखाई देते हैं अर्थात् प्राकृतिक आपदाओं से संघर्ष करने की मनुष्य में सामथ्र्य नहीं है।



धरती हिलती है, भूचाल आता है। जब यही भूचाल प्रलयंकारी रूप ले लेता है, तो भूकंप कहलाता है। सामान्य भूकंप तो जहाँ-तहाँ आते रहते हैं, जिनसे विशेष हानि नहीं होती है। जब जोर का झटका आता है तो गुजरात के दृश्य की पुनरावृत्ति होती है। ये भूकंप क्यों होता है, कहाँ होगा, कब होगा? वैज्ञानिक इसका सटीक उत्तर अभी तक नहीं दे सके हैं। हाँ भूकंप की तीव्रता को नापने का यंत्र विज्ञान ने जैसे-तैसे बना लिया है। सर्दी से बचने के लिए हीटर लगाकर, गर्मी से बचने के लिए वातानुकूलित यंत्र लगाकर, प्रकृति को अपने अनुकूल बनाने में सामान्य सफलता प्राप्त कर ली है, पर वर्षों के प्रयास के बावजूद भी इससे निजात पाने की बात तो दूर उसके रहस्यों को भी नहीं जान पाया है। यह उसके लिए चुनौतीपूर्ण कार्य है। कुछ आपदाएँ तो मनुष्य की देन हैं।


अनुमानित वैज्ञानिक घोषणाओं के अनुसार अंधाधुंध प्रकृति को दोहन और पर्यावरण का तापक्रम बढ़ने से धरती के अंदर हलचल होती है और यह हलचल तीव्र हो जाती है तो भूकंप के झटके आने लगते हैं। धरती हिलने या भूकंप के बारे में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। कुछ धार्मिक व्याख्याओं के कारण यह धरती सप्त-मुँह वाले नाग के सिर पर टिकी है। जब नाग सिर बदलता है तो धरती हिलती है। दूसरी किंवदंती है कि धरती धर्म की प्रतीक गाय के सींग पर टिकी है और जब गाय सींग बदलती है तो तब धरती हिलती है। कुछ धर्माचार्यों का मानना है कि जब पृथ्वी पर पाप-स्वरूप भार अधिक बढ़ जाता है तो धरती हिलती है और जहाँ पाप अधिक वहाँ धरती कहर ढहा देती है। इसके विपरीत वैज्ञानिक का मानना है कि पृथ्वी की बहुत गहराई में तीव्रतम आग है।


जहाँ आग है वहाँ तरल पदार्थ है। आग के कारण पदार्थ में इस तरह की हलचल होती रहती है। जब यह उथल-पुथल अधिक बढ़ जाती है तब झटके के साथ पृथ्वी की सतह से ज्वालामुखी फूट पड़ता है। पदार्थ निकलने की तीव्रता के अनुसार पृथ्वी हिलने लगती है। इनमें से कोई भी तथ्य हो, परंतु ऐसे दैवीय-प्रकोप से अभी सुरक्षा का कोई साधन नहीं है। मनुष्य-जाति के अथक प्रयास से निर्मित, संचित सभ्यता एक झटके में मटियामेट हो जाती है। सब-कुछ धराशायी हो जाता है। वहाँ जो बच जाते हैं, उनमें हाहाकार मच जाती है। राजा और रंक लगभग एकसमान हो जाते हैं क्योंकि ऐसे दैवीय प्रकोप बिना किसी संकोच और भेदभाव के समान रूप से पूरी मानवता पर कहर ढहा देती है।


गुजरात में एकाएक, तीव्रगति से भूकंप हुआ। इस भूकंप ने शायद गुस्से से दिन चुना गणतंत्र दिवस 26 जनवरी। संपूर्ण देश गणतंत्र के राष्ट्रीय उत्सव में मग्न था। गुजरात के लोग दूरदर्शन पर गणतंत्र दिवस का कार्यक्रम को देख रहे थे। तभी एकाएक झटका लगा धरती हिली। ऐसा लगा कि लंबे समय से धरती अपने गुस्से को दबाए हुए थी। आज उसका गुस्सा फूट पड़ा। ऐसा फूटा कि लोग सोच भी न पाए कि क्या हुआ और थोड़ी ही देर में गगनचुंबी अट्टालिकाएँ, अस्पताल, विद्यालय, फैक्टरी और टेलीविजन के सामने बैठी भीड़ को उसने निगल लिया। शेष रह गई उन लोगों की चीत्कार, जो उसकी चपेट में आने से बच गए थे। बचने वाले लोगों के लिए सरकारी सहायता पहुँचने लगी। यह सहायता कुछ के हाथ लगी और कुछ वंचित रह गए। वितरण की समुचित व्यवस्था न हो सकी। प्राकृतिक आपदा आकस्मिक रूप से अपना स्वरूप दिखाती है। ऐसे समय में मानवीय चरित्र के भी दर्शन होते हैं।


मानवता के नाते ऐसी आपदाओं में मनुष्य एकजुट होकर आपदा-ग्रसित लोगों का धैर्य बँधते हैं कि हम तुम्हारे साथ हैं। हम यथासंभव और यथासामथ्र्य तुम लोगों की सहायता करने के लिए तत्पर हैं। इस तरह टूटता हुआ धैर्य, ढाढस पाकर पुन: पुनर्जीवित हो उठता है। ऐसे समय में ढाढ़स की आवश्यकता भी होती है। यह मानवीय चरित्र भी है। किंतु आश्चर्य तो तब होता है जब इस प्रकार के भयावह दृश्य को देखते हुए भी कुछ लोग अमानवीय कृत्य यानी पीड़ित लोगों के यहाँ चोरी, लूट आदि करने में भी संकोच नहीं करते हैं। एक ओर तो देश के कोने-कोने से और दूसरे देशों से सहायता पहुँचती है और दूसरी ओर व्यवस्था के ठेकेदार उसमें भी कंजूसी करते हैं और अपनी व्यवस्था पहले करने लगते हैं। ऐसे लोग ऐसे समय में मानवता को ही कलंकित करते हैं।


गुजरात में भूकंप के समय समाचार-पत्रों ने लिखा कि बहुत सी समाग्रियाँ वितरण की समुचित व्यवस्था न होने से बेकार हो गई। ऐसी प्राकृतिक आपदाएँ मनुष्य को संदेश देती हैं कि जब-तक जिओ, तब-तक परस्पर प्रेम से जिओ। मैं कब कहर बरपा दूँ। उसका मुझे भी पूर्ण ज्ञान नहीं है। प्राकृतिक आपदा गीता के उस संदेश को दोहराती है कि कर्म करने में तुम्हारा अधिकार है फल में नहीं। यह प्राकृतिक आपदा मनुष्य को सचेत करती है और संदेश देती है कि मैं मौत बनकर सामने खड़ी हूँ। जब तक जी रहे हो तब तक मानवता की सीमा में रहो और जीवन को आनंदित करो. निश्चित और सात्विक रहो।



17. आतंकवाद-समस्या और समाधान


आतंक कैसा भी हो, भय पैदा करना ही उसका उद्देश्य है। आतंकवाद की परिभाषा भिन्न-भिन्न विचारकों की भिन्न-भिन्न है। यह आतंक अनेक रूप लिए होता है इसलिए आतंकवाद को एक निश्चित परिभाषाबद्ध नहीं किया जा सकता है। इसके अनेक रूप हैं। राजनैतिक आतंकवाद, आर्थिक आतंकवाद, यहाँ तक एक शांत-स्वभाव से अपने कर्तव्य का निर्वाह करने वाले व्यक्ति की शक्ति को छीनना और उसे भयभीट करने से लेकर भारत में संसद पर हमला करना या अमेरिका की शान गगन-चुंबी टावर पर हमला करना सभी आतंकवाद के अंतर्गत आते हैं। इसके अतिरिक्त अपनी दादागीरी दिखाते हुए एक देश के द्वार दूसरे देश की संप्रभुता को छीनने का प्रयास करना


आतंकवाद ही तो होता है। तर्क के आधार पर तो सभी अपने आतंक का समुचित उद्देश्य ही बताते है, फिर आतंक केसा भी हो वह सर्वथा निंदनीय है, अकरणीय है। महात्मा गाँधी जी ने अहिंसा की मान्यता को स्वीकारते हुए हिंसा की परिभाषा स्वीकारते हुए कहा था कि सोते हुए व्यक्ति को जगाना अर्थात् उसके चैन में खलल डालना, उसे दुख देना हिंसा के अंतर्गत है, तो ठीक वैसे ही किसी पर बैठे-बैठाए अपने सिद्धांत थोपना और मानने के लिए किसी प्रकार बाध्य करना आतंकवाद है। घिनौनेपन के स्तर के अनुसार उसके रूप बदलते जाते हैं। सामान्य आतंकवाद से लकर असामान्य आतंकवाद तक। जब निम्नस्तर पर कोई दबंग पुरुष सामान्य स्तर पर आतंक फैलाने लगता है तो उच्चस्तरीय लोग उसे रोकने के स्थान पर उसे बढ़ावा देते हैं और उसका अपने स्वार्थ पूर्ति हेतु इस्तेमाल करते हैं।


पुलिस-प्रशासन से उसे बचाते हैं। वही आगे चलकर ऐसा भस्मासुर बन जाता है, जिसका उपचार भगवान शंकर की तरह उनके पास भी नहीं होता है। वह इतनी शक्ति भी अर्जित कर लेता है, उनको भी आँखें दिखाने लगता है। समयानुसार गाँव, जिला और देश की सीमाओं को लाँघता हुआ पैर पसारने लगता है। सुविज्ञ लोग हमेशा से कहते आए हैं कि दुष्टजन की छोटी-सी गलती पर यदि प्रतिक्रिया नहीं होती है तो उसका दुस्साहस बहुत अधिक बढ़ जाता है। आज का आतंकी सुशिक्षित और प्रशिक्षित है। वह मच्छर की तरह पहले गुनगुनाता है। सब्जबाग दिखाता है। संगठन खड़ा करता है और अवसर पाते ही डक मारने में किंचित् देरी नहीं करता है। देश और विदेश में जितना भी आतंकवाद पनपा उसके पीछे सरकारों की दुलमुल नीति रही।


आज आतंकवाद इतना पैर पसार चुका है, शरण देने वालों के लिए ही आँख की किरकिरी बन गया है। भारत में आतंकवाद ने कब जड़ें जमा लीं, पता ही नहीं चला। आज भारत का प्रत्येक कोना आतंकवाद के साये में है। कुकुरमुत्ते की तरह, जहाँ-तहाँ आतंकी जन्में हैं। भारत की प्रखर, बड़े-बड़े को लोहे के चने चबा देने वाली, भारत की प्रतिष्ठित प्रथम महिला प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गाँधी आतंकवाद की भेंट चढ़ गई। समय बीता, उनकी ही कोख से जन्में प्रगति की राह पर चलते हुए राजीव गाँधी, आतंकियों को नहीं सुहाए और वे भी आतंक के शिकार हुए। इतना ही नहीं भारत का सर्वोच्च सभा-सदन संसद भवन पर आतंकियों के आक्रमण हुए।


देश की संप्रभुता को तहस-नहस करने के प्रयास हुए। दाउद इब्राहिम के नेतृत्व में मुंबई में मानवता को कपा देने वाला तांडव नृत्य हुआ। समय बीता पुन: मुंबई में आतंकी हमला हुआ। लंबे समय तक पंजाब आतंक के साए में साँस लेता रहा। आज भारत आतंक के साए में है। नित्य धमकी मिलती है। अपहरण होते हैं। लाख सुरक्षा-व्यवस्था होते हुए भी जहाज का अपहरण हुआ जिसमें नवविवाहित दंपति में से पति की हत्या कर दी गई। जहाज के बदले में क्रूर आतंकी छोड़े गए। आज भी वही स्थिति दोहराई जा सकती है। संसद भवन के आक्रांता को सजा मिल चुकी है, फिर भी आतंकियों के दुस्साहस बढ़ते जा रहे हैं।


आतंक इतना पैर पसार चुका है कि इसके अनेक रूप सुनने और पढ़ने को मिलते हैं। उल्फा आतंकवादी, नक्सल उग्रवादी, लिट्टे उग्रवादी, जमात ए-इस्लाम उग्रवादी-ये सभी आतंक के पर्याय हैं। इस आतंकवाद के कारण कितने ही युवक, बुजुर्ग महिला तथा संपत्ति का नुकसान हुआ और हो रहा है। इसका अंत कब होगा? होगा या नहीं? यह संदिग्ध हैं। हमारे देश में आतंकवाद गहरी जड़ जमा चुका है। आतंकवाद पैर पसारते-पसारते विश्व स्तर तक अपनी जड़ जमा चुका है। उसके तार आज विश्व स्तर पर फैले हैं। अमेरिका को सबसे ताकतवर, समृद्ध और सुरक्षा की दृष्टि से सशक्त माना जाता है।


वह दूसरे देशों में पनपते हुए आतंक की खिल्ली उड़ाता था, एक दिन ऐसा भी उसे देखने को मिला जिस दिन उसकी गगनचुंबी इमारतें धू-धू करके धरती में समा गई, तब उसके कान खड़े हुए। संपूर्ण अमेरिका काँप उठा। वहाँ के राष्ट्रपति को थोड़ी देर के लिए गुस्सा आया। हाथ उठाकर प्रतिज्ञा की कि आतंकी संगठन के मुखिया ओसामा-बिन-लादेन यदि चूहे के बिल में भी होगा, वहाँ से भी ढूँढ़ निकालेंगे। जिसके कारण अफगानिस्तान तहस-नहस हुआ, पाक में भी संदिग्ध स्थानों पर बम बरसाए।


अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने गुपचुप राजनीति के तहत ओसामा-बिन-लादेन के ठिकाने का पता लगाकर उसे मौत के घाट उतार दिया। इस तरह प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से विश्व के अनेक देश आतंक से प्रभावित हैं। लाइलाज होता हुआ आतंकवाद ऐसे ही प्रचार-प्रसार पाता गया तो कई देशों पर इनका साम्राज्य भी हो सकता है। यदि आतंकी गुटों ने परमाणु केंद्रों पर कब्जा कर लिया तो बंदर के हाथ में गई तलवार सर्व विनाश का कारण बन सकती है। समय रहते राष्ट्रों ने एकजुट हेाकर आतंक के विरुद्ध इच्छाशक्ति नहीं दिखाई तो आतंकवाद अपना प्रभुत्व बढ़ाता जाएगा। उसके बाद चेतना आई तो बहुत देर हो गई होगी। आज स्वयं की बनाई गई कुल्हाड़ी अपने ही पैरों पर गिरती हुई दिखाई दे रही है।


18. युवाओं में बढ़ती नशाखोरी-समस्या और समाधान


मनुष्य द्वारा मादक द्रव्यों का सेवन करना कोई नयी बात नहीं है। उसकी यह प्रवृत्ति हजारों वर्ष पुरानी है। इसका प्रमाण यह है कि प्राचीन भारतीय ग्रंथों में ‘सोम’ और ‘सुरा’ का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि हर्ष, उल्लास एवं विशेष अवसरों पर इसका प्रयोग किया जाता था। वेद-पुराण भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि इसका प्रयोग समय-समय पर लोगों द्वारा किया जाता था जो उल्लासवर्धन करने के साथ-साथ झगड़े का भी कारण बन जाता था। आज युवा वर्ग भी इसके सेवन से स्वयं को नहीं बचा पाया है।


मानव ने ज्यों-ज्यों सभ्यता की ओर कदम बढ़ाए वह नित नयी खोजें करता गया । इनमें विज्ञान का विशेष योगदान था। उसके आविष्कारों ने जहाँ मनुष्य को अनेक उपयोगी वस्तुओं से अवगत कराया, वहीं कुछ हानिप्रद वस्तुओं की खोज भी उससे जाने-अनजाने में हो गई। उसने धीरे-धीरे इनका प्रयोग करना सीख लिया। शुरू में ऐसी वस्तुओं का प्रयोग दर्द निवारण में, उल्लास वृद्ध तथा विशेष अवसरों पर ही किया जाता था, पर आज आम आदमी भी इसका सेवन करने लगा है। युवा वर्ग इसके सेवन को अपनी शान में वृद्ध समझते हैं। नशीली वस्तुएँ मीठे जहर के समान होती हैं, जो व्यक्ति को धीरे-धीरे मौत के द्वार की ओर ले जाती हैं। इनका दुष्प्रभाव थोड़े समय के बाद दिखने लगता है पर तब तक उस दिशा में बढ़े कदमों को वापस खींच पाना अत्यंत कठिन हो जाता है।


आज युवावर्ग चोरी-छिपे, पार्टियों में या मित्रों के साथ मादक द्रव्य का सेवन करने लगा है और धीरे-धीरे उसकी गिरफ्त में आने लगा है। भारत जैसे विकासशील देश में यह समस्या एकदम नयी नहीं है, पर पिछले एक-दो दशकों में यह समस्या अत्यंत तेजी से बढ़ी है। कुछ समय पूर्व तक जिन मादक द्रव्यों का सेवन कुछ ही लोग करते थे तथा अधिकांश लोग उससे दूर रहते थे, उन्हीं मादक पदार्थों का सेवन युवा और यहाँ तक कि स्कूल जाने वाले कुछ विद्यार्थी भी करने लगे हैं। जो युवा इसका सेवन लंबे समय से कर रहे हैं वे इसके बिना नहीं रह पाते हैं। ऐसे पदार्थों का सेवन करना उनकी आदत बन चुकी है।


पाश्चात्य संस्कृति अपनाते-अपनाते भारतीय युवक तेजी से इन्हें भी अपनाते जा रहे हैं। दुख की बात है कि अब तो युवतियाँ भी इसके चपेट में आने लगी हैं। इसका असर महानगरी युवाओं पर अधिक हो रहा है। पहले यह आदत संपन्न वर्ग तक ही सीमित होती थी पर आज यह हर वर्ग में फैल रही है। ग्रामीण-शहरी, अमीर-गरीब, शिक्षित-अशिक्षित, युवक-युवतियाँ तथा बेरोजगार वर्ग के व्यक्ति इसके सेवन के आदी हो रहे हैं पर युवा वर्ग इनका अधिक शिकार हो रहा है। आज मादक द्रव्यों को ‘ड्रग्स’ नाम से जाना जाता है। इसकी परिधि में मादक द्रव्य और दवाइयाँ दोनों ही आ जाती हैं। पहले तो इनका प्रयोग सुंघने, खाने या पीने के माध्यम से किया जाता था पर आज इसे इन माध्यमों के अलावा इंजेक्शन के माध्यम से भी लिया जाता है। ये पदार्थ मनुष्य की जैविक क्रिया-प्रणाली को प्रभावित करते हैं। दुर्भाग्य से युवा वर्ग इन सभी का प्रयोग करने लगा है। w मादक द्रव्यों को मुख्यता दो वर्गों में बाँटा जा सकता है


कम हानि वाले मादक द्रव्य

अधिक हानिकर मादक द्रव्य

सामान्य या कम हानिकर मादक द्रव्यों में मुख्य रूप से निकोटीन और कैफीन को लिया जा सकता है। ‘निकोटीन’ तंबाकू में पाया जाता है, जिसे तंबाकू, पान मसाले, गुटखा और सिगरेट के माध्यम से सेवन किया जाता है। इनका असर धीरे-धीरे स्वास्थ्य पर पड़ता है। अत: इनका प्रयोग अधिक तथा दीर्घकाल तक करने से होता है। इसके अलावा कुछ मादक द्रव्य पोस्ते के पौधे से भी तैयार किए जाते हैं, जिनमें अफीम, मॉरफीन, हेरोइन, स्मैक आदि हैं। इनका प्रयोग लोग नींद लाने, दर्द भगाने, सुखानुभूति के लिए करते हैं। इनके धीरे-धीरे प्रयोग से कुछ दिन में ही युवावर्ग इसका आदी हो जाता है। इनमें हेरोइन सबसे खतरनाक पदार्थ है जिसके सेवन से व्यक्ति स्वयं को सुखद स्थिति में महसूस करता है, किंतु इसका असर खत्म होने पर वह अजीब-सी बेचैनी और पीड़ा की अनुभूति करता है।


वह बार-बार इसका सेवन करना चाहता है। दूसरे वर्ग में शराब और एल्कोहल जैसे मादक द्रव्यों को रखा जा सकता है, जिनके सेवन से अधिक हानि होने की संभावना रहती है। शराब पीने वाले व्यक्ति की दिनचर्या ही इसी पर आधारित होकर रह जाती है। एक बात तो यह तय है कि मादक द्रव्य या ड्रग्स जो भी हैं उनका दीर्घकालीन प्रयोग गंभीर समस्या एवं मौत का कारण बन सकता है। इतना होने पर भी इनका सेवन करने वालों की कमी नहीं है, उल्टे इनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है। इनके व्यसनी लोगों की चाल, बात करने का ढंग, उनकी जीवन-शैली आदि देखकर इन्हें आसानी से पहचाना जा सकता है। युवावर्ग को यह जान लेना चाहिए कि शौक और मौज के लिए अपनाए गए इन मादक द्रव्यों के लगातार लेने की आदत बनने के पहले ही छोड़ देना चाहिए। इसके लिए उन्हें स्वजागरूकता लानी होगी। मादक द्रव्यों का सेवन व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व सभी के लिए हानिप्रद है। अत: इसका त्यागकर इनसे दूर रहने में ही युवावर्ग और सभी की भलाई है।


19. समय का महत्व और उसका सदुपयोग

अथवा

 ‘काल्ह करै सो आज कर, आज करै सो अब’


अनेक विचारकों का विचार है कि जिसने समय की कदर नहीं की, जिसने समय के महत्व को नहीं समझा, सफलता उससे दूर होती गई। शीघ्र और विचार कर कार्य न करने वाले का समय उसके जीवन-रस को ही पी जाता है। इस संदर्भ में महापुरुषों ने यह भी कहा है कि जीवन का क्षण-क्षण मूल्यवान है। जो अवसर को चूक जाते हैं वे आजीवन पछताते रहते हैं, क्योंकि जीवन का जो क्षण व्यतीत हो जाता है उसे करोडों स्वर्ण-मुद्रा से पुन: प्राप्त नहीं किया जा सकता है। समय यदि निरर्थक ही व्यतीत हो गया तो उससे बढ़कर कोई हानि नहीं है। महाभारत में मेधावी अपने पिता जी से कहता है-पिता जी! कल का काम आज और आज का काम अभी क्यों नहीं कर लेते हैं? समय बीत जाने पर पछताने के अतिरिक्त और कुछ शेष नहीं रह जाता है। एक कवि ने भी समय के महत्व को समझते हुए कहा है-


रात बिताई सोइ के, दिवस बितायौ खाय।

हीरा जन्म अमोल है, ऐसोई बीतौ जाय।।


जो व्यक्ति कार्य को ‘कल’ के लिए टाल देते हैं तो कार्य के होने में सदैव संदेह बना रहता है। सफलता भी उन्हें कल के लिए टाल देती है। फिर कभी उचित समय नहीं आता है। कार्य की श्रेष्ठता समय से आँकी जाती है। समय की श्रेष्ठता कार्य से नहीं। कार्य कैसा भी हो उसे शीघ्र निपटा लेने में ही अपनी भलाई है। इसलिए कवि ने कहा है-


काल्ह करै सो आज कर, आज करे सो अब।

पल में परले होएगी, बहुरि करोगे कब।।


महाभारत में प्रसंग आता है कि राजदरबार में आए हुए व्यक्ति को युधिष्ठिर ने कल के लिए आश्वस्त किया तो भीम ने ढोल बजवा कर उनकी इस भूल के प्रति सचेत किया। भीम ने उन्हें संदेश दिया कि भैया ने कल तक के समय को जीत लिया है। युधिष्ठिर सचेत हुए अपनी इस भूल के लिए प्रायश्चित किया। जीवन के एक क्षण का भी महत्व है। आने वाले एक क्षण का भरोसा नहीं किया जा सकता है। जो समय की कद्र करता है, समय उसकी कद्र करता है। अनेक विद्वानों का मत है कि जिस व्यक्ति ने समय का नियोजन करना सीख लिया वह सब कुछ सीख गया। इसलिए समय-नियोजन को सफलता का मूल मंत्र कहा गया है।


आग लगने पर कुआँ खोदना मूर्खता ही है। ऐसे लोगों का विनाश निश्चित है। आचार्य चाणक्य ने इस संदर्भ में कहा है एक भौंरा कमल पुष्प का रसपान करने के लालच में सायं होने पर कमल में ही बंद हो जाता है। भौंरा सोचता है ‘कल फिर सूर्य उगेगा, कमल खिलेगा, मैं स्वच्छद हो जाऊँगा, रातभर रसपान करूंगा, किंतु कमल खिलने से पहले मदमस्त हाथी आता है और कमल नाल सहित उखाड़ अपने मुँह में रख लेता है।’ अत: पल में क्या होने वाला है, कुछ कहा नहीं जा सकता है। पल में ही बड़े-बड़े भवन धराशायी हो गए। पल में ही अप्रत्याशित घटनाएँ घटीं और बड़े-बड़े महापुरुष चले गए। इस तरह समय किसी पर दया नहीं करता है।


समय निरंतर गतिमान है। इसे रोका नहीं जा सकता है। यह किसी को क्षमा नहीं करता है। राजा-रंक, संत-अंसत, गरीब-अमीर आदि सभी समय के गाल में स्मा गए। ऐसे चक्रवर्ती सम्राट जिनका संपूर्ण धरा पर साम्राज्य था। सिकंदर और हिटलर, औरंगजेब और अकबर, लेनिन और बोनापार्ट सभी सम्राटों को समय ने बिना दया के अपने आगोश में समेट लिया। अर्जुन और भीष्म जैसे महायोद्धा, कर्ण और बलि जैसे दानी , हरिश्चंद और युधिष्ठिर जैसे सत्यवादी, दधीचि और राजा शिवि जैसे त्यागी, शुकदेव और अष्टावक्र जैसे आत्मज्ञानी, आदि गुरु शंकर और चाणक्य जैसे आचार्य सब-के-सब समय की चक्की में पीस कर समाप्त हो गए।


काल के भी काल स्वयं सृष्टि नियंता भी समय आने पर चले गए। वे भी इसका उल्लंघन न कर सके। समय किसी के प्रति दया नहीं करता है। इसलिए समय का जितना अधिक सदुपयोग किया जा सकता है, करणीय है; अन्यथा प्रायश्चित ही हाथ लगता है। महापुरुष यही संदेश देते हैं कि जीवन का बीता हुआ प्रत्येक क्षण शमशान की ओर ले जा रहा है। इसे समझाते हुए कवि ने कहा है-


गूँजते थे जिनके डंके से, जमीनों आसमान।चुप पड़े हैं मकबरों में, हू हा कुछ भी नहीं।


समय की गति बड़ी विचित्र होती है। मनुष्य चाहता कुछ और है होता कुछ और है। जिस नक्षत्र में श्रीराम का राजतिलक होना था, उसी नक्षत्र में उन्हें तपस्वी वेश में वन जाना पड़ा। जिस अर्जुन के गांडीव की टंकार से शत्रु थर्रा उठते थे उसी अर्जुन को नपुंसक वेश में राजा विराट के यहाँ रहना पड़ा। जिस दिग्विजयी सम्राट रावण के भय से देवगण भी भयभीत रहते थे, काल भी जिसके वश में था। समय आने पर उसे भी कोई नहीं बचा सका, फिर सामान्य लोगों की क्या सामथ्र्य है जो समय का अतिक्रमण कर सके। इसलिए समय को बलवान कहा गया है। इसी सत्य को समझाते हुए सभी संदेश देते हैं। जब तक मनुष्य के शरीर में ताकत है, धन कमाता है, पत्नी प्रेम करती है, पुत्र आज्ञा का पालन करता है।


हृदय में उत्साह रहता है, वाणी में मिठास होती है, मन में प्रेसन्नता रहती है, घर में संपन्नता रहती है। समय गुजरता है, बुढ़ापा आ जाता है, शक्ति क्षीण हो जाती है, हाथ-पैर काम नहीं करते, लाठी के बिना चला नहीं जाता। अंतत: प्रायश्चित करता है कि जीवन व्यर्थ ही चला गया। अत: कल की प्रतीक्षा किए बिना सत् कार्य को शीघ्र करने में ही भलाई है। अत: समय सतत प्रवाहमान है, जिसे रोका नहीं जा सकता है। मनुष्य-जीवन की सार्थकता समय के सदुपयोग में है। जिस व्यक्ति ने समय का सदुपयोग नहीं किया, समय उसका सब कुछ नष्ट कर देता है। क्षण-क्षण मूल्यवान है। क्षण-क्षण का सदुपयोग करना उचित है। जिन्होंने समय का सदुपयोग किया वे सफलता की सीढ़ी पर चढ़ते गए। इसलिए कबीरदास जी ने कहा-

‘ कालह करे सो आज कर, आज करे सो अब’





20. जानलेवा बीमारी एड्स

अथवा

एड्स-कारण और निवारण


रहमिन बहुभेषज करत, व्याधि न छाँड़त साथ।

खग मृग बसत अरोग वन, हरि अनाथ के नाथ।।


कवि रहीम की ये पक्तियाँ उस समय जितनी प्रासंगिक थी, उतनी या उससे कहीं अधिक आज भी प्रासंगिक हैं। विज्ञान के कारण भले ही नाना प्रकार की चिकित्सा सुविधाएँ बढ़ी हैं पर नयी-नयी बीमारियों के कारण मनुष्य पूरी तरह चिंता मुक्त नहीं हो पाया। कुछ बीमारियाँ थोड़े-से इलाज से ठीक हो जाती हैं तो कुछ थोड़े अधिक इलाज से, परंतु कुछ बीमारियाँ ऐसी हैं जो थोड़ी लापरवाही के कारण जानलेवा साबित हो जाती हैं। ऐसी ही एक बीमारी है-एड्स।


विश्व के अनेक देशों की तरह भारत भी इस बीमारी से अछूता नहीं है। हमारे देश में लाखों लोग एच० आई० वी० के संक्रमण से पीड़ित हैं। दुर्भाग्य से युवा और लड़के भी इससे संक्रमित हो रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में 3 करोड़, 61 लाख वयस्क इससे पीड़ित हैं। वहीं 14 लाख बच्चे भी संक्रमणग्रस्त पाए गए हैं। इसकी बढ़ती गति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1991 में यह संख्या आधी थी। देश के जिन राज्यों में इसके रोगियों की संख्या अधिक है उनमें आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, नागालैंड और मणिपुर प्रमुख हैं। इस रोग के संक्रमण से 75% से अधिक पुरुष हैं जिनमें से 83% को यह यौन कारणों से हुआ है।


अफ्रीका महाद्वीप के दक्षिणी भाग में 38 लाख के करीब लोग इसके शिकार बन गए। वहाँ एच० आई० वी० और एड्स से प्रभावितों की संख्या ढाई करोड़ पार कर चुकी है। सही बात तो यह है कि एड्स ने अपने पैर दुनिया भर में पसार दिया है। किसी देश-विशेष को ही नहीं वरन् विश्व को एकजुट होकर इसके निवारण के लिए कटिबद्ध हो जाना चाहिए। एड्स एक भयंकर एवं लगभग लाइलाज बीमारी है जो एच० आई० वी० नामक वायरस से फैलती है। एड्स (AIDS) का पूरा नाम (Acquired) (एक्वायर्ड), I (Immuno)(इम्यूनो), D (Deficiency)(डिफेसेंसी) और S (Syndrome) (सिंड्रोम) है।


वास्तव में एड्स बहुत-से लक्षणों का समूह है जो शरीर की रोगों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता को कम कर देता है, जिससे संक्रमित व्यक्ति को आसानी से कोई भी बीमारी हो जाती है और रोगी असमय काल-कवलित हो जाता है। एच० आई वी० वायरस जब एक बार किसी व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर जाता है तो इस संक्रमण के लक्षण सात से दस साल तक प्रकट नहीं होते हैं और व्यक्ति स्वयं को भला-चंगा महसूस करता है। उसे स्वयं भी इस संक्रमण का ज्ञान नहीं होता है, किंतु जब संक्रमण अपना असर दिखाता है तो व्यक्ति रोगग्रस्त हो जाता है।


एच० आई० वी० संक्रमित व्यक्ति का इलाज असंभव होता है। उसकी जिंदगी उस नाव के समान हो जाती है जिसका खेवनहार केवल ईश्वर ही होता है। किसी स्वस्थ व्यक्ति को एड्स किन कारणों से हो सकता है, इसकी जानकारी लोगों में विशेषकर युवाओं को जरूर होनी चाहिए। एड्स को यौन रोग की संज्ञा दी गई है, क्योंकि यह रोग एच० आई० वी० संक्रमित व्यक्ति के साथ यौन संबंध स्थापित करने से होता है। यदि महिला एच० आई० बी० संक्रमित है तो संबंध बनाने जाले पुरुष को और यदि पुरुष संक्रमित है तो संबंधित महिला को एड्स होने की संभावना हो जाती है। इसके प्रसार का दूसरा कारण है-दूषित सुइयों कर प्रयोग।


जब कोई डॉक्टर किसी एच० आई० वी० संक्रमित व्यक्ति को सुई लगाता है और उसी सुई का प्रयोग स्वस्थ व्यक्ति के लिए करता है तो यह रोग फैलता है। मादक पदार्थों का सुई द्वारा सेवन करने से भी एड्स फैलने की संभावना बनी रहती है। एड्स फैलने का तीसरा कारण है-संक्रमित रोगी का रक्त स्वस्थ व्यक्ति को चढ़ाना। इसके फैलने का चौथा और अंतिम कारण है-एच० आई वी० संक्रमित माता द्वारा बच्चे को स्तनपान कराना। जिस व्यक्ति को एड्स हो जाता है उसके शरीर के वजन में धीरे-धीरे कमी आने लगती है। उसके बगल, गर्दन और जाँघों की ग्रंथियों में सूजन आ जाती है। बुखार होने के साथ मुँह और जीभ पर सफेद चकत्ते पड़ जाते हैं। ये लक्षण अन्य रोग के भी हो सकते हैं, अत: इसकी पुष्टि करने के लिए एलिसा टेस्ट (Elisa Test) तथा वेस्टर्न ब्लाक (Westem Block) नामक खून की जाँच द्वारा की जाती है।


इन जाँचों द्वारा पुष्टि होने पर ही किसी व्यक्ति को एड्स का रोगी समझना चाहिए। समूचा विश्व 1 दिसंबर को प्रतिवर्ष एड्स दिवस मनाता है। एड्स का अंतर्राष्ट्रीय प्रतीक लाल फीता (रिबन) है जिसे पहनकर लोग इसके विरुद्ध अपनी वचनबद्धता दर्शाते हैं। एड्स दिवस दुनिया के सभी देशों के बीच एकजुट होकर प्रयास करने तथा इसके खिलाफ एकजुटता विकसित करने का संदेश देता है। अब समय आ गया है कि लोगों को एड्स के बारे में भरपूर जानकारी दी जाए। एड्स के विषय में जानकारी ही इसका बचाव है। युवाओं और छात्रों को इसके विषय में अधिकाधिक जानकारी दी जानी चाहिए।


आम लोगों के बीच कुछ भ्रांतियाँ फैली हैं कि यह छुआछूत की बीमारी है, जबकि सच्चाई यह है कि एड्स साधारण संपर्क करने से, हाथ मिलाने, गले लगाने, संक्रमित व्यक्ति के साथ उठने-बैठने से नहीं फैलता है। अत: हमारा कर्तव्य बन जाता है कि संक्रमित व्यक्ति या एड्स रोगी की उपेक्षा न करें तथा उसका साथ देकर उसका मनोबल बढ़ाने का प्रयास करें। आइए, हम सब मिलकर लोगों को जागरूक बनाएँ तथा पूरी जानकारी दें, क्योंकि जानकारी ही इसका बचाव है।


21. वरिष्ठ नागरिकों की समस्याएँ और हमारा कर्तव्य


परिवर्तन प्रकृति का नियम है जो मनुष्य के चाहने या न चाहने पर निर्भर नहीं करता है। वसंत ऋतु में मनोहारी फूलों एवं कोमल पत्तियों से सजे वृक्ष हेमंत ऋतु में ढूँठ बनकर रह जाते हैं। यही हाल मनुष्य का है। अपने धन, रूप, बल आदि पर दर्प करने वाला मनुष्य 60-65 वर्ष की आयु के बाद उस दशा में पहुँच जाता है जहाँ उसे अपनी अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। दुर्भाग्य से कल तक हमें जिन्होंने सहारा दिया, पाल-पोसकर बड़ा किया और किसी योग्य बनाया उन्हीं आदरणीयों, पूजनीयों को अनेक समस्याओं से दो-चार होना पड़ रहा है।


वर्तमान समय में जब संयुक्त परिवार पूर्णतया विघटन की कगार पर है, ऐसे में वरिष्ठ नागरिकों का समूह स्वयं को अकेला महसूस करने लगा है। शहरों में यह समस्या ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक है। ग्रामीण क्षेत्रों की संस्कृति एक-दूसरे के सहयोग की आवश्यकता और पारिवारिक सहनशीलता के कारण आज भी संयुक्त परिवार प्रथा है और वरिष्ठ नागरिक उतने असहाय नहीं हैं। वहाँ उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति परिजन करते हैं। संयुक्त परिवार होने के कारण उनको अकेलेपन की समस्या नहीं सताती है। इसके विपरीत शहरों में वरिष्ठ नागरिकों को अधिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। यहाँ की जीवनशैली, शहर की महँगाई, शहरी चकाचौंध में बढ़ी आवश्यकताएँ पति-पत्नी दोनों को कोल्हू के बैल की तरह काम करने पर विवश कर देती हैं। ऐसे में परिवार के वरिष्ठ नागरिकों को अपने काम खुद करने पड़ते हैं।


परिजनों द्वारा उनकी मदद करना तो दूर उल्टे बच्चों की कुछ जिम्मेदारियाँ उन पर जरूर डाल दी जाती हैं। शहरों में जनसाधारण के छोटे मकान भी समस्या का कारण बनते हैं। मकानों में संयुक्त परिवार का निर्वाह अत्यंत कठिनाई से होता है। ऐसे में वरिष्ठ नागरिक अपने ही परिवार में अलग-थलग होकर रह जाते हैं। पैंसठ साल का हर व्यक्ति वरिष्ठ नागरिक की श्रेणी में आ जाता है। परिजनों द्वारा समय न मिल पाने, उनकी बातें न सुनी जाने के कारण प्राय: इन्हें पाकों में बैठे या सार्वजनिक स्थानों पर अपनी-अपनी कथा-व्यथा सुनते-सुनाते देखा जा सकता है। सेवा-निवृत्ति के बाद इन्हें अपना समय काटना मुश्किल लगने लगता है। ज्यों-ज्यों इनकी आयु बढ़ती है, त्यों-त्यों इनकी शारीरिक तथा अन्य समस्याएँ उभरकर सामने आती हैं।


वरिष्ठ नागरिकों की समस्याओं पर विचार करने से ज्ञात होता है कि इनकी प्रमुख समस्या इनका एकाकीपन है। ये अपने ही परिवार में उपेक्षित और फालतू बनकर रह जाते हैं। इनकी समस्या या इनकी बातों को सुनने का समय इनकी औलाद के पास ही नहीं होती है। वे जिस आदर-सम्मान के हकदार होते हैं उन्हें वह नहीं मिल पाता है। शारीरिक अस्वस्थता वरिष्न नागरिकों की अगली प्रमुख समस्या है। वर्तमान समय का खान-पान इस समस्या को और भी बढ़ावा देता है। अब तो साठ साल तक ही स्वस्थ रहना कठिन होता जा रहा है। इस उम्र में उन्हें नाना प्रकार की बीमारियों का सामना करना पड़ता है। परिवार में अकेले होने के कारण न वे स्वयं अस्पताल जा सकते हैं और आर्थिक रूप से सुदृढ़ न होने के कारण वे अपने महँगे इलाज का खर्च भी वहन नहीं कर सकते हैं।


वरिष्ठ नागरिकों ने परिवार, समाज और राष्ट्र को किसी-न-किसी रूप में कुछ-न-कुछ दिया है। ऐसे में हम सबका यह नैतिक कर्तव्य बनता है कि हम उनकी समस्याओं पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करें तथा उनसे तदानुभूति बनाने का प्रयास करें। समाज के कुछ लोगों को आगे आकर ऐसे सामुदायिक भवन या क्लब की व्यवस्था करनी चाहिए जहाँ उनकी हर आवश्यकता की पूर्ति हो सके। उनके मनोरंजन के भरपूर साधन हों। जिससे उनका एकाकीपन दूर हो तथा वे स्वयं को समाज की मुख्यधारा से कटा हुआ न महसूस करें। इसका एक लाभ यह भी होगा कि युवा पीढ़ी को उनके अनुभवों का लाभ भी मिलेगा। ऐसे लोगों को अपने अनुभव का लाभ बाँटने का अवसर मिलना चाहिए। उन्हें तो बस अवसर का इंतजार होता है। ऐसे लोगों को सप्ताह में एक बार घूमने-फिरने का अवसर मिलना चाहिए। यह उनके शारीरिक स्वास्थ्य और एकाकीपन दूर करने में लाभप्रद होगा।


सरकार ने वरिष्ठ नागरिकों की समस्याओं पर ध्यान दिया है। इसी क्रम में उनके लिए बैकों और डाकखानों की विभिन्न योजनाओं में अधिक ब्याज प्रदान करती है। सरकारी वाहनों में उनके लिए सीटें आरक्षित होती हैं। बस के मासिक पास और रेलवे यात्रा किराए में छूट प्रदान की जाती है। अस्पतालों एवं अन्य स्थानों पर उनके लिए विशेष काउंटर बनाए गए हैं। इसके अलावा वृद्धावस्था पेंशन प्रदान कर आर्थिक मदद प्रदान करने की पहल की है।


वरिष्ठ नागरिको को भी युवा पीढ़ी की कुछ सीमितताओं को सनाझ्ना चाहिए। उन्हें समय न मिल पाने का कारण शहरी जीवन-शैली, बढ़ती महँगाई और कामकाज का बढ़ता बोझ समझकर किसी प्रकार की शिकवा-शिकायत नहीं रखनी चाहिए। उन्हें यथा संभव प्रसन्नचित्त रहना चाहिए। स्वयं को अपनी शारीरिक क्षमता के अनुसार काम में व्यस्त रखना चाहिए। दिन भर ताश खेलने की अपेक्षा छोटे बच्चों को नि:शुल्क पढ़ाने, बागवानी करने या अन्य सामाजिक कार्यों में व्यस्त रखना चाहिए। साथ ही युवा पीढ़ी को भी यह ध्यान रखना चाहिए कि वे हमारे पूज्य और आदरणीय हैं और उनकी सेवा शुश्रुषा करना हमारा नैतिक कर्तव्य है।


22. मन के हारे हार है मन के जीते जीत


मनुष्य की मानसिक प्रेरणा ही मनुष्य के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण मार्ग-दर्शिका होती है। हतप्रभ मनुष्य दुविधा को अपनी सहचारिणी बना लेता है और उसके साथ रहते सर्वथा संपन्न व्यक्ति सदैव हर क्षेत्र में असफल रहता है। मन की प्रेरणा उत्साह से भरपूर है तो सामान्य-से-सामान्य परिस्थितियों में भी आगे जाने के लिए स्वयं ही पथ का निर्माण कर लेता है अथवा कंटकाकीर्ण मार्ग को प्रशस्त करता हुआ निरंतर अग्रसर रहता है। इसके विपरीत निराशा यदि एक बार ही मन में आ जाती है तो बढ़ते हुए कदमों के सामने क्षण-क्षण अवरोध उत्पन्न कराती है। इसलिए विचारकों ने कहा है कि ‘मन के हारे हार है और मन के जीते जीत।’ विद्वानों का विचार है कि जहाँ तक संभव है वहाँ तक विषम परिस्थितियों में भी निराशा को मन में नहीं आने देना चाहिए।


एक बार निराशा ने किसी प्रकार प्रवेश पा लिया तो अपना स्थायी निवास बनाने में भी सफल हो जाती है और कलयुग की तरह अपने कहर बरपाने का निरंतर प्रयास करती है। निराशा मानव जीवन की ऐसी प्रखर शत्रु है जिसकी हर सोच मीठी और आत्मीय जान पड़ती है, किंतु उस मच्छर की तरह कभी नहीं चूकती जो कान के समीप गुनगुनाता है और अवसर मिलते ही डक मारता है। इस निराशा के प्रभाव को जानते हुए ही पांडवों ने शल्य से युद्ध के मैदान में तेजस्वी वीर कर्ण के मन में उसकी विजय के प्रति निराशा का संचार किया और अजेय कर्ण निराशा के प्रभाव में इतना आ गया कि अंतत:, पराजय को प्राप्त हुआ। राम-रावण युद्ध में रावण के दिग्विजयी सेना के मन में एक बार निराशा ने स्थान पा लिया कि जिसके स्पर्श-मात्र से पत्थर भी पानी में तैरने लगते हैं या जब एक वानर संपूर्ण वाटिका उजाड़कर लंका में आग लगा गया तो वानर-सेना से कैसे युद्ध में डट सकेंगे? ऐसी निराशा ने उन्हें पराजय तक पहुँचा दिया।


इसलिए निराशा मानव जीवन के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। सफलताएँ उसी के चरण चूमती हैं जो निरंतर सफलता के प्रति आशाएँ बनाए हुए द्वगुणित उत्साह से कार्य करते हैं। बीच में आए व्यवधान उन्हें हतोत्साहित न कर और प्रेरित करते हैं। योग्य-पुरुष उन व्यवधानों से सीख भी लेते जाते हैं। आचार्य मिश्र जी ने कहा है कि जीवन में ठोकरें मनुष्य को सीख देती हैं। सुयोग्य पुरुष ठोकरें खाकर सँभलते और आगे बढ़ते हैं। जो लोग ठोकर खाकर पुन:-पुन: ठोकर खाते हैं वे मूर्ख कहे जा सकते हैं। महाभारत के पात्र पांडवों ने अपने वनवास से हतोत्साहित न होकर सदुपयोग करते हुए शक्ति संचय करने का काम किया।


उनके जीवन में आए व्यवधानों ने उन्हें इतना मजबूत बना दिया कि वे हर परिस्थिति का सामना करने में सफल हुए और दूसरी ओर सर्वथा संपन्न कौरव पांडवों के संचित शक्ति से दुविधा-ग्रस्त रहे और महायोद्धाओं के साथ होने के बावजूद असफल रहे। एक-एक करके मरते गए। पितामह भीष्म, गुरु द्रोणचार्य, धनुर्धर कर्ण, अतुलनीय वीरवर कृपाचार्य, हाथी-सम बल रखने वाला दुश्शासन सारे-के-सारे वीरगति को प्राप्त हुए, किंतु सभी मिलकर पांडवों में से एक को भी न मार सके। इसका एकमात्र कारण था कि पांडवों में उत्साह था, जीत के प्रति उनकी आशा बलवती थी। मन में आशा बलवती हो, विचार उन्नत हों, मन में उत्साह हो तो विपरीत परिस्थितियाँ भी अनुकूल हो जाती हैं।


संकल्प दृढ़ होते जाते हैं। कोई भी उपहास, कोई भी विषम परिस्थितियाँ व्यवधान नहीं बन पाती है। मनुष्य के चट्टान से भी मजबूत संकल्पों को देखकर सहायक बन जाती हैं। शिकागों में हुए धर्म सम्मेलन में पहुँचे स्वामी विवेकानंद को किसी प्रकार सहयोग नहीं था। शिकागो तक जाने के लिए धन का अभाव, अकेला मस्त योगी, धर्म सम्मेलन में प्रवेश पाने की न कोई पूर्व व्यवस्था, न कोई साथी, साथी था तो अपना आत्म-विश्वास, मजबूत संकल्प। वह योगी शिकागो पहुँचा, धर्म-सम्मेलन में पहुँचा सम्माननीय लोगों के मध्य मंच पर आसीन हुआ। इतना ही नहीं उस मंच से भारतीय-संस्कृति का जो शंखनाद किया, जो ललकार की- वह सभी से टकराती हुई, गूँजती हुई संपूर्ण विश्व में सुनाई दी। इसके पीछे उनका आत्म-विश्वास, दृढ़-संकल्प, बलवती आशा ही तो थी।


अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन को कौन नहीं जानता। लोग उसके इरादों की खिल्ली उड़ाते रहे, उपहास करते रहे। प्रत्येक उपहास उसके इरादों को मजबूत करते रहे। वही उपहास करने वाले लोग, जंगल में घूमने वाले, लकड़ी काटने वाले लिंकन के निर्देशों पर कार्य करने के लिए विवश हुए। सिद्ध है जहाँ निराशाएँ मनुष्य को सफलताओं से दूर ले जाती हैं वहीं बलवती आशाएँ उसे सफलता के समीप ले जाकर खड़ी कर देती हैं और अंतत: सफलताएँ चरण चूमती हुई अपना सौभाग्य समझती हैं। लक्ष्मी उसका आदर करती है, लोग अपेक्षा किए बिना सहायक होते हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, युद्ध के मैदान में वही लोग विजयी होते हैं जो अपनी जीत के प्रति आशान्वित होते हैं। मनुष्य की हार वहीं हो जाती है, जहाँ उसके मन में निराशा प्रवेश पा लेती है। दुविधा पैरों को लड़खड़ा देती है। अत: सत्य ही कहा है-


‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत’


23. दहेज-प्रथा-एक सामाजिक कलंक


यद्यपि दहेज-प्रथा कभी सात्विक प्रथा थी, जिसे सुख-समृद्ध के लिए शुभ शकुन के रूप में माना जाता था, किंतु समय-अंतराल में ऐसा परिवर्तन हुआ कि सात्विक परंपरा अपशकुन और अभिशाप बन गई। दहेज के नाम पर विज्ञजनों के यहाँ स्त्रियों के साथ ऐसी-ऐसी अप्रत्याशित घटनाएँ हुई कि मानवता के नाम पर सन्नाटा छा गया। संपूर्ण मानव-समाज कलकित हो गया, परिणामस्वरूप नारी समाज में जागरूकता आई और नारियाँ दूसरे पथ पर चल पड़ीं। नारी के द्वारा दूसरे रास्ते को अपनाने पर विज्ञजनों को अपनी नाक कटती हुई दिखाई देने लगी और दिखावे में दहेज-प्रथा के विरोध में उनके द्वारा अविश्वसनीय बातें कही जाने लगीं। इन घटनाओं ने समाचार-पत्रों और दूरदर्शन के माध्यम से नारी-जाति को सतर्क कर दिया।


जैसे-जैसे दहेज का प्रचलन बढ़ता गया वैसे-वैसे मनुष्य पशुता की ओर बढ़ता गया। अपने उन्नत स्तर की पहचान दहेज से जोड़ने लगा। मनुष्य की बढ़ती महत्त्वाकांक्षा के अनुकूल लड़की की ओर से दहेज न मिलने पर अपनी साख को निम्न समझने लगा। लोगों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी पड़ा। चल पड़ा कुत्सित रास्ते पर। संबंधों को घिनौना रूप देने लगा और वधू पर कहर बरपाने लगा। स्थिति यहाँ तक पहुँचने लगी वधुएँ आग की लपटों से झुलसने लगीं, सिसकने लगीं या आग के हवाले होने लगीं।


मनुष्यों की बढ़ती ही महत्वाकाक्षाएँ अपमान के स्तर तक जा पहुँचीं। बढ़ती हुई घटनाओं को देखकर कानून बने, लोग सलाखों के भीतर जाने लगे। फिर आगे चलकर सामान्य-सी घटनाओं को दहेज का रूप देकर कानून का दुरुपयोग होने लगा और परिवार छिन्न-भिन्न होने लगे। स्थान-स्थान पर स्लोगन लिखे-पढ़े गए-‘लड़की सृष्टि की जननी है’ या ‘भ्रूण-हत्या अपराध है’, ‘भ्रूण-हत्या पाप है”। ऐसे स्लोगन लिखने का कारण आनुपातिक दृष्टि से घटती हुई लड़कियों की संख्या है।


सामान्य स्तर के लोगों में दहेज-प्रथा के चलन के कारण लड़की के जन्म को अभिशाप समझा जाने लगा और विज्ञान की देन अल्ट्रासाउंड का सहयोग लेकर गर्भ में ही लिंग-परीक्षण कराकर भ्रूण-हत्याओं का दौर चल पड़ा-दहेज के नाम पर मनुष्यों में धन संचय की ऐसी प्रवृत्ति बढ़ी कि पदासीन मनुष्य भ्रष्टाचार में लिप्त हो गया और सारे भ्रष्टाचार के पीछे लोग कहने लगे कि परिवार में कन्या है, दहेज के लिए धन संचय करना पड़ता है। इस तरह मनुष्यों में यह प्रवृत्ति भी बढ़ी कि बेटी के विवाह में दहेज दिया है तो बेटे के विवाह में दहेज लूगा। ऐसी परिस्थिति में संबंधियों के बीच विवाद हुए। बिना-वधू के बरातें लौटीं, छीछालेदर हुई। चर्चाएँ हुई। सारा सामाजिक स्तर धराशायी हुआ। लड़की वाले अपमान का घूंट पीकर गए और जो अपमान के घूंट को न पी सके उन्होंने ताल ठोंकी या आत्महत्याएँ कीं।


अपराध बढ़े और सारे दोष घूम-फिर कर कन्या को दिए जाने लगे। इस तरह स्नेह के प्रति ग्रहण लगता गया। 镜, यद्यपि प्रत्येक परिवार की इच्छा रहती है कि मेरी बेटी का संबंध सर्वथा संपन्न परिवार में हो। इसके लिए परिवारों में दहेज के नाम पर माँग बढ़ी। लोग अपनी काली कमाई को दहेज के नाम पर खर्च करने लगे और देखा-देखी सामान्य परिवार भी कर्ज लेकर अपने स्तर को बनाए रखने में जुटने लगे और दहेज प्रथा का मुँह सुरसा की तरह बढ़ता गया। दहेज-धन से परिवारों का स्तर आँका जाने लगा। लड़की की योग्यता, उसका सौंदर्य, उसका आचरण दहेज की प्रथा में अदृश्य हो गया। लड़कों की । कीमतें लगने लगीं। दहेज प्राप्त लोगों के लिए यह कुप्रथा चाँदी या सोने का सिक्का बन गई। ऐसे ही लोग बढ़-चढ़कर बोलने लगे।


ऐसे लोगों ने कुप्रथा को महिमा-मंडित कर दिया। वर-वधू को अहम् ने एक-दूसरे को कचोटा, स्नेह के संबंधों में ग्रंथियों ने स्थान लिए, अंतत: संबंध बिखर कर रह गए। इस तरह दहेज-प्रथा आज के समय में सर्वथा निंदनीय है। 

दहेज-प्रथा को देखते हुए ऐसा लगता है कि मनुष्य के परंपरागत गौरव का इतिहास दहेज से जुड़ा है। ऐसे लोग समाज में प्रभावशाली हैं। उनके रहते दहेज-प्रथा को समाप्त करना सामान्य कार्य नहीं है, किंतु असंभव भी नहीं है। यह कार्य चुनौतियों से भरा अवश्य है। सत्कार्य के लिए संघर्ष भी करना पड़े तो करणीय है। ऐसी भावना लेकर नवयुवक समाज में चेतना लाएँ। विज्ञ जन केवल प्रवचन न कर युवकों को सहयोग दें, उचित मार्गदर्शक करें, उत्साह बनाएँ रखें। दहेज-प्रथा के लालची लोगों का पूर्णत: बहिष्क करें तो शीघ्र इस कलकित प्रथा का अंत हो जाएगा। केवल कानून बनाने से काम नहीं चल सकता।


काले धन वाले कोई-न-कोई प्रविधि निकाल लेते हैं और कानून से बचे रहना उनके लिए सामान्य कार्य है। यद्यपि इस ओर लोग संस्थाएँ बनाकर सामूहिक विवाह कराकर प्रयास तो कर रहे हैं, परंतु यह प्रयास अपर्याप्त है। जन-क्रांति के रूप में अंत संभव है। दहेज-कुप्रथा से घटती घटनाएँ सभ्य-समाज को कलकित करती हैं। यदि इस कुप्रथा पर शीघ्र विचार न हुआ तो सभ्य-समाज कहा जाने वाला मनुष्य-समाज सिर धुनते रह जाएगा। आज लड़के-लड़कियाँ उस रास्ते पर चल पड़े हैं कि दहेज लेना और देना तो दूर शर्मिदा होकर घर में आँसू बहाकर बैठ जाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रह जाता है। पाश्चात्य-सभ्यता के अनुकरण का बहाना लेकर परस्पर संबंधों की ओर नवयुवक चल पड़े हैं। देर होने पर कितने दुष्परिणाम हो सकते हैं, उसका सहज अनुमान लगाना भी संभव नहीं है।


24. आज की भारतीय नारी


स्त्री और पुरुष जीवन रूपी गाड़ी के दो पहिए माने जाते हैं। किसी एक पहिए का असंतुलन गाड़ी के कुशल परिचालन में बाधक बनता है। इस संतुलन को बनाए रखने के दोनों में सहयोग और सामंजस्य आवश्यक है जिससे पारिवारिक और सामाजिक प्रगाढ़ता आती है। इसके बाद भी भारतीय समाज सदा से ही पुरुष प्रधान रहा है। समाज में पुरुषों की स्थिति उच्च तथा महिलाओं की स्थिति निम्न रही है। ऐसा माना जाता है कि सभ्यता के आरंभ में स्त्रियों को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया था। वे पुरुषों के साथ हर काम में बढ़-चढ़कर भाग लेती थीं। समय के साथ धीरे-धीरे पुरुष और महिलाओं के कार्यों का बँटवारा होता गया। पुरुषों ने जहाँ घर से बाहर के कामों को सँभाला वहीं महिलाओं ने घरेलू कार्यों को।


बच्चों का पालन, पुरुषों की सेवा जैसे कार्य उनके हिस्से में आ गए। इससे उनका स्थान हीन नहीं माना गया। परिवार में उनकी स्थिति सम्मानजनक थी। वैदिक काल में नारी का स्थान अत्यंत ऊँचा था। कहा जाता था- यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:’। अर्थात् जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं। तब महिलाएँ वेद मंत्रों की रचना करती और धर्माचार्यों के साथ शास्त्रार्थ में भाग लेती थीं। धीरे-धीरे समय बदला और नारी का स्थान घर की चारदीवारी में सिमट कर रह गया। उसे भोग्या मान लिया गया। मध्यकाल तक उसकी स्थिति में और गिरावट आ गयी थी। उसे ताड़ना का अधिकारी मान लिया गया। यह विडंबना ही थी कि कहा गया-


‘ढोल, गँवार, शूद्र पशु नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी।।’


इतना ही नहीं उसके अधिकारों को छीन लिया गया। बच्चे पैदा करना, पालना-पोसना, पर्दे में रहना, पति सेवा करना, घर के सदस्यों के लिए भोजन बनाना और पति की इच्छानुसार वासना-पूर्ति करना ही उसका काम रह गया। उसे शिक्षा से भी वंचित रखा गया, इससे उसका मानसिक विकास अवरुद्ध हो गया। जो स्त्री कदम-कदम पर पुरुषों की सहायिका होती थी और हर महत्वपूर्ण निर्णय में उसकी भागीदारी आवश्यक समझी जाती थी, उसी को दासी जैसा समझा जाने लगा। मुगलकाल में स्त्रियों की स्थिति बद से बदतर हुई जो अंग्रेजी शासन काल में भी वैसी ही बनी रही। नारी की दशा सुधारने का बीड़ा राजाराम मोहन राय जैसे समाज सुधारकों ने उठाया। सती-प्रथा को बंद कराया गया और स्त्रियों के लिए शिक्षा के द्वार खोले गए।


देश को आजादी मिलने के बाद नारी स्थिति में बहुत बदलाव आया। उसे समानता का अधिकार दिया गया। उसकी शिक्षा की बेहतर व्यवस्था की गई। संसद, विधानसभा और अन्य महत्वपूर्ण स्थानों पर उसके लिए सीटें आरक्षित की गई। इससे सामाजिक व्यवस्था में उसका स्थान उच्चतर होता गया और उसका सामाजिक योगदान बढ़ने लगा। आज की नारी घर की चारदीवारी तक सीमित नहीं रही। वह पुरुषों की भाँति अनेक प्रकार के शिक्षण और प्रशिक्षण प्राप्त कर अपने पैरों पर खड़ी हो रही है। उसने स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, विभिन्न कार्यालयों के अलावा प्रशासनिक पदों पर अपने कार्यों 

से अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। आज आप किसी भी क्षेत्र में दृष्टि डालें, नारी को कार्यरत पाएँगे।


पहले जिन क्षेत्रों में केवल पुरुषों का वर्चस्व रहता था, अब नारियों को काम करते हुए देखा जा सकता है। अनेक पदों पर उन्होंने बेहतर काम करके दिखाया है। इसका एक लाभ यह भी है कि अपने पैरों पर खड़ी होने से उसमें आत्मनिर्भरता, स्वावलंबन और आत्म-विश्वास में जबरदस्त वृद्ध हुई है। वह अपनी समस्याओं से अब खुद निपटने में सक्षम हो चुकी है। कुछ पदों पर तो महिलाएँ इतनी कुशलता से काम करती हैं कि वे पद उन्हीं के होकर रह गए हैं। वर्तमान भारतीय नारी के आत्म-विश्वास, स्वावलंबन स्वंतत्रता में हुई वृद्ध कर एक दुष्प्रभाव भी दिखने लगा है। वह स्वच्छद हो गई है जिससे उसका दिग्भ्रमित होना स्वाभाविक है।


वह अधिकाधिक सुख-सुविधाओं में जीना चाहती है। उसने आधुनिकता के नाम अंग-प्रदर्शन की प्रवृत्ति को अपनाया है। उसके व्यवहार में प्रदर्शन का भाव अधिक रहने लगा है। उसके भीतर के नारी के गुण समाप्त होते जा रहे हैं। उनकी जगह रुखापन, बनावटीपन, ईष्र्या जैसे अमानवीय गुण भरते जा रहे हैं। विवाह जैसी महत्वपूर्ण सामाजिक रिश्ते एवं मान्यताएँ उसे बेमानी-सी लगने लगी हैं। भारत जैसे विकसित देश में पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं को भी काम करना आवश्यक होता जा रहा है। आज उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाएँ कार्यालयों में कार्य करती हैं, किंतु कम पढ़ी-लिखी और अनपढ़ महिलाएँ छोटे-मोटे काम करती हैं।


शहर की बढ़ती महँगाई, उन्नत जीवन स्तर जीने तथा बच्चों के उन्नत भविष्य की चिंता आदि के कारण काम करना उनकी विवशता है। घर आकर भी उन्हें अपने लिए निर्धारित काम करने पड़ते हैं। इस प्रकार उन्हें दोहरी भूमिका निभानी पड़ती है। इस प्रकार से स्त्री घर और बाहर की दोहरी चक्की में पिसती है। उसकी जिदगी एक मशीन की भाँति बन गई है। अंत में हम कह सकते हैं कि नारी शिक्षित और स्वावलंबी जरूर हुई है पर उसे आज भी शारीरिक, मानसिक शोषण का सामना करना पड़ता है, परंतु इसमें उसका दोष नहीं, बल्कि सारा दोष पुरुष प्रधान समाज के पुरुषों का है। हमें अपने संस्कारों और विचारों में बदलाव लाना होगा ताकि नारी की सच्ची स्वंतत्रता मिल सके।


25. विज्ञान-अभिशाप या वरदान


विज्ञान की चमक और उसके बढ़ते हुए प्रभाव से भौतिक वस्तुओं के प्रति मनुष्य का आकर्षण बढ़ रहा है, साथ ही उसकी भावना में भी परिवर्तन हो रहा है। प्राचीन परंपराओं को छोड़कर नवीनता को अपनाने का आकर्षण बढ़ रहा है। नए जीवन-दर्शन का विकास हो रहा है। नयी धारणाओं, मान्यताओं का जन्म हो रहा है। इस तरह विज्ञान की चमक से मनुष्य इतना चौंधिया गया है कि नए-नए सौख्य के साधन ढूँढ़ता जा रहा है, किंतु सुख-सुविधाओं के बीच रहते हुए वह बेचैन हो उठा है। इसके विपरीत रचनात्मक संवृद्ध में ऐसी संहारक शक्तियों को इकट्ठा कर रहा है कि उसके प्रयोग से विज्ञान के ही द्वारा सुख के सभी साधन मटियामेट होकर स्वयं भी नष्ट हो सकते हैं। इस प्रकार विज्ञान की सर्जनात्मक शक्ति मनुष्य की समझदारी से मानवता में सुख की सिहरन भर सकती है तो ध्वंसात्मक प्रवृत्ति मटियामेट कर सकती है। इसे हम वरदान समझे या अभिशाप, समझ नहीं पाते हैं।


विज्ञान की प्रगति मनुष्य का सुख और सौंदर्य से अभिनंदन करती है तो दूसरी ओर विध्वंसकारी तत्वों का निर्माण कर विनाश की स्थिति को स्पष्ट करती है। विज्ञान के प्रभाव के कारण मानव-जीवन का भविष्य जितना उज्ज्वल है उतना ही चुनौतियों से भरा हुआ है। एक ओर आदमी तारागणों को छूने के लिए बेचैन है ‘हम रोज नए युग में प्रवेश करने की तैयारी कर रहे हैं’ नयी दुनिया में प्रवेश कर नए युग का निर्माण कर रहे हैं तो दूसरी ओर नए-नए अन्वेषणों से दुनिया के विनाश का साजो-समान एकत्र कर रहे हैं।


वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण सौ वर्ष पहले की दुनिया से आज की दुनिया सभी प्रकार से दूसरे रूप में हमारे सामने है। इसी तरह सौ वर्ष बाद विश्व की क्या रूपरेखा होगी, उसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि मनुष्य का जीवन चुनौती पूर्ण है। इस तरह मनुष्य की सुख-समृद्ध का कारण विज्ञान वरदान के रूप में है तो तुरंत विनाश की स्मृति अभिशाप ही है ऐसा कहने में कोई संकोच भी नहीं है। विज्ञान के आविष्कारों से, विज्ञान की प्रगति से जहाँ संसार का हित होता है, वहीं उसका विनाश भी हो सकता है। कुछ तो नाश को ही उत्कर्ष का कारण मानते हैं।


अणु बम के विस्फोट से जापान घुटने के बल गिर पड़ा था। वही कालांतर में महाशक्ति के रूप में उदित हुआ। विज्ञान का आविष्कार परमाणु शक्ति का प्रयोग विनाश में ही होता है ऐसा सोचना गलत ही है। परमाणु शक्ति का प्रयोग रचनात्मक कार्यों में भी सफलतापूर्वक किया जा सकता है। विशाल पर्वतों को तोड़कर उसके बीच से रास्ता बनाना इसके लिए साधारण कार्य है। रचनात्मक कार्यों में तीव्रता लाने का श्रेय विज्ञान के दूसरे रूप को ही जाता है। आज विज्ञान ने देशों की, नगरों की दूरियाँ कम कर दी हैं। आकाश में तीव्र गति से उड़ते हुए जहाज ही नहीं, अपितु मैट्रो जैसी चमत्कारी सुविधा ने नगरों की दूरी बहुत कम कर दी है। इस प्रकार विज्ञान के दोनों पक्षों को देखते हुए यही कहना उचित है कि प्रकृति के नियमानुसार विज्ञान के प्रगति से हित और विनाश साथ-साथ जुड़े हुए हैं।


मनुष्य की सदैव से ऐसी प्रवृत्ति रही है कि जब कोई पक्ष प्रगतिमान होता है, रचनात्मक होता है तो उसके दूसरे रूप को भी खोजने लगता है। विज्ञान भी अछूता नहीं रहा। जब विज्ञान सुख-साधन इकट्ठे करने लगा तो विनाश की प्रवृत्तिवालों का ध्यान उसके दूसरे पक्ष की ओर गया और वे विनाश का भयावह रूप प्रस्तुत कर दिए। यह मनुष्य की सोच का ही परिणाम रहा कि विज्ञान का भयावह रूप मनुष्यों में भय की सिहरन पैदा करता है। इसके अनेक कारण हो सकते हैं; जैसे-आर्थिक, राजनैतिक असमानताएँ, विद्वेष की स्थितियाँ आदि। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को पद्दलित करने की राह पर चल पड़ता है और विज्ञान के दूसरे पक्ष का सहारा लेने लगता है। इस प्रकार पारस्परिक विद्वेष ने विज्ञान के भयावह रूप को अपना लेने के कारण विज्ञान अभिशाप बनता चला गया।


हिंसा और प्रति हिंसा का क्रम चलता रहा और विज्ञान का अभिशाप रूप अपने पैर पसारता रहा। अब उसका पक्ष इतना प्रबल हो गया कि सभी उसके प्रभाव में आ गए और उसका डर सताने लगा। आज संपूर्ण विश्व आर्थिक, राजनैतिक एवं विचारात्मक संघर्षों से घिरा हुआ है। इन संघर्षों के बीच में कभी चुपके-चुपके कभी शोर मचा कर विज्ञान की उस तकनीक की शरण में राष्ट्र चलते चले जाते हैं जो घातक होती है। इस विचार से विज्ञान अभिशप्त हो गया है। निष्कर्ष में यही कहा जा सकता है कि विज्ञान तो मनुष्य के प्रयोग की तकनीक है। विज्ञान को अभिशाप न कहकर मनुष्य की सोच अभिशाप है। विज्ञान ने अपने उपयोग के अनुसार रचनात्मक और विनाशत्मक दोनों रूप प्रस्तुत किए हैं।


मनुष्य अपने सुख के लिए रचनात्मक विज्ञान का सदुपयोग करता है, तब वह वरदान रूप होती है। जब मनुष्य दूसरों के सुख से आहत होता है और उसके अंदर दूसरों के सुख-चैन को छीनने की पैशाचिक प्रवृत्ति जोर मारने लगती है तब वह विज्ञान का दुरुपयोग करने लगता है। ऐसी स्थिति में विज्ञान अभिशाप बन जाता है। अत: विज्ञान को वरदान या अभिशाप कहना मनुष्य की सोच का परिणाम है। विज्ञान के भयावह स्वरूप को देखकर दुनिया पारस्परिक तनाव, मतभेदों के रूप में जी रही है। दुनिया का काम तो यथावत् चल रहा है किंतु भयमुक्त नहीं है।


26. स्वतंत्रता के बाद का भारत


संसार के देशों में अपना विशिष्ट स्थान रखने वाले भारत को समय के अनेक थपेड़ों को सहना पड़ा है। इन थपेड़ों से देश । प्रभावित हुआ है। इसी क्रम में देश को गुलामी का जोरदार थपेड़ा सहना पड़ा है। यह कभी मुसलमानों के आक्रमण रूप में आया, कभी मुगल आक्रमण रूप में तो कभी अंग्रेजी शासन की दासता के रूप में। दासता के इस काल में देश की उन्नति की बात करना भी बेमानी होगा, उल्टे इस समय देश पतन और अवनति के गर्त में जरूर गिरा। सन् 1947 में देश को जब अंग्रेजी दासता से मुक्ति मिली तब यहाँ के लोगों ने आजादी की हवा में साँस ली और उन्नति की ओर कदम बढ़ाए।


स्वतंत्र होने के बाद ही भारतीयों को अपनी उपलब्धियों की ओर देखने का अवसर मिला। उपलब्धियों ने भारतीयों को गर्वानुभूति कराई। इससे भारतीयों को प्रगति की दिशा में कदम बढ़ाने का उत्साह प्राप्त हुआ। उन्होंने शिक्षा, उद्योग, हरित क्रांति, सैनिक शक्ति, संचार आदि को उन्नत बनाने की योजनाएँ बनाना शुरू कर दिया। उन्नति की ओर बढ़ते कदम आज उस मुकाम तक आ पहुँचे जहाँ से प्राचीन या स्वतंत्रता के पूर्व के भारत को पहचानना कठिन हो गया है।


स्वतंत्रता के बाद के भारत की उपलब्धियाँ इस प्रकार हैंखादय निर्भरता- स्वतंत्रता के पूर्व और उसके बाद के कुछ वर्षों तक भारत खाद्यान्नों का आयात किया करता था। इसके लिए उसे अन्य राष्ट्रों की कृपा पर निर्भर रहना पड़ता था। इस समस्या को समाप्त करने के उपाय सोचे गए। इसका परिणम था-हरित क्रांति। डॉ० स्वामीनाथन और अन्य भारतीयों ने गेहूँ, चावल, मक्का, तिलहन आदि की उन्नतशील प्रजातियों की खोज की। उन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों में अच्छी उपज देने लायक बनाया। सरकार ने खाद, सिंचाई के साधन, उन्नत कृषि औजारों के प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए किसानों को अनुदान दिया। इसका परिणाम सामने था। धीरे-धीरे भारत में खाद्यान्नों की कमी समाप्त हुई। लगातार बढ़ती जनसंख्या के बाद भी भारत आज खाद्यान्न निर्यात करने की स्थिति में पहुँच चुका है।


भारतीय रेलवे-यद्यपि भारत में रेल प्रणाली की शुरुआत अंग्रेजों ने मुंबई और थाणे के बीच रेल चलाकर कर दी थी, परंतु भारत जैसे देश में यह तो दाल में नमक के बराबर भी नहीं था। अभी बहुत कुछ करना था। स्वतंत्रता के बाद भारत में नयी पटरियाँ बिछाई गई। प्रतिवर्ष नयी-नयी रेलगाड़ियाँ चलाई गई जो प्रतिदिन लाखों लोगों को अपनी मंजिल तक पहुँचाती हैं। अब तो दुर्गम स्थानों और पहाड़ी भागों में भी पटरियाँ बिछाई जा चुकी हैं। कई मार्गों पर पहाड़ काटकर सुरंगें बनाई गई और रेल परिचालन किया गया।


आज स्थिति यह है कि भारतीय रेलवे की एक लाख किमी० से अधिक लंबी पटरियों पर 7000 से अधिक स्टेशन हैं। इन स्टेशनों से चलने वाली रेलें प्रतिदिन दस लाख से अधिक यात्रियों को उनकी मंजिल तक पहुँचाती हैं। आज सबसे लंबी रेल सुरंग, सर्वाधिक ऊँचाई पर बना स्टेशन, विश्व की दूसरी सबसे बड़ी रेल व्यवस्था इसकी उन्नति की कहानी का स्वयं बखान करते हैं। फिल्मोदयोग-भारतीय फिल्म उद्योग ने स्वतंत्रता के बाद लगातार उन्नति की है। विज्ञान की नित नयी खोजों के कारण फिल्मों की गुणवत्ता में सुधार आया है।


भारतीय सिनेमा अर्थात् बॉलीवुड में बनी फिल्मों की लोकप्रियता देश की सीमा पार कर विश्व के अनेक देशों तक पहुँची है। यहाँ बनी फिल्मों को अन्य देशों में रुचि के साथ देखा जाता है। इनके कर्णप्रिय गीतों पर विदेशी भी थिरकने को मजबूर हो जाते हैं। यहाँ प्रतिवर्ष 300 से अधिक फिल्मों का निर्माण होता है जो राजस्व का सशक्त स्रोत है। फिल्मोद्योग में 20 लाख से भी अधिक लोगों को रोजगार मिला है। भारतीय सिनेमा नित्य-प्रति उन्नति के सोपान पर चढ़ता जा रहा है। हथियार एवं परमाणु संपन्न भारत-कभी हथियारों के लिए दुनिया के अन्य देशों का मुँह देखने वाला भारत आज परमाणु संपन्न राष्ट्र बन चुका है।


स्वतंत्रता के बाद के कुछ वर्षों बाद भारत को कमजोर समझकर चीन और पाकिस्तान ने आक्रमण कर दिया था, जिसका भारत ने मुँह तोड़ जवाब दिया। उसके बाद भारत ने आत्मरक्षा के उद्देश्य से अत्याधुनिक हथियारों का निर्माण किया। श्री ए. पी. जे. अब्दुल कलाम के नेतृत्व ने भारत के परमाणु कार्यक्रम ने उन्नति के शिखर को छुआ। मई 1998 में श्री कलाम की अगुआई में तीन परमाणु परीक्षण किए और दुनिया को यह संदेश दिया कि वे भारत को कमजोर समझकर उस पर आँख उठाने की चेष्टा न करें। भारतीय सेनाएँ-किसी भी देश की गरिमा और स्वतंत्रता बनाए रखने में वहाँ की सेनाओं का महत्वपूर्ण योगदान होता है।


भारतीय सेना के पाँच लाख से अधिक सैनिक सीमाओं तथा देश के अंदर सुरक्षा के लिए कटिबद्ध रहते हैं। भारतीय थल सेना, वायु सेना और जल सेना के जवान अपने उत्तरदायित्वों का भली प्रकार निर्वहन करते हुए दुश्मनों के लिए चुनौती बने हुए हैं। देश की सीमाओं पर लगी सेना घुसपैठियों को देश में आने से रोकती है। वायु सेना के सजग प्रहरी देश की रखवाली करते हुए दुश्मनों को मार गिराते हैं। जल सेना समुद्री सीमा की रखवाली करते हुए दुश्मनों को चेतावनी देती प्रतीत होती हैं। सुदृढ़ अर्थव्यवस्था-स्वतंत्रता के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था में जबरदस्त सुधार हुआ है। देश में प्रति-व्यक्ति के आय में वृद्ध हुई है। कृषि और आधारभूत उद्योगों के कारण विकास दर में वृद्ध हुई है। मेरी कामना है कि हमारा देश भारत उन्नति के नित नए सोपान चढ़ता रहे और विश्व में एक मजबूत राष्ट्र के रूप में गिना जाए।




27. मातृभाषा के प्रति हमारी अभिरुचि


देश का विकास और राष्ट्रीय चरित्र मातृभाषा में सुरक्षित है। इस संबंध में महापुरुषों ने मातृभाषा के महत्त्व को स्वीकार किया है। स्वामी दयानंद, विवेकानंद, तिलक, मालवीय जी ने ही नहीं विदेशी विद्वान मैक्समूलर ने भी हिंदी की तारीफ के पुल बाँधे। जापान, चीन, रूस जैसे प्रगतिमान देशों ने भी अपनी मातृभाषा को महत्व दिया है और निरंतर प्रगतिमान हैं। न जाने क्यों, भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ के निवासियों को अपना कुछ अच्छा नहीं लगता, अपितु उन्हें विदेशी वस्तुएँ अच्छी लगती हैं। उनकी संस्कृति आकर्षित करती है। इतना ही नहीं, विदेशी वस्तुओं को अपनाकर भारतीय गौरवान्वित महसूस करने लगे हैं।


अपनी सहज सरल भाषा के प्रति घटती रुचि उनके इस सोच का ही कारण है। जिस समय देश स्वतंत्र हुआ उस समय लोगों में अपनी मातृभाषा के लिए अच्छी भावना थी इसलिए हिंदी के विकास के लिए राष्ट्रीय-स्तर पर प्रयास किए गए। मातृभाषा के सुधार के लिए नीतियाँ बनाई गई कि शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होगी। ताकि अंग्रेजी ज्ञान के बिना परेशानी नहीं होगी। अहिंदी भाषी प्रदेशों की आशंकाएँ देखते हुए त्रिभाषा पर आधारित राष्ट्रीय नीति बनाई गई।


जिसको समुचित रूप से न अपनाने पर भाषाओं के विकास की बात दुलमुल नीति में छिप गई। इस दुलमुल नीति से अंग्रेजी भाषा के प्रति राज्यों की रुचि बढ़ी। सुविज्ञजनों ने विचार दिए कि प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा में होनी चाहिए और राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के महत्व को बनाए रखने के लिए हिंदी का ज्ञान देना अनिवार्य होना चाहिए। अहिंदी प्रदेशों में अंग्रेजी के स्थान पर हिंदी का अध्ययन होना चाहिए। प्राथमिक विद्यालय के बाद अंग्रेजी भाषा के अध्ययन का प्रावधान हो। इसके प्रयास हुए, किंतु समुचित प्रयास न होने के कारण अंग्रेजी अपना वर्चस्व स्थापित करती गई। सुविज्ञों ने योजनाएँ बनाई थीं उसके प्रति सजगता और ईमानदारी से कार्य किया जाता तो आज हिंदी या अन्य मातृभाषाओं की ऐसी दुर्दशा न होती।


अंग्रेजी का ज्ञान न रखने वाले शिक्षित लोग स्वयं को हेय समझने लगे। लोगों के मन में यह भाव पनपने लगा कि वैश्वीकरण के कारण अंग्रेजी का ज्ञान ही उनकी प्रगति में सहायक हो सकता है। इतना दम-खम अन्य भाषाओं में नहीं है। इसी विचारधारा ने पब्लिक स्कूलों को हवा दी। पब्लिक स्कूलों की संख्या बढ़ी, इतनी बढ़ी कि कई गुनी हो गई। इन स्कूलों में संपन्न परिवारों के बच्चे प्रवेश पाने लगे। इन्हें उच्च-शिक्षा अर्थात् उत्तम शिक्षा का केंद्र मानकर सामान्य जन भी येन-केन प्रकारेण इन्हीं स्कूलों में अपने बच्चे भेजने का प्रयास करने लगे। इस प्रकार पब्लिक स्कूल बढ़ते गए, सरकारें भी अंग्रेजी के वर्चस्व को नकार न सकी। प्रतिवर्ष करोड़पति लोगों की संख्या भी बढ़ी और उन्हें लुभाने के लिए इन स्कूलों ने लुभावने आकर्षण दिखाए।


सरकारी स्कूलों में केवल अति सामान्य परिवार के बच्चे पढ़ने के लिए विवश और तड़प कर रह गए। पब्लिक स्कूलों के प्रति आकर्षण को देख दूर-दराज के क्षेत्रों में पब्लिक स्कूल खुल गए, जिनमें हिंदी भाषा को कोई महत्व नहीं दिया जाता है। इस तरह हिंदी या अन्य मातृभाषाओं की दुर्दशा होती गई। जब उच्च-शिक्षा प्राप्त युवक अपनी डिग्रियों को लेकर नौकरी के लिए कपनियों के द्वार पर दस्तक देता है तो अंग्रेजी के ज्ञान बिना उसके सपने चूर-चूर हो जाते हैं। इस परिस्थिति का लाभ उठाकर चतुर लोगों ने अंग्रेजी सिखाने के लिए संस्थान खोले और अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व से परिचय कराया। इससे अंग्रेजी का प्रचलन बढ़ता गया और अपनी भाषा के प्रति रुचि घटती गई।


हिंदी भाषा के सुधार के स्थान पर अंग्रेजी को सँवारने में युवक लग गए और अंततः हिंदी को हेय समझने लगे। अब आज का छात्र अपनी प्रगति अपना उज्ज्वल भविष्य अंग्रेजी में ही देखता है। वह विचार समाप्त हो गया कि अपनी मातृभाषा के द्वारा बच्चे का विकास संभव है। उसके लिए भले ही रट्टू तोता की तरह अंग्रेजी के वाक्य रटने पड़े। भले ही अपने देश में हम विदेशी कहे जाने लगें। इस तरह हमारी मातृभाषा का पथ हमने स्वयं पथरीला कर लिया। ऐसा करने में सरकारों ने खूब सहयोग दिया, भले ही इसमें उनकी विवशता रही हो।


यद्यपि अंग्रेजी के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता है, तथापि अपनी मातृभाषा की ओर भी ध्यान देना चाहिए, नहीं तो हम अपने ही देश में विदेशी हो जाएँगे। इसका परिणाम सबसे अधिक अपनी संस्कृति पर पड़ेगा और पड़ रहा है। अपनी सनातन संस्कृति का वर्चस्व न रहने पर हम विश्व स्तर पर लताड़े जाएँगे। यही कारण था महात्मा गाँधी जैसे सुविज्ञ मातृभाषा के महत्व को न नकार सके। उनका कहना था कि मातृभाषा को छोड़कर हम दूसरों के पिछलग्गू बन जाएँगे। अब तो बस यही कह सकते हैं कि परमात्मा हमें सद्बुद्धि दे।


28. भारत की विभिन्न ऋतुएँ


दयालु प्रकृति ने हमारे देश भारत को अपने हाथों से अनेक उपहार प्रदान किए हैं। उन्हीं में से एक है-विविध ऋतुओं का उपहार। यहाँ एक ही साल में अनेक ऋतुओं के दर्शन होते हैं जो विविधताओं के देश भारत में एक और कड़ी जोड़ने का काम करते हैं। विश्व का शायद कोई ऐसा देश हो जहाँ की ऋतुओं में इतनी विविधता हो।


भारत में छह ऋतुएँ पाई जाती हैं। ये ऋतुएँ हैं- ग्रीष्म, वर्षा, शरद, शिशिर, हेमंत और वसंत। ये ऋतुएँ बारी-बारी से आती हैं और सौंदर्य बिखेरकर चली जाती हैं। इन ऋतुओं के काल को भारतीय महीनों से यदि जोड़ा जाए तो ग्रीष्म ऋतु बैशाख और जेठ में, वर्षा ऋतु-आषाढ़ और सावन में, शरद ऋतु-भादों और क्वार (अश्विन) में, हेमंत ऋतु-कार्तिक और अगहन में, शिशिर ऋतु-पूस और माघ में तथा वसंत ऋतु-फाल्गुन और चैत के महीने में पड़ती हैं। इनमें से प्रत्येक ऋतु काल दो महीने का होता है।


भारत विश्व के विशाल भू-भाग पर स्थित है। इसकी सीमाओं पर समुद्र पर्वत तथा अन्य देशों का भू-भाग है। उत्तर में स्थित हिमालय की चोटियाँ वर्ष भर बर्फ से ढँकी रहती हैं, इस कारण आसपास के प्रांतों में सर्दियों में भयंकर सर्दी और गर्मियों में गर्मी मड़ती है। पश्चिमी भाग में स्थित राजस्थान वर्षा ऋतु में भी सूखा रहता है तो पूर्वोतर राज्यों में उसी समय अच्छी खासी वर्षा होती है। दक्षिणी और दक्षिणी-पश्चिमी सीमा के समुद्र तटीय स्थानों की जलवायु समशीतोष्ण रहती है, उसी समय उत्तरी राज्य में खूब गर्मी पड़ती है।


देश के किसी भाग की नदियाँ सदानीरा कहलाती हैं तो दूसरे भाग की नदियाँ वर्षा ऋतु के अलावा सद्खी ही रहती हैं। इसी विविधता में ऋतुएँ भी विविधता का एक अध्याय जोड़ जाती हैं। एक ऋतु हमें पसीने से सराबोर करती है तो दूसरी ऋतु गर्मी का ताप हर लेती है और शीतलता की गंगा में नहला जाती है। एक ऋतु हमें दाँत किटकिटाने पर विवश करती है, तो दूसरी ऋतु हर्ष एवं उल्लास से आप्लावित कर जाती है। ऋतुओं का ऐसा सामंजस्य शायद ही किसी देश में हो।


ग्रीष्म ऋतु-ऋतुओं का आनंद उठाने के क्रम में हम सबसे पहले ग्रीष्म ऋतु से मुलाकात करते हैं। यूँ तो एक विशेष प्रकार की भौगोलिक बनावट के कारण भारत एक गर्म देश माना जाता है, किंतु ग्रीष्म ऋतु में गर्मी का प्रभाव देखते ही बनता है। इस समय सूर्य की किरणें आग के बाण चलाती हुई प्रतीत होती हैं। सारा भूमंडल तवे जैसा जलने लगता है। इस समय दिन बड़ा तथा रातें छोटी होने लगती हैं। दिन में लू चलती है। ऐसे में रातें सुहावनी हो जाती हैं। फलों एवं सब्जियों की दृष्टि से यह ऋतु समृद्ध होती है। पपीता, फलों का राजा आम, अंगूर, कटहल, जामुन, शरीफा खूब मिलते हैं। खीरा, ककड़ी घीया, तोरी आदि तरावट पहुँचाने का काम करते हैं। इस ऋतु में विविध प्रकार के शीतल पेय पीने का अपना अलग ही आनंद उठाया जा सकता है। इस समय खेत से फसलें कट चुकी होती हैं। किसान का घर धन-धान्य से भरा होता है। किसान नयी फसल बोने के लिए वर्षा का इंतजार करते दिखाई देते हैं।


वर्षा ऋतु-वर्षा को ऋतुओं की रानी कहा जाता है। ग्रीष्म ऋतु समाप्त होते ही वर्षा का आगमन होता है। किसानों के लिए इस ऋतु का विशेष महत्व होता है। यह ऋतु धरती की तपन शांत कर देती है। वर्षा की शीतल बूंदें हर प्राणी के लिए जीवनदायी होती हैं। सूखी धरती फिर से हरी-भरी होने लगती है। वर्षा से नदी-नाले, तालाब खेत सब पानी से भर जाते हैं। किसान धान, मक्का, ज्वार-बाजरा, खीरा, ककड़ी, तोरी आदि की बुवाई करते हैं। अत्यधिक वर्षा हानिप्रद होती है। सफाई का इस ऋतु में विशेष महत्व होता है। इस ऋतु में अनेक बीमारियाँ फैलती हैं तथा मच्छर और मक्खियाँ पनपते हैं। कवियों ने अपने साहित्य में इस ऋतु का नाना प्रकार से वर्णन किया है।


शरद ऋतु-वर्षा ऋतु के बाद शरद ऋतु का आगमन होता है। इस ऋतु में जलवायु समशीतोष्ण होता है। यह ऋतु अत्यंत मनोरम होती है। इसी समय से दिन छोटे और रातें बड़ी होने लगती हैं। वर्षा ऋतु में आसमान में छाए बादलों का घमंड घट जाता है। वे निर्धन हो जाते हैं। इस समय आसमान बिलकुल स्वच्छ होता है। शरद पूर्णिमा की छटा देखते ही बनती है। इस समय प्रकृति में चहुँ ओर हरियाली दिखाई देती है। इसी ऋतु से त्योहारों का आगमन शुरू हो जाता है। विजयदशमी इस ऋतु का प्रमुख त्योहार है।


हेमंत ऋतु-इस ऋतु के आते-आते जाड़ा कुछ बढ़ जाता है। रातें और बड़ी तथा दिन छोटे हो जाते हैं। वर्षा ऋतु में बोई गई फसलें पककर तैयार हो जाती हैं। किसान उनकी कटाई करके नयी फसल बोने की तैयारी करते हैं। इस समय विविध त्योहार मनाए जाते हैं।


शिशिर ऋतु-शिशिर ऋतु में जाड़ा अपने चरम पर होता है। दिन एक दम छोटे और रातें बड़ी होती हैं। कोहरे के कारण कई बार सूरज के दर्शन नहीं होते हैं। यह स्वास्थ्यवर्धक ऋतु मानी जाती है। इस समय पेड़-पौधे दूँठ बनकर रह जाते हैं। उनकी पत्तियाँ उनका साथ छोड़ जाती हैं।


वसंत ऋतु-वसंत को ‘ऋतुराज’ की संज्ञा दी गई है। शिशिर ऋतु में ढूँठ हुए पौधों में कोमल पत्ते, कलियाँ, फूल तथा फल आ जाते हैं। बसंती हवा वातावरण में मादकता घोल जाती है। प्राकृतिक सौंदर्य चहुँ ओर बिखर जाता है। खेतों में फूली सरसों देखकर लगता है मानी धरती ने पीली ओढ़नी ओढ़ रखी हो। आमों में मंजरियाँ आ जाती हैं। कोयल मतवाली हो कूक-कूक कर वसंत के आने की सूचना सभी को देती फिरती है। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह ऋतु अत्युत्तम मानी जाती है। वसंत पंचमी, बैसाखी, होली इस ऋतु के प्रमुख त्योहार हैं। सचमुच हमारे देश जैसी ऋतु मानव जाति को विविधता धरती पर अन्यत्र दुर्लभ है।





29. प्रकृति, पर्यावरण और विकास


प्रकृति चक्र निरंतर टूट रहा है या यह कहो प्रकृति रूठ रही है, प्रकृति में गुस्सा समाया हुआ है। प्रकृति का गुस्सा कहाँ थमेगा? यह कहा नहीं जा सकता है। इस प्रकृति के रूठने का कारण मनुष्य ही है। प्रकृति चक्र के टूटने का रूठने से मनुष्य-मात्र चिंतित है, समाधान की ओर अग्रसर नहीं है। “पर उपदेश कुशल बहुतेरे” की नीति पर चलता मनुष्य मात्र दूसरों को उपदेश दे रहा है, दूसरों को दोष दे रहा है, किंतु स्वयं बाज नहीं आ रहा है। यदि ऐसे ही दूसरों को उपदेश देता रहा और प्रकृति को मनाने का प्रयास नहीं किया गया तो प्रकृति कब मानव जाति को निगल जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता।


प्रकृति बार-बार अपने क्रोध का संकेत दे रही है; फिर भी मनुष्य अपनी आदत से मजबूर है कि बाज ही नहीं आ रहा है। इससे तो यह प्रतीत हो रहा है कि शीघ्र ही प्रकृति के क्रोध के बवडर में मानव-संस्कृति काल-के गाल समा जाएगी। पिछले कुछ दशकों में दुनिया की विकास दर लगभग दो गुनी हो गई है, किंतु पर्यावरण को गर्माने वाली गैसों का उत्सर्जन भी अपेक्षा से अधिक बढ़ गया है। इस कारण इस विकास ने पर्यावरण को प्रदूषित किया है। विकास के नाम पर प्रतिस्पद्र्धा की दौड़ लगी हुई है। सड़कों पर वाहन दौड़ रहे हैं।


खूब तेल फूंका जा रहा है। एक के बाद एक अमीर होने के हक को बताकर कार्बन को उगल रहे हैं। संसार के कर्णधार यह समझते थे कि तेज विकास ही गरीबी का इलाज है। खेती हो, उद्योग हो या अन्य साधन हो, सबके लिए तेल, कोयला जैसे ईंधन चाहिए, किंतु अचानक बदलते मौसम ने बता दिया कि पर्यावरण की बर्बादी की कीमत पर गरीबी का उन्मूलन नहीं किया जा सकता है। विकास से गरीबी मिटेगी अवश्य, परंतु दूसरी ओर सूखा, बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएँ मनुष्य को कहीं का नहीं छोड़ेंगी। दुनिया पर्यावरण के संतुलन को बनाए रखने लिए तो चिंतित है, किंतु विकास को छोड़कर नहीं। पर्यावरण परिवर्तन से भूमि की उर्वरता कम होती जा रही है।


वैज्ञानिकों का अनुमान है कि तापमान के वृद्ध के कारण आगे के कुछ वर्षों में खाद्य-संकट उत्पन्न हो जाएगा। भारत में जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न कारण विकास के लिए चुनौती बनकर सामने खड़ा हुआ दिखाई दे रहा है। तापमान बढ़ने से गर्मियों में नदियों में पानी कम हो जाता है, जिससे सिंचाई पर प्रभाव पड़ता है। परिणामस्वरूप कृषि कार्य के लिए समस्या उत्पन्न हो रही है। नदियों के सूखने से पीने के पानी का भी संकट वर्ष-प्रति वर्ष गहराता जा रहा है। लोग चिंतित हैं कि बदलते पर्यावरण और प्रकृति का कोप ऐसे ही बढ़ता रहा तो शीघ्र ही अनेक आपदाएँ एक साथ इकट्ठी होकर टूट पड़ेगी, जिनसे शीघ्र निजात पाना संभव नहीं होगा।


जीवन की आवश्यक वस्तुओं को एकत्र करना, बिना खाद्य सामग्री, पानी और हवा के व्यर्थ ही प्रतीत होंगी। यह जानते हुए कि खाद्य, पानी, हवा जीवन के लिए पहली आवश्यकता है, फिर भी इससे बेखबर होकर मनुष्य अन्य सुविधाओं की ओर दौड़ रहा है। वैज्ञानिक आँकड़ों के अनुसार विकास के संसाधनों से निकलता कार्बन और उसके कारण बढ़ते हुए तापमान ने संकेत दे दिए हैं कि तूफान, बाढ़ और सूखा जैसी आपदाओं में वृद्ध होगी। समुद्र के जल-स्तर में वृद्ध होने से एक देश के नागरिक दूसरे देशों की शरण लेंगे। एक क्षेत्र के लोग दूसरे क्षेत्रों में पलायन करेंगे। संतुलन बिगड़ेगा, बाहरी लोगों का दबाब आर्थिक, सामाजिक ढाँचे छिन्न-भिन्न कर देगा।


अांतरिक सुरक्षा का खतरा बढ़ेगा। समाचार-पत्रों के अनुसार समुद्र का जल स्तर बढ़ने से अपने पड़ोसी देश बांग्ला-देश का बहुत बड़ा भूभाग समुद्र के आगोश में आने पर और खारे पानी के कारण कृषि-भूमि अनुपजाऊ होने पर हमेशा की तरह वहाँ के लोग भारत में शरण लेकर जनसंख्या संतुलन को बिगाड़ सकते हैं। इस तरह प्राकृतिक आपदा राष्ट्रीय सुरक्षा के रूप में संकट बनकर खड़ी हो सकती है। इतना ही नहीं, देशों में परस्पर टकराव बढ़ने की संभावना बलवती हो सकती है। पानी के लिए देशों में टकराव बढ़ सकता है। भारत के एक कोने में ऊँचे स्तर पर बसा तिब्बत पानी का बहुत बड़ा स्रोत है। नदियों का तंत्र है।


पड़ोसी देश पानी के लिए नदियों के प्रवाह को बाधिक कर सकता है। इस प्रकार प्राकृतिक आपदाएँ राष्ट्रीय सुरक्षा में अप्रत्यक्ष रूप से अपना प्रभाव दिखा सकती हैं। पर्यावरणीय प्रदूषण के लिए विश्व के विकसित, विकासशील देश संयुक्त रूप से जिम्मेवार हैं। हालाँकि विकसित देशों की जिम्मेदारी अन्य देशों की अपेक्षाकृत कुछ अधिक है। अत: प्रकृति का संतुलन बनाए रखने के लिए उन्हें पहल करनी चाहिए। – इस समस्या से निजात मिलना तभी संभव है जब विश्व के सभी देश मिलकर जिम्मेदारियाँ उठाएँ, अंतर्राष्ट्रीय कानून बनाएँ और उसका पालन करें, अन्यथा प्राकृतिक असंतुलन की अजीबी-गरीब स्थिति पैदा हो जाएगी। लोग अस्वस्थ होंगे, भयभीत होंगे। प्रकृति से खिलवाड़ केरने का परिणाम महाविनाश होगा। समय रहते ही यदि विश्व स्तर पर शीघ्र ही हल नहीं निकाला तो आने वाले वर्षों में प्रकृति का ऐसा कहर हो सकता है जो सँभालने पर भी नहीं सँभल सकता है।

30. भारत के बदलते गाँव

भारत गाँवों का देश है। यहाँ की 80% से अधिक जनसंख्या गाँवों में बसती है और वहीं कुछ-न-कुछ कारोबार कर अपना जीवन-यापन करती है। इन गाँवों में ही देश का अन्नदाता बसता है। ये गाँव देश की अर्थव्यवस्था में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। देश की सरकार चुनने में भी गाँव अपनी भूमिका से पीछे नहीं हटते। गाँवों की महत्ता आदिकाल से रही है, आज है और भविष्य में भी रहेगी। कभी अपनी धूलभरी सड़कों, कच्चे मकानों, अधनंगे बच्चों और दयनीय दशा के लिए जाने-पहचाने जाने वाले गाँवों में भी परिवर्तन की बयार पहुँच चुकी है।


कुछ विज्ञान के बढ़ते चरणों ने तो कुछ सरकारी प्रयासों ने गाँवों की दशा सुधारने का प्रयास किया.है। गाँव पूरी तरह से बदल गए हैं, सुख-सुविधाओं से भरपूर हो गए हैं, ऐसा दावा करना न्यायसंगत नहीं होगा, पर इतना जरूर है कि गाँवों की दशा में सुधार आया है। यह सुधार किन-किन क्षेत्रों में आया है इस पर एक दृष्टि डालते हैं।


शिक्षा का प्रसार-गाँवों के पिछड़ेपन का सर्वप्रमुख कारण था-वहाँ शिक्षा का प्रचार-प्रसार न होना। शिक्षा के अभाव में अनपढ़ किसान महाजनों एवं सूदखोरों के चंगुल में फैंसते थे और आजीवन ऋणमुक्त नहीं हो पाते थे। वे सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाते थे। वे अपनी उपज का उचित मूल्य भी नहीं प्राप्त कर पाते थे। स्वतंत्रतोत्तर भारत में गाँवों तक शिक्षा पहुँचाने को प्राथमिकता दी गई। अब किसानों के बच्चों को शिक्षा के लिए दूरदराज नहीं जाना पड़ता है। वे पढ़-लिखकर उच्च पदों को सुशोभित कर रहे हैं। वे सरकारी योजनाओं का फायदा उठाकर अपनी उपज बढ़ा रहे हैं। ग्रामीण अब बैंकों के द्वारा देख चुके हैं। इससे ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति मजबूत हुई है। आज ग्रामीणों ने शिक्षा के महत्व को पहचान लिया है। इससे उनके दृष्टिकोण में भी बदलाव आ गया है।


सड़क तथा यातायात व्यवस्था में सुधार-जो गाँव पहले अपनी धूल एवं कीचड़ भरी सड़कों के लिए जाने-पहचाने जाते थे, आज उन सड़कों की कायापलट हो चुकी है। सड़कों के अभाव में वर्षा के चार महीनों में उन गाँवों में पहुँचना पहाड़ चढ़ने जैसा होता था, पर अब किसी ऋतु-मौसम में वहाँ जाया जा सकता है। यातायात के कारण विकास के कदम गाँवों की परिधि में पहुँच चुके हैं। किसानों और अन्य ग्रामीणों की बैलगाड़ी की जगह मोटर साइकिलों, ट्रैक्टरों और कारों ने ले ली है। पैदल यात्रा करना तो अब बीते जमाने की बात हो चुकी है।


कृषि क्षेत्र में बदलाव-वैज्ञानिक उन्नति के कारण कृषि की दशा सुधरी है। अब किसान हल जैसे परंपरागत कृषि उपकरणों की जगह ट्रैक्टर कल्टीवेटर, हैरो आदि का प्रयोग करते हैं। सिंचाई नहरों और ट्यूब-वेल द्वारा की जाती है। कृषि जो कभी बैलों के सहारे ही की जाती थी आज पूरी तरह से यंत्रों से की जाने लगी है। ग्रामीण बुवाई, कटाई, निराई, मड़ाई, दुलाई जैसे कृषि कार्य मशीनों से करने लगे हैं। इससे उपज में वृद्ध हुई है और ग्रामीणों की दशा सुधरी है।


विद्युतीकरण से क्रांति-स्वतंत्रता के बाद प्रत्येक गाँव में बिजली पहुँचाने का लक्ष्य रखा गया। आज गाँवों में बिजली पहुँच गई है। वहाँ अब टेलीविजन, कूलर, पंखे, वाशिंग मशीन, प्रेस आदि का प्रयोग शुरू हो गया है। बच्चों को पढ़ने के लिए अब दीए और केरोसीन लैंप जलाने की आवश्यकता नहीं रही। बस बटन दबाते ही घर उजाले से भर उठता है। विद्युतीकरण से ग्रामीणों का जीवन सुखमय बना है। वहाँ कुश्ती, ताश, दंगल या बातचीत ही मनोरंजन के साधन हुआ करते थे, पर अब वे रेडियो, टेलीविजन पर तरह-तरह के मनोरंजक कार्यक्रम देखते हैं और देश-दुनिया की खबरों से अवगत होते हैं। अब तो ग्रामीणों और किसानों के लिए विशेष कार्यक्रम बनाए जाने लगे हैं। यद्यपि ये सुविधाएँ गाँव के हर व्यक्ति के पास नहीं हैं फिर भी गाँवों की दशा में सुधार आया है। 镑。


बढ़ती चिकित्सा सुविधाएँ-पहले गाँवों में चिकित्सा सुविधाएँ न के बराबर थीं, किंतु सरकारी प्रयासों और यातायांत के बढ़ते ‘ साधनों के कारण वहाँ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, आँगनवाड़ी केंद्र, सामुदायिक केंद्र जैसी सुविधाएँ हो गई हैं। इससे उन्हें शारीरिक परेशानियों के लिए अब झाड़-फूंक करने वालों, तांत्रिकों, वैद्यों और हकीमों पर ही निर्भर नहीं रहना पड़ता है। उन्हें चिकित्सा की बेहतर सुविधाएँ उनके आसपास ही मिल रही हैं। गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए ही उन्हें शहर की ओर जाना पड़ता है। डॉक्टर, प्रशिक्षित नसों और दाइयों की सेवाएँ उन्हें गाँवों में ही मिलने लगी हैं।


सामाजिक समता का प्रसार-यद्यपि गाँवों में आज भी छुआछूत, ऊँच-नीच, जाति-पाँति की बातें फैली हैं, फिर भी अब यह स्थिति पहले जितनी विकट नहीं है। शिक्षा के प्रचार-प्रसार ने उनके दृष्टिकोण में पर्याप्त बदलाव ला दिया है।


राजनैतिक सोच का विकास-आज गाँवों में राजनीति की बयार घर-घर तक पहुँच चुकी है। ग्रामीणों ने देश की राजनीति की – ” दिशा तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ग्राम-पंचायतों की स्थापना तथा लोकतंत्र के कारण गाँवों की राजनीति बहुत प्रभावित हुई है। अब उन्हें बहला-फुसलाकर किसी के पक्ष में मतदान नहीं कराया जा सकता है। दुर्भाग्य से इस राजनीतिक चेतना से गाँवों में जातीय और सांप्रदायिक विवाद बढ़ा है। परस्पर सहयोग से रहने वाले ग्रामीण आज विभिन्न खेमों में बँटकर रह गए हैं।


शहर की ओर पलायन-गाँवों की दशा सुधरने के बाद भी शिक्षित युवा अपना पैतृक गाँव छोड़कर शहर की ओर पलायन कर रहा है। वह शिक्षित होकर नौकरी की राह में शहर भागने लगा है। यद्यपि गाँवों की दशा में पहले की अपेक्षा बहुत अधिक परिवर्तन आया है, तथापि परंतु वहाँ अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। सरकार को गाँवों के उत्थान की ओर ध्यान देना चाहिए।



31. परोपकार


परोपकार के संबंध में हमारे ऋषि-मुनियों ने, हमारे धर्म ग्रंथों में अनेक प्रकार से चर्चाएँ की हैं। केवल चर्चाएँ ही नहीं कीं, अपितु उसके अनुसार अपने जीवन को जिया। जीवन की सार्थकता परोपकार में ही निहित है, इसके लिए उन्होंने जो सिद्धांत बनाए उसके अनुसार स्वयं उस पर चले। महाभारत के प्रणेता, पुराणों के रचनाकार श्री वेदव्यास जी ने परोपकार के महत्व को विशेष रूप से स्वीकारते हुए कहा कि-


अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनंद्वयम्।

परोपकार: पुण्याय पापाय परपीडनम्।।


परोपकार के प्रति तो प्रकृति भी सदैव तत्पर रहती है। प्रकृति की परोपकार भावना से ही संपूर्ण विश्व चलायमान है। प्रकृति से प्रेरित होकर मनुष्य को परोपकार के लिए तत्पर रहना उचित है। प्रकृति के उपादानों के बारे में कहा जाता है कि वृक्ष दूसरों को फल देते हैं, छाया देते हैं, स्वयं धूप में खड़े रहते हैं। कोई भी उनसे निराश होकर नहीं जाता है उनका अपना सब कुछ परार्थ के लिए होता है। इसी प्रकार नदियाँ स्वयं दूसरों के लिए निरंतर निनाद करती हुई बहती रहती हैं। इस विषय में कवि ने कहा है-


वृक्ष कबहुँ नहि फल भखें, नदी न सच्चे नीर।

परमारथ के कारन, साधुन धरा शरीर।।


इस प्रकार संपूर्ण प्रकृति अपने आचरण से लोगों को संदेश देती हुई दिखाई देती है और परार्थ के लिए प्रेरणा देती हुई प्रतीत होती है। प्रकृति से प्रेरित होकर महापुरुषों का भी जीवन परोपकार में व्यतीत होता है उनकी संपत्ति का संचय दान के लिए होता है। प्रकृति के उपादान निरंतर परोपकार करते हुए दिखाई देते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उनका कार्य ही परोपकार है। चंद्र उदय होता है शीतलता प्रदान करता है चला जाता है। सूर्य उदय होता है प्रकाश फैलाता है और चला जाता है। पुष्प खिलते हैं, सुगंध फैलाते हैं और मुरझा जाते हैं।


परोपकार में ही अलौकिक सुख की अनुभूति होती है। भारतीय संस्कृति में परोपकार के महत्व को सर्वोपरि माना गया है। भारत के मनीषियों ने जो उदाहरण प्रस्तुत किए, ऐसे उदाहरण धरती क्या संपूर्ण ब्रहमांड में भी नहीं सुने जाते हैं। यहाँ महर्षि दधीचि से उनकी परोपकार भावना से विदित होकर देवता भी सहायता के लिए याचना करते हैं और महर्षि अपने जीवन की चिंता किए बिना सहर्ष उन्हें हड्डयाँ तक देते हैं। याचक के रूप में आए इंद्र को दानवीर कर्ण अपने जीवन-रूपी कवच और कुंडलों को अपने हाथ से उतारकर देते हैं। राजा रंतिदेव स्वयं भूखे होते हुए भी अतिथि को भोजन देते हैं। इस परोपकार की भावना से यहाँ की संस्कृति में अतिथि को देवता समझते हैं। विश्व में भारतीय संस्कृति ऐसी है जिसमें परोपकार को सर्वोपरि धर्म माना गया है। इसलिए तो हमारे धर्म ग्रंथों में सभी के कल्याण की कामना की गई है-


सर्वेभवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभागभवेत्।


इस तरह त्याग और बलिदान के लिए भारत-भूमि, विश्व क्या संपूर्ण ब्रहमांड में अप्रतिम हैं। अत: जीवन की सार्थकता कविवर मैथिलीशरण गुप्त ने परोपकार में ही बताई है-


‘वही मनुष्य है जो मनुष्यं के लिए मरे”


इसलिए प्रकृति भी लोगों को निरंतर प्रेरित करती है कि सुखमय जीवन जीना चाहते हो तो यथासंभव परोपकार करो। परोपकार में स्वार्थ की भावना नहीं होती है। आज परोपकार में मनुष्य अपना स्वार्थ देखने लगा है। वणिक बुद्ध से अपने हानि-लाभ की गणना कर परोपकार की ओर प्रेरित होता है। पारस्परिक वैमनस्यता बढ़ी है। लोगों में दूरियाँ बढ़ी हैं। हम आपद्-समय में सहायता करना भूलते जा रहे हैं जिससे मनुष्य एकाकी जीवन जीने का आदी होता जा रहा है। सामूहिकता की भावना नष्ट होती जा रही है, क्योंकि आज मनुष्य परोपकार से दूर होता जा रहा है।


परोपकार के सूत्र इतने ढीले हो गए हैं कि परोपकार में भी लोग अपना स्वार्थ देखते हैं। इसका कारण है कि दो से चार बनाने में लगा मनुष्य इतना स्वार्थी हो गया है कि उसे परपीड़ा का अनुभव नहीं होता है। प्रकृति समय-समय पर सावधान कर रही है कि परोपकार से दूर मत हो, अन्यथा जीवन सरस न होकर नीरस हो जाएगा। m जीवन में सुख की अनुभूति परोपकार से होती है तो परोपकार का महत्व स्वयं ही प्रतीत होने लगता है। स्वयं प्रगति की ओर बढ़ते हुए दूसरों को अपने साथ ले चलना मनुष्य का ध्येय होगा तो संपूर्ण मानवता धन्य होगी।


मात्र अपने स्वार्थ में डूबे रहना तो पशु प्रवृत्ति है। मनुष्यता के अभाव में कोई भी मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं है। भूखे को भोजन देने, प्यासे को पानी देने की भावना तो मनुष्य में होनी चाहिए। इतनी भावना भी समाप्त हो जाती है तो पशुवत जीवन है। जिस दिन परोपकार की भावना पूर्णत: समाप्त हो जाएगी उस दिन धरती की शस्य-स्यामला न रहेगी, माता का मातृत्व स्नेह समाप्त हो जाएगा। पुत्र अपनी मर्यादा को भूल जाएगा। अंतत: मानव बूढ़े सिंह समूह की तरह इधर-उधर ताकता हुआ, पानी के लिए पुकार लगाता हुआ अपने ही मैल की दुर्गध में साँस लेने के लिए विवश हो जाएगा। अत: संपूर्ण सृष्टि आज भी सहयोग की भावना से चल रही है। यह भावना समाप्त होते ही सब उलट-पुलट हो जाएगा। इसलिए श्री तुलसीदास जी ने कहा-


परहित सरिस धर्म नहिं भाई।

पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।


32. भारत की सामाजिक समस्याएँ


मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे समाज का अंग माना गया है। मनुष्य और समस्याओं का अत्यंत घनिष्ठ नाता है। मनुष्य को जिन समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है, धीरे-धीरे वही सामाजिक समस्या बन जाती है। भारतीय समाज में अनेक प्रकार की समस्याएँ हैं जिनके सुधार एवं समाधान की महती आवश्यकता है। भारतीय समाज में अनेक संप्रदायों, जातियों एवं धर्मों के मानने वाले लोग हैं। यहाँ हिंदू मुसलिम, सिख, पारसी, बौद्ध, ईसाई आदि धर्मों को मानने वाले बसते हैं जिनकी जातियों की गणना करना कठिन है, फिर भी भारतीय समाज में हिंदुओं की बहुलता है। यहाँ विभिन्न संप्रदायों के अनुयायी भी परस्पर मिल-जुलकर रहते हैं। जब समाज में रहने वालों में इतनी विविधता है तो वहाँ अनेक समस्याओं का होना भी स्वाभाविक ही है। भरतीय समाज में पाई जाने वाली कुछ समस्याएँ इस प्रकार हैं-


कुरीतियाँ और अंधविश्वास-भारतीय समाज नाना प्रकार की कुरीतियों, रूढ़ियों और अंधविश्वास से आज भी मुक्त नहीं हो पाया है। ये अंधविश्वास और कुरीतियाँ इतनी गहराई से अपनी जड़ें जमा चुकी हैं कि इनसे छुटकारा पाना कठिन हो रहा है। लोग इनसे प्रताड़ित होते रहते हैं पर इन्हें छोड़ने को तैयार नहीं हैं। भारतीय कितने भी महत्वपूर्ण काम के लिए घर से निकल रहे हों और बिल्ली रास्ता काट जाए या कोई छींक दे अथवा एक आँख वाला आदमी सामने आ जाए तो वे इसे अपशकुन मानकर काम को अगले दिन के लिए छोड़ बैठते हैं। भले ही वे इलाज के लिए निकल रहे हों और इस तरह टालमटोल करने से नुकसान उठाना पड़े पर उन्हें इसकी चिंता नहीं रहती है।


सोने का आभूषण खोने पर सोना दान देना, हाथ से पानी भरा लोटा छूटकर गिरना, पीछे से आवाज लगाने पर यह मान बैठना कि काम नहीं होगा जैसे अंधविश्वास आज भी प्रचलित हैं, जिनका कोई उचित कारण समझ में नहीं आता है। सिर दर्द, बदन दर्द या बुखार होने पर डॉक्टर के पास जाने के बजाए ओझा, तांत्रिक, मौलवी एवं झाड़-फूंक करने वालों की शरण में जाना बेहतर समझते हैं। उन्हें आज भी ताबीज, गंडा, भभूत, पूजास्थल की मिट्टी पर अधिक भरोसा है। इन्हीं कुरीतियों और अंधविश्वासों के बल पर हजारों-लाखों की रोटी-रोजी चल रही है। देखा जाए तो समाज के कुछ लोगों द्वारा वैज्ञानिक उन्नति एवं खोजों का घोर अपमान है। ऐसे अंधविश्वासी वैज्ञानिकों को कम महत्ता देकर पाखडियों को महत्त्व देते हैं।


जाति-पाँति की समस्या-भारतीय समाज विशेषत: ग्रामीण अंचलों में आज भी जातिवाद का बोलबाला है। सैद्धांतिक रूप से लोग इसे समाज की प्रगति में बाधक मानते हैं पर व्यावहारिक रूप से इस सिद्धांत को नहीं अपनाया जाता है। जाति-पाँति की भावना ने समाज में कटुता और विषमता का जहर घोल रखा है। लोग चाहकर भी एक मंच पर आकर समता का भाव प्रदर्शित नहीं कर पाते हैं, क्योंकि नीची जाति के लोगों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता है। उच्च वर्ग के लोग इन्हें अपने साथ बिठाने में हीनता अनुभव करते हैं। इससे समाज विखंडित हो गया है।


दहेज प्रथा-वर्तमान में दहेज प्रथा भारतीय समाज की प्रमुख समस्या बन गई है। इसके कारण सामाजिक संरचना प्रभावित हो रही है। देश के कुछ राज्यों में स्त्रियों की जनसंख्या तेजी से गिर रही है। गहराई से देखा जाए तो इसके मूल में दहेज की समस्या है, जिसके कारण लोग गर्भ में भ्रूण लिंग परीक्षण कराकर यह सुनिश्चित कराना चाहते हैं कि आने वाली संतान बेटी तो नहीं है। यदि कन्या है तो उसकी भ्रूण-हत्या कराकर वे छुटकारा पाना चाहते हैं। इससे समाज का लिंगानुपात प्रभावित हो रहा है। इसका समाधान किए बिना समाज की प्रगति की कामना करना बेमानी होगी।


नारी जाति के प्रति असम्मान की भावना-जिस समाज में कभी कहा जाता था ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:’ वही समाज आज नारी पर भिन्न-भिन्न रूपों में अत्याचार करने के लिए तत्पर है। पुरुषों ने अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए, जिसके प्रभाव स्वरूप अनमेल विवाह, पर्दा प्रथा, बाल विवाह, विधवा विवाह जैसी अनेक सामाजिक समस्याएँ सामने आई। इन सबका दंश नारी जाति को झेलना पड़ा और उसने विवशता और निरीहता से सहा। बाल विवाह रोकने का लक्ष्य लेकर सरकार ने ‘शारदा एक्ट’ पारित किया पर वह भी समाज का विशेष भला न कर सका। आज भी राजस्थान के पिछड़े इलाकों में एक ही मंडप में एक ही परिवार की कई छोटी-बड़ी लड़कियों के फेरे पूरे करा लिए जाते हैं, जिनमें एकाध तो ठीक से चलना भी नहीं सीखी होती हैं।


उत्तर प्रदेश के ग्रामीणांचलों में आज भी बाल विवाह की प्रथा प्रचलित है। नारी आर्थिक रूप से स्वतंत्र न होने के कारण पुरुष की दया दृष्टि पर निर्भर है। वह घर की चारदीवारी में कैद रहने को विवश है। मुसलिम समाज में नारी की स्थिति और भी दयनीय है। पर्दा प्रथा, बहुविवाह, बालविवाह और तलाक पदधति ने उसकी स्थिति को बद से बदतर बना दिया है। वास्तव में नारी को मात्र भोग-विलास की वस्तु समझने का दौर मुगल काल से ही शुरू हो गया था। जिंदगी रूपी गाड़ी के दो पहियों में से एक होने पर भी समाज में नारी को सम्मानजनक स्थान नहीं मिल पाता है। वह पुरुष की अर्धागिनी है। उसकी उपेक्षा करके समाज की उन्नति की बात सोचना भी बेमानी होगी।


समाज में अनेक समस्याओं के लिए उत्तरदायी कारक है-जनसंख्या वृद्ध, जो स्वयं एक समस्या होने के साथ-साथ अनेक समस्याओं की जन्मदात्री है। बेरोजगारी इसी से उत्पन्न समस्या है, जिससे निराश, हताश होकर युवावर्ग असामाजिक कार्य करने का दुस्साहस कर बैठता है और समाज पर बोझ बन जाता है। – समाज उत्तरोत्तर प्रगति के पथ पर बढ़ता रहे, इसके लिए सामाजिक समस्याओं पर विजय पाना जरूरी है। इन समस्याओं पर दृढ़ इच्छा शक्ति, साहस और तत्परता से प्रयास करके विजय पाई जा सकती है।


33. पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं


स्वतंत्रता स्वाभाविक रूप से प्राणी-जगत को प्रिय है। स्वतंत्रता के अभाव में प्राणी अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति को भूल जाता है और संपूर्ण शारीरिक, मानसिक, सामाजिक विकास को कुंठित कर देता है। पराधीन-मनुष्य को स्वर्गिक संपदाएँ सुख की अनुभूति कराने में समर्थ नहीं होती हैं। अनुशासित स्वतंत्र जीवन में जो सुखानुभूति होती है उसकी सहज कल्पना भी नहीं की जा सकती है। वह वर्णनातीत होती है-‘हम पंछी उन्मुक्त गगन के’। कवि ने पिंजरबद्ध पक्षी की कल्पना करते हुए चित्रित किया है कि पक्षी भी दाना, चुग्गा, पानी के होने पर भी निरंतर पिंजरे से मुक्त होने का प्रयास करता, है फिर परतंत्र जीवन में मनुष्य को कैसे सुख मिल सकता है। इस सोच को व्यास जी ने इस प्रकार व्यक्त किया है-


‘सर्व परवशं दुःखं , सर्वमात्मवशं सुख’


पराधीनता मनुष्य के माथे पर कलंक है, जिसे आसानी से मिटाया नहीं जा सकता है। श्री विष्णु प्रभाकर जी ने इस संबंध में लाला लाजपत राय के अनुभवों को, चित्रित करते हुए लिखा है कि वे अमेरिका, इग्लैंड, फ्रांस गए और दूसरे देशों में घूमे। जहाँ भी गए भारतीय होने के नाते उनके माथे पर गुलाम होने का कलंक लगा रहा। तब उन्होंने कहा कि मनुष्य के पास संसार के ही नहीं, अपितु स्वर्ग के समान उपहार और साधन हों और वह गुलाम हो तो सारे उपहार और साधन उसे गौरव प्रदान नहीं कर सकते। उस स्थिति में सुख की अनुभूति नहीं होती है। अत: चैतन्य व्यक्ति की बात तो क्या जब पिंजरबद्ध चिड़िया को सुख-साधन सुख प्रदान नहीं कर सकते। अत: परतंत्रता से बढ़कर पीड़ित करने वाली पीड़ा शायद ही दूसरी हो सकती है।


परतंत्रता मानसिक शारीरिक, वैचारिक सभी प्रकार से पीड़ित करती है। भारत की परंपरा ‘अतिथि देवो भव:’ की रही। अंग्रेजों ने भारत की इस उदारता का चालाकी से लाभ उठाया। अतिथि बनकर आए और अवसर पाकर संपूर्ण भारत के सामने अतिथि का चोगा उतार कर उन्होंने भारत को गुलाम बना लिया। आस्तीन के साँप इस अतिथि की जब पोल खुली तब तक बहुत देर हो चुकी थी। भारत के लोग पिंजरबद्ध पक्षी की तरह तड़प कर रह गए। अंग्रेजों की यातनाएँ बढ़ने लगीं। अंग्रेज भारतीय जनता पर कहर ढहाने लगे।


परतंत्रता में भारतीय कुलबुलाने लगे, पिंजर को तोड़ने की योजनाएँ बनने लगीं। किंतु अंग्रेज इतना चतुर थे कि भारतीयों की कोई भी योजना काम नहीं आती थी। कारण था कि योजना बनते ही उसका प्रचार हो जाता था और अंग्रेज योजनाओं का दमन कर देते। इस तरह भारतीय असफल होते। प्राणों की आहुति देकर अपना कृत्य समाप्त कर लेते। प्राणों की आहुति देने वाले भारतीयों की संख्या बढ़ती गई जिसे देखकर अंग्रेज तिलमिलाए अवश्य पर घबराए नहीं। क्रांतिकारियों का दल आगे आया। भगत सिंह, राजगुरु, चंद्रशेखर, बिस्मिल आदि सहजता से प्राणों की आहुति देते गए। उन क्रांतिकारियों के मन में भावना थी कि परतंत्र जीवन तो नरक से भी बदतर है। इसलिए उन्होंने स्वतंत्रता के लिए आहुति देना ही श्रेष्ठकर समझा।


जब मनुष्य स्वयं मरने की चिंता किए बिना शत्रु से लोहा लेने के लिए आतुर होता है तो भय स्वयं पलायन कर जाता है। प्राणों को हथेली पर लिए पुरुष को कोई भय विचलित नहीं कर सकता है। यही कारण था कि क्रांतिवीर आजाद चंद्रशेखर, भगत सिंह, राजगुरु जैसे बाल-युवक अंग्रेजों की शक्ति की चिंता किए बिना भिड़ने को आतुर रहते थे। ऐसे निडर युवकों को वीर सावरकर, सुभाष चंद्र बोस जैसे महान राष्ट्र भक्तों का दिशा-निर्देशन प्राप्त हो जाए तो कैसी भी भयानक आपदा हो पथ-विचलित नहीं कर सकती।


ऐसा संयोग मुझे मिला होता तो मैं दिशा-निर्देशन के अनुसार कंधे-से-कंधा मिलाकर सहयोग . करता। जन-समान्य में स्वतंत्रता के महत्त्व और परतंत्रता के कलंक की बातें बताकर मानव-समूह को चैतन्य करने का प्रयास करता। छत्रपति शिवाजी की नीति से प्रेरित करते हुए छापामार पद्धति से शत्रु अंग्रेजों को भयभीत करता और आचार्य चाणक्य की नीतियों को अपनाकर जन-सामान्य को संगठित करता और अंग्रेजों से मुकाबला करने के लिए उन्हें प्रेरित करता। ईश्वर से निरंतर प्रार्थना और कामना रहती कि हे ईश्वर! इस पराधीनता से मुक्त करने की शक्ति और प्रेरणा दे। परतंत्रता का कलंक लिए हुए कोई भी स्वाभिमानी पुरुष सुख का अनुभव नहीं कर सकता, भले ही सिर पर क्यों न धारण कर लिया जाए। चंद्र शिवे के शिखर पर रहते हुए दुर्बल ही बना रहता है। परतंत्रता से बढ़कर कोई नरक नहीं है।


परतंत्र व्यक्ति का न कोई सम्मान, न कोई स्वाभिमान होता है। वह तो मात्र घुट-घुटकर अपमान के घूंट पीकर जीवन जीता है। परतंत्र मनुष्य की न कोई मर्यादा है न कोई पुण्य है। परतंत्र मनुष्य के द्वारा किए गए सारे सुकृत्य उसके मालिक के हिस्से में जाते हैं; इसलिए कविवर दिनकर जी ने कहा है-


छीनता हो स्वत्व कोई और तू

त्याग-तप से काम ले, यह पाप है।

पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे

बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ है।


34. छात्रों में बढ़ता असंतोष-कारण और निवारण


प्राचीन भारत में गुरुकुल शिक्षा के केंद्र हुआ करते थे। शिक्षार्थी इन गुरुकुलों में एक निश्चित उम्र में जाते थे और अपनी शिक्षा-दीक्षा पूरी करके ही घर लौटते थे। वे बारह से पंद्रह वर्ष तक गुरु के पास रहते थे, जिससे उनमें संयम, धैर्य, त्याग जैसे मानवीय गुणों का विकास हो जाता था, पर आज स्थिति एकदम विपरीत है। आज का विद्यार्थी ज्ञानार्जन के उद्देश्य से विद्यालय, महाविद्यालय और अन्य उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश लेता है। वह ज्ञानार्जन के साथ-साथ जीविकोपार्जन का साधन भी प्राप्त कर लेना चाहता है। इनमें भी द्रवितीय उद्देश्य को प्रमुख उद्देश्य को गौण बनता जा रहा है। जब यह उद्देश्य पूरा नहीं होता है तो विद्यार्थी आक्रोशित हो उठते हैं। वे हड़ताल, प्रदर्शन तोड़-फोड़, मारकाट, उद्दंडता आदि का रास्ता अपनाते हैं। वे असामाजिक कार्यों में शामिल हो निरुद्देश्य भटकते हैं। आखिर क्या है इस आक्रोश का कारण।


छात्रों में बढ़ते असंतोष के कारणों पर विचार करने से, सबसे पहला कारण दिखाई देता है-शिक्षा द्वारा जीविकोपार्जन का उद्देश्य न पूरा हो पाना। शिक्षण संस्थानों में दो तरह के विद्यार्थी आते हैं-एक वे जो संपन्न घर से आते हैं, जिन्हें आर्थिक अभावों से कुछ लेना-देना नहीं होता है। शिक्षा प्राप्ति के बाद उन्हें नौकरी मिले या न मिले, इसकी उन्हें चिंता नहीं होती। वे प्राय: मौजमस्ती करने और घर के वातावरण से छुटकारा पाने विद्यालय आते हैं। दूसरे वे छात्र हैं जो मध्यम और गरीब परिवारों से आते हैं। वे नौकरी और रोजी-रोटी का सपना पाले आते हैं।


विद्यालय में प्रवेश के समय उनकी आँखों में जो सपने और चमक होती है वह पढ़ाई समाप्त होते-होते क्षीण होने लगती है। ये छात्र जब अमीर घरों से आए छात्रों से अपनी तुलना करते हैं तो उनके मन में कुंठा, असंतोष और आक्रोश का उदय होता है। कुछ गरीब छात्रों की महत्त्वाकांक्षा बहुत ऊँची होती है। वे आर्थिक अभाव में महँगे संस्थानों में प्रवेश नहीं ले पाते हैं। उनकी शिक्षा का खर्च परिजन बड़ी कठिनाई से उठा रहे होते हैं, जिसका सीधा असर उनके मनोमस्तिष्क पर होता है। वे तनाव ग्रस्त हो जाते हैं। एक ओर ऊँची महत्वाकांक्षा और दूसरी ओर आर्थिक चक्र के भेंवर में फैसकर वे दिग्भ्रमित हो जाते है। ऐसे में विद्यार्थी सरकारी सहायता का मुँह देखने को विवश हो जाता है।


सरकारी सहायता उसके सुनहरे भविष्य का ताना-बाना बुनने में असमर्थ रहती है। अंतत: इसका परिणाम असंतोष के रूप में समाज के सामने आता है। छात्रों में बढ़ते असंतोष का दूसरा कारण उनकी ऊँची महत्वाकांक्षा है। आज का विद्यार्थी विद्यालय से उच्च शिक्षण संस्थानों का सफर तय कर लेता है, परंतु वह व्यावसायिक शिक्षा को हीन समझकर उससे दूरी बनाए रखता है। वह छोटे रोजगार करना पंसद नहीं करता। उसकी निगाह प्रशासनिक पदों पर लगी रहती है। इस तरह के पद न मिलने पर भी छोटे पद उसे आकृष्ट नहीं कर पाते हैं। फलस्वरूप वे बेरोजगारों की पंक्ति को और लंबी बनाते हैं। उनका यह हाल देखकर आने वाले छात्रों का मन निराशा में डूबने लगता है। अपना भविष्य अंधकारमय देख वे असंतोष से भर उठते हैं।


छात्र असंतोष का तीसरा कारण भौतिकवाद में फैंसे स्वार्थी समाज के नैतिक मूल्यों में आती निरंतर गिरावट है। समाज में अनैतिकता और भ्रष्टाचार का कद बढ़ता जा रहा है। थाने हों या कोई सरकारी कार्यलय, अस्पताल हों या न्यायालय शीघ्र काम करवाने के लिए चढ़ावा देना ही पड़ता है। अयोग्य और कम पढ़े-लिखे उम्मीदवार, सुयोग्य उम्मीदवारों पर वरीयता पाकर नौकरी करते हैं। यही दशा शिक्षण संस्थाओं की भी है। प्रवेश परीक्षाएँ दिखावा बनकर रह गई हैं। ऐसे में योग्य छात्रों में असंतोष पैदा होना स्वाभाविक है। आज शिक्षण संस्थानों को राजनीति की हवा लग गई है।


छात्र संघों पर राजनीतिक पार्टियों का कब्जा होने लगा है। ये छात्र संघ चुनाव के समय में अनुशासनहीनता को बढ़ावा देते हैं। वे विद्यालयी गतिविधियों तथा शिक्षण कर्मियों पर अपना प्रभुत्व जमाना चाहते हैं। मतदान की घटी आयु (18 वर्ष) ने राजनीतिक हस्तक्षेप की छूट दे दी है, जिससे पढ़ाई-लिखाई पीछे छूटती जा रही है। उनकी स्थिति धोबी के कुत्ते जैसी होती है जो न राजनीति का खिलाड़ी बन पाता है और न प्रतिभाशाली छात्र। ऐसे में आक्रोशित होने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं सूझता है। प्रतिभासंपन्न छात्रों में असंतोष उत्पन्न होने के दो कारण और नजर आते हैं। उनमें से पहला है उनकी गरीब परिवारों से संबद्ध ता, जिसके कारण वे महँगे संस्थानों में प्रवेश नहीं ले पाते हैं और संपन्न परिवार के औसत और निचले स्तर के छात्र कैपीटेशन या डोनेशन के बल पर दाखिला पा जाते हैं।


दूसरा कारण है-आरक्षण – व्यवस्था। आरक्षित वर्ग के काफी कम अंक वाले छात्र डॉक्टरी, इंजीनियरिंग और पैरामेडिकल पाठ्यक्रमों में प्रवेश पा लेते हैं पर प्रतिभाशाली छात्रों को सामान्य श्रेणी में होने का दुष्परिणाम भुगतना पड़ता है। इससे असंतोष उत्पन्न होता है और छात्र घुट-घुटकर जीता है। छात्रों में बढ़ता असंतोष रोकने के लिए शिक्षा को रोजगारपरक बनाना होगा। समाज में समता की भावना पैदा कर आरक्षण समाप्त करना होगा तथा प्रतिभाशाली छात्रों की मदद के लिए सरकार एवं समाज को आगे आना होगा, भले ही वे किसी जाति, धर्म या समाज से संबंध रखते हैं।


35. युवाओं पर चलचित्रों का प्रभाव


विज्ञान ने मनुष्य के हाथों में अनेक ऐसी वस्तुएँ और साधन दिए हैं जिनसे उसका जीवन सुखमय बना है। ऐसा ही एक अद्भुत साधन है सिनेमा, जिसने मनुष्य के मनोरंजन की परिभाषा ही बदल दी है। जानवरों, पक्षियों के द्वारा मन बहलाने वाला मनुष्य कुश्ती, शिकार, सामूहिक नृत्य तक आ पहुँचा था, किंतु बीसवीं शताब्दी में सिनेमा ने क्रांतिकारी बदलाव लाया। लोगों ने इसे अत्यधिक पसंद किया। सिनेमा से एक ओर मनोरंजन होता है तो दूसरी ओर संदेश और विचारों के संप्रेषण का सशक्त माध्यम भी है। यूँ तो हर आयुवर्ग के लोग इसे पसंद करते हैं, परंतु युवावर्ग इससे सर्वाधिक प्रभावित होता है।


सिनेमा नाटक का विकसित और परिष्कृत रूप है। समाज के बड़े वर्ग को सिनेमा ने प्रभावित किया है अत: इसका उपयोग समाज और राष्ट्र में व्याप्त कुरीतियाँ, कुप्रथाएँ, सामाजिक समस्याओं के निवारण में किया जा सकता है, किंतु यह युवावर्ग में कुसंस्कार और असामाजिक वृत्तियों का विकास कर रहा है। सिनेमा के प्रभाव से नवयुवकों के चरित्र में क्या-क्या बदलाव आ रहा है, नवयुवक किस सीमा तक विपथगामी हुए हैं। यह विचारणीय है।


फैशन के प्रति उत्कट अभिलाषा-युवा जब अभिनेताओं को सुंदर वेशभूषा से सज्जित देखता है तो वह भी उसी तरह की वेशभूषा अपनाने के लिए लालायित हो उठता है। उसमें आधुनिक फैशन की स्वाभाविक वृत्ति जाग उठती है। वह स्वयं को अधिक आकर्षक और प्रभावी बनाने के लिए फैशन के अनुरूप वस्त्रों को नए रूप में सिलाता है। सिनेमा से उसे फैशन के नए-नए वस्त्रों की श्रृंखला प्राप्त हुई है जहाँ उसके पास चुनाव के अनेक विकल्प हैं। यह कहना तनिक भी गलत न होगा कि युवक-युवतियाँ अकसर उसी प्रकार के वस्त्रों का चयन करते हैं जैसा वे सिनेमा में अपने प्रिय अभिनेता-अभिनेत्रियों को आभूषित देखते हैं।


आज समाज में फैशन का दौर समय-समय पर बदलता रहता है। कुछ समय पहले तक बिलकुल ढीली-ढाली कमीजों का चलन रहता है तो थोड़े समय बाद ही एकदम सामान्य या शार्ट शर्ट का जमाना आ जाता है। ऐसा किसके प्रभाव से होता है? सीधा-सा जवाब है सिनेमा के। आज अभिनेता-अभिनेत्रियाँ जिस प्रकार की केश सज्जा करती हैं, उसी प्रकार का केश। विन्यास युवक-युवतियों का देखा जा सकता है। युवक-युवतियों के बातचीत का तरीका, हावभाव, चलने-फिरने का ढंग आदि सिनेमा से प्रभावित होता नजर आता है। कभी जीवन आदर्श माना जाने वाला-‘सादा जीवन’ आज पिछड़ेपन का पर्याय बनकर रह गया है। जो युवक-युवतियाँ आधुनिक फैशन के वस्त्र नहीं पहनते हैं, समाज उन्हें पिछड़ों की श्रेणी में समझने की भूल करता है ऐसा लगता है कि फैशन की इस अंधी दौड़ में सादगी कुचलकर रह गई है।


असामाजिक वृत्तियाँ अपनाता युवा-फिल्मों ने समाज को अत्यंत गहराई से प्रभावित किया है। समाज में अत्यंत रुचि से फिल्में देखी जाती हैं, किंतु आज के फिल्म-निर्माता अपने उद्देश्य से भटक गए हैं। वे अधिकाधिक लाभ कमाने के उद्देश्य से ऐसी फिल्में बनाते हैं, जिनमें शयन कक्ष के अंतरंग दृश्य, नायिका द्वारा झरने के नीचे स्नान-दृश्य, आलिंगन और चुंबन के दृश्यों की भरमार होती है। वे कहानी की माँग बताकर अपना पल्ला झाड़ लेना चाहते हैं, परंतु वास्तविकता यह है कि ऐसे दृश्यों का कहानी से कुछ लेना-देना नहीं होता है। आज पूरे परिवार के साथ फिल्म देखना कठिन होता जा रहा है। फिल्मों की नकल करते हुए अब विज्ञापनों में भी यही सब कुछ दिखाया जाता है। ऐसे वासनात्मक दृश्य युवा मन पर गहरा प्रभाव छोड़ते हैं। वे कल्पना की दुनिया की हकीकत में उतारना चाहते हैं, जबकि वास्तविक जीवन में यह सब संभव नहीं है।


वे अभिनेता-अभिनेत्रियों के व्यवहार को अपने जीवन में उतारना चाहते हैं, जिसका परिणाम होता है-समाज में अपमानित होना और कभी जेल जाने तक की स्थिति आ जाना। वासना को बढ़ावा देते ये दृश्य मन की शुचिता को नष्ट करते हैं और युवा मन में यौन कुंठा पैदा करते हैं। उनका व्यवहार मानसिक रोगियों जैसा हो जाता है। वे भारतीय संस्कृति को भूलकर पाश्चात्य देशों के मुक्त यौन संसार में विचरण करना चाहते हैं। ऐसे में जीवन के मानवीय मूल्य बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। नवयुवकों में सिनेमा के कारण ही हिंसात्मक वृत्ति, चोरी की कला, बलात्कार, छेड़छाड़ की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है।


कल्पनालोक में विचरण-सिनेमा के कारण युवावर्ग कल्पना की दुनिया में विचरण करने लगा है। वह अभिनेता-अभिनेत्रियों की तरह अत्यंत शीघ्रता से और अल्प समय में ही अमीर बन जाना चाहता है। वह अपने जीवन साथी संगिनी को उसी तरह से पा लेना चाहता है जैसा कि वह फिल्मों में देखता है। वह जीवन में आने वाली समस्याओं को फिल्मी अंदाज में हल कर लेना चाहता है, जबकि वास्तविकता इससे कोसों दूर होती है। युवाओं की जीवन दृष्टि यह बनती जा रही है कि वे अपने अभिनेताओं जैसा ही राजसी ठाट से भोगवादी जिंदगी जिए, परंतु इसके लिए उसे काम न करना पड़े। उसमें आलस्य और अकर्मण्यता जैसे दुर्गुण भरते जा रहे हैं। इसके विपरीत वह अपने कथन से सच्चा कर्मवादी होने का दावा करता है।


आदशों का उन्नयन-हर सिक्के के दो पहलू की तरह सिनेमा के भी दो पहलू हैं। एक ओर जहाँ सिनेमा ने नवयुवकों पर कुप्रभाव डाला है, वहीं कुछ फिल्मों के माध्यम से आदर्श को बढ़ावा भी दिया है। स्वतंत्रता पूर्व की फिल्मों में आजादी पाने की उत्कट लालसा का संदेश, भारत-पाक युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म ‘हकीकत’ में देशभक्ति एवं देश-प्रेम का संदेश दिया गया है। सिनेमा ने दर्शकों के व्यवहार को भी परिष्कृत किया है। दुर्भाग्य से ऐसी फिल्मों की संख्या ऊँगलियों पर गिनी जा सकती है। फिल्म निर्माताओं को अपना नैतिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व समझते हुए ऐसी फिल्में बननी चाहिए जो नवयुवकों को चारित्रिक दृढ़ता प्रदान करे ताकि वे समाजोपयोगी नागरिक बनें।


36. विज्ञापन की आकर्षक दुनिया


विज्ञापन शब्द ‘वि’ और ‘ज्ञापन’ के योग से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है विशेष रूप से कुछ बताना अर्थात् किसी वस्तु के गुणों का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन का दूसरा नाम विज्ञापन है। विज्ञापन के मूल में किसी वस्तु की बिक्री बढ़ाना और उससे अधिकाधिक लाभ कमाना निहित है। विज्ञापन के माध्यम से आम जनता के बीच किसी वस्तु की ऐसी छवि प्रस्तुत की जाती है, जिससे जनसाधारण उसे खरीदने के लिए लालायित हो उठे। विज्ञापनों के माध्यम से उस वस्तु-विशेष को ही क्यों खरीदा जाए, उसके प्रयोग से आपके व्यक्तित्व में किस प्रकार वृद्ध हो सकती है, आदि के प्रति जिज्ञासा का उत्तर समाहित किया जाता है। इनकी भाषा इतनी आकर्षक, सरल तथा मोहजाल में बाँधने वाली होती है कि जनसाधारण इसमें उलझकर अंतत: फैंस ही जाता है।


वर्तमान समय में भौतिकवाद का बोलबाला है। संपन्न लोग उपभोगवादी होते जा रहे हैं। वे अधिकाधिक वस्तुओं के उपयोग में विश्वास रखते हैं। उन्होंने उपभोगवाद को सुख समझ लिया है। ऐसे लोगों की इस दुखती रग को उत्पादकों ने पहचान लिया है। वे अपने उत्पादों को विज्ञापन की चासनी में डुबोकर लोगों (उपभोक्ताओं) तक पहुँचाते हैं जिससे उपभोगवादी लोगों के मनोमस्तिष्क पर ये विज्ञापन सीधे चोट करते हैं। वे इन वस्तुओं को खरीदना चाहते है, क्योंकि वे उपभोग को ही सुख मानते हैं। ऐसे में विज्ञापन सामयिक आवश्यकता बन चुका है।


आधुनिक जीवन-प्रणाली के लिए उपयोगी वस्तुओं का यह एक सशक्त माध्यम बन चुका है। आज जनसाधारण भी इसकी आवश्यकता महसूस करने लगा है। उत्पादक और बिचौलिए इन्हीं विज्ञापनों के माध्यम से सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते जाते हैं। विज्ञापनों की दुनिया तब से आरंभ होती है, जब मानव आखेटक था। वह आखेट कर जीवनयापन किया करता था। वह गुफाओं की दीवारों, शिलाओं आदि पर उस क्षेत्र में पाए जानवरों के चित्र बनाकर दूसरों को यह बताने की कोशिश करता था कि यहाँ अमुक जानवर पाए जाते हैं। इससे उसे शिकार करने तथा अपनी रक्षा के लिए निर्देश मिल जाया करता था। पढ़ना-लिखना सीखने के बाद मनुष्य ने इस क्षेत्र में विशेष उन्नति की।


मौर्य सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए शिलाओं पर बौद्ध धर्म की शिक्षाओं को उत्कीर्ण करा कर विज्ञापन का उत्कृष्ट रूप प्रस्तुत किया। यह काम उसने किसी स्थान विशेष पर ही नहीं, बल्कि पूरे देश में कराया ताकि बौद्धधर्म का प्रचार-प्रसार हो सके। इतिहास में इस बात के भी प्रमाण मिलते हैं कि व्यावसायिक विज्ञापन भी मंदिरों की दीवारों पर, शिलाओं पर या ऐसे ही सार्वजनिक स्थलों पर उत्कीर्ण कर किए जाते थे। कागज और छापेखाने के आविष्कार ने इस कला को पंख लगा दिए। समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ, पुस्तकें आदि में या उनके मुखपृष्ठ और अंतिम पृष्ठ किसी-न-किसी वस्तु का विज्ञापन करते दिखते हैं। उत्पादकों ने वस्तुओं के विज्ञापन के लिए इसे ही अपना अंत बिंदु नहीं समझा। उन्होंने इससे भी आगे बढ़कर दीवारों, बसों, यातायात के अन्य साधनों, पोस्टरों पर भी उत्पादित वस्तुओं का विवरण छपवाया।


कंप्यूटर के आविष्कार और उनके प्रयोग ने विज्ञापन की दुनिया को और भी आकर्षक और रंगीन बना दिया है। विज्ञापन जितना ही बड़ा और आकर्षक होता है वह उतना ही व्यय साध्य होता है। अब तो रेडियो, दूरदर्शन विज्ञापन के सशक्त और आकर्षक साधन बन गए हैं जो आम जनता तक हजारों वस्तुओं का विज्ञापन कर रहे हैं। यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है कि लिखित वस्तुओं के विज्ञापन को जानने-समझने के लिए पढ़ा-लिखा होना आवश्यक है, परंतु दृश्य-श्रव्य उपकरणों द्वारा प्रस्तुत विज्ञापनों के लिए पढ़ा-लिखा होना भी आवश्यक नहीं है। व्यावसायिक सफलता में विज्ञापनों का महत्वपूर्ण योगदान होता है।


साधारण और कम गुणवत्ता वाली वस्तु भी जनसाधारण के मस्तिष्क में अत्यंत आसानी से पैठ बना लेती है, क्योंकि विज्ञापन उन्हें लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचा देता है। विज्ञापन में वस्तुओं के गुणों को बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है, जबकि उसकी कमियों को ढँक दिया जाता है, इसलिए विज्ञापन पर आँख मूँदकर भरोसा करना हानिकर हो सकता है। इसके बाद भी विज्ञापन आज स्वयं व्यवसाय का रूप ले चुका है, जिसमें सैकड़ों एजेंसियाँ और हजारों लोग कार्यरत हैं। विज्ञापन बनाना भी एक कला है जिसमें कम-से-कम शब्दों के माध्यम में गागर मे सागर भरने का प्रयास किया जाता है, जिससे जनमानस प्रभावित हुए बिना न रह सके। विज्ञापन प्रचार तंत्र का अनिवार्य अंग बन चुका है। वस्तुओं की बिक्री में विज्ञापन अत्यंत लाभदायी और उपयोगी हैं।


विज्ञापन का प्रभाव वस्तुओं की बिक्री पर शीघ्र दिखाई देने लगता है। ये विज्ञापन उपभोक्ताओं को वस्तुओं के चयन, तुलनात्मक मूल्य, गुणवत्ता का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हैं, जिससे उपभोक्ताओ में जागरूकता बढ़ती है। आजकल विज्ञापनों का प्रयोग वस्तुओं की खरीद के अलावा नौकरी खोजने, शादी योग्य वर या कन्या हेतु उपयुक्त जीवन साथी खोजने, सार्वजनिक कार्यक्रमों की सूचना पाने, सरकारी कार्यक्रमों एवं योजनाओं की जानकारी लेने-देने आदि में किया जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि विज्ञापन बहुपयोगी है, परंतु इस पर आँख बंदकर भरोसा नहीं करना चाहिए। कुछ कंपनियों द्वारा इसका गलत उपयोग भोले-भाले लोगों और युवाओं को ठगने के लिए किया जाने लगा है। आज विज्ञापन का युग है और इसकी महत्ता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।

37. विद्यार्थी और अनुशासन

अथवा

विद्यार्थी जीवन में अनुशासन की आवश्यकता

प्राचीन काल में मानव-जीवन को चार भागों में विभाजित किया जाता था। इन्हें क्रमश: ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास नामों से जाना जाता था। इनमें ब्रहमचर्य को ही आज विद्यार्थी-जीवन का नाम दिया गया है। यह जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काल है। इस काल में सीखी गई बातों पर ही पूरा जीवन निर्भर करता है। जीवन को सुंदर और असुंदर बनाने में इस काल का सर्वाधिक महत्व है। जिस प्रकार किसी प्रासाद की मजबूती और स्थिरता उसकी नींव या आधारशिला की मजबूती पर निर्भर करती है, छोटे पौधों का विशालकाय आकार उनके शैशवकाल में संरक्षण और देखभाल पर निर्भर करता है, उसी प्रकार व्यक्ति के जीवन की सुख-शांति, आचार-विचार और व्यवहार उसके विद्यार्थी-जीवन पर निर्भर करता है। यूँ तो जीवन में कदम-कदम पर अनुशासन की आवश्यकता होती है, परंतु जीवन का निर्माण काल कहलाने वाले विद्यार्थी-जीवन में इसकी जरूरत और उपयोगिता और भी बढ़ जाती है।


विद्यार्थी-जीवन में बालक का मस्तिष्क गीली एवं कच्ची मिट्टी के समान होता है, जिसे मनचाहा आकार प्रदानकर भाँति-भाँति के खिलौने और मूर्तियाँ बनाई जा सकती हैं। उसी मिट्टी के सूख जाने और पका लिए जाने पर उसे और कोई नया आकार नहीं दिया जा सकता। इसी प्रकार यह काल नवीन वृक्ष की उस नवीन और लोचदार टहनी के समान है, जिसे मनचाही दिशा में मोड़ा जा सकता है और सदा-सदा के लिए मनचाहे आकार में ढाला जा सकता है।


कालांतर में वही कोमल डालियाँ इतनी कड़ी एवं कठोर हो जाती हैं कि उन्हें मोड़ना इतना कठिन हो जाता है कि वे मुड़ने के बजाय टूट जाती हैं। ऐसा ही होता है विद्यार्थी-जीवन। इस काल में सच्चरित्रता, सदाचारिता और अनुशासन का सीखा पाठ जीवन भर के लिए योग्य नागरिक बना देता है। इस काल में बालक यदि गलत आचरण करना सीख जाता है तो वह परिवार और समाज के लिए मुश्किलें खड़ी कर देता है। इस काल में अनुशासन का भरपूर पालन करना चाहिए ताकि हर विद्यार्थी समाजोपयोगी नागरिक बनकर समाज और राष्ट्र के उत्थान में अपना योगदान दे सके।


प्राचीन काल में विद्यार्थी-जीवन ऋषियों-मुनियों के आश्रमों में शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करने में बीत जाता था। तब विद्यार्थी अनुशासित जीवन जीते हुए विद्यार्जन करते थे। तब अनुशासन की समस्या थी ही नहीं, परंतु वर्तमान काल में विद्यार्थियों की अनुशासनहीनता अपने चरम पर है। उनकी इस अनुशासनहीनता से केवल अध्यापकगण और विद्यालय-प्रशासन ही नहीं परेशान हैं, वरन घर-बाजार यहाँ तक कि सड़कों पर भी उनकी अनुशासनहीनता और उद्दंडता देखी जा सकती है। आज का विद्यार्थी अपने अध्यापकों के अलावा अपने माता-पिता और अभिभावकों की अवज्ञा करता है, उनके सदुपदेशों का निरादर करता है, इ: पिचले से पोजकता है अतिराते पिरचता हैऔ माता-पिता तथा अध्यापकों के ला सिद सिद्ध होता है।


अनुशासनहीनता के मूल कारणों पर यदि विचार करें तो ज्ञात होता है कि इसका मुख्य कारण माता-पिता की ढिलाई और उसकी शरारतों को अनदेखा किया जाना है। माता-पिता के संस्कार भी इसके लिए किसी सीमा तक उत्तरदायी होते हैं। माँ-बाप लाड़-प्यार के कारण बच्चे की शरारतों को अनदेखा करते हैं और उसका पक्ष लेते हैं। बच्चा आचरण का पहला पाठ घर से ही सीखता है। यदि इस पहली पाठशाला में ही उसे सही शिक्षा और अनुशासन का पाठ न पढ़ाया गया तो स्कूल और कॉलेज में उससे अनुशासनप्रिय बनने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। यदि पास-पड़ोस के लोग और अध्यापक बच्चे की अनुशासनहीनता की शिकायत करते हैं तो अपने बच्चे का पक्ष लेते हुए माता-पिता विद्यालय और सरकारी तंत्र पर इसका दोषारोपण करने से नहीं चूकते हैं। इससे अनुशासनहीन छात्रों का मनोबल और भी बढ़ जाता है। अनुशासनहीनता बढ़ाने में वर्तमान शिक्षा-प्रणाली भी कम उत्तरदायी नहीं है।


छात्रों को रट्टू तोता बनाने वाली शिक्षा से व्यावहारिक ज्ञान नहीं हो पाता है। इसके अलावा पाठ्यक्रम में नैतिक एवं चारित्रिक शिक्षा को कोई स्थान नहीं दिया गया है। आठवीं तक किसी छात्र को फेल न करने की सरकारी नीति ने कोढ़ में खाज का काम किया है। अब बच्चों में न फेल होने का भय रहा और न शारीरिक दंड का। सालभर में दो-चार दिन भी विद्यालय आने वाले छात्र को अगली कक्षा में उत्तीर्ण करना अध्यापकों की मजबूरी बन गई है। ऐसे उन्मुक्त ।


वातावरण में छात्र का मन क्यों पढ़ने को करे। कहा गया है-‘खाली दिमाग शैतान का घरा’ पढ़ाई से विमुख छात्र अपने मनोमस्तिष्क को कहीं-न-कहीं तो लगाएँगे। ऐसे में उनकी अनुशासनहीनता बढ़ती ही जाती है। आजकल तो स्थिति यह बन गई है कि छात्रों को अपनी पाठ्यपुस्तकों के नाम भले न पता हों, पर वे ‘शिक्षा का अधिकार कानून’ की कुछ बातें और अध्यापकों द्वारा डाँटने-फटकारने को कानून-विरुद्ध होना जरूर जानने लगे हैं। यदि अध्यापक ने गृहकार्य न करने, पुस्तकें न लाने और नकल रोकने के क्रम में छात्र को एकाध थप्पड़ मार दिया तो छात्र के माता-पिता अपने आस-पास के दस-बीस लोगों को लेकर विद्यालय पहुँचन जाते हैं और अध्यापकों के साथ गाली-गलौच, मार-पीट करने की हद तक उतर आते हैं। अब तो स्थानीय नेना भी अभिभावकों का साथ देने के लिए विद्यालय आ जाते हैं।


मीडिया की कार्य-प्रणाली देखकर यही लगता है, मानो उन्हें इसी अवसर की प्रतीक्षा रहती हो। विद्यालयों में सुविधाओं की कमी और कुप्रबंधन भी छात्रों की अनुशासनहीनता बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुई है। विद्यालयों में छोटे-छोटे वर्गकक्ष, टूटी-फूटी दीवारें, घिसे-पिटे श्यामपट्ट, निर्धारित संख्या से कई गुना अधिक बैठे छात्र, अध्यापकों की कमी, उनकी अरुचिकर शिक्षण-विधि, खेल-कूद की सुविधाओं का घोर अभाव, पाठ्यक्रम की अनुपयोगिता, शिक्षा का रोजगारपरक न होना, उच्च शिक्षा पाकर भी रोजगार और नौकरी की अनिश्चयभरी स्थिति छात्रों के मन में शिक्षा के प्रति अरुचि उत्पन्न करती है।


छात्रों की मनोदशा का अनुचित फायदा राजनैतिक तत्व उठाते हैं। वे छात्रों को भड़काकर स्कूल-कॉलेज बंद करवाने तथा उनका बहिष्कार करने के लिए प्रेरित करते हैं। इससे छात्रों में अनुशासनहीनता बढ़ती है। विद्यार्थियों में अनुशासन की भावना उत्पन्न करने के लिए माता-पिता, विद्यालय-प्रशासन और सरकारी तंत्र तीनों को ही अपनी-अपनी भूमिका का उचित निर्वहन करना होगा। इसके लिए माता-पिता को जीवन की पहली पाठशाला से ही बच्चे में अनुशासन की भावना उत्पन्नकर उसे पुष्पित-पल्लवित करने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए माता-पिता को अपनी भागम-भाग भरी दिनचर्या से कुछ समय निकालकर बच्चे को अनुशासन का पाठ पढ़ाया होगा।


छात्रों में अनुशासनहीनता रोकने के लिए विद्यालयों और अध्यापकों को अपनी भूमिका का उचित निर्वाह करना होगा। अध्यापकों को चाहिए कि वे अध्ययन-अध्यापन पर पूरा ध्यान दें, छात्रों को गृहकार्य दें, उनकी नियमित जाँच करें, जिससे छात्रों को खाली बैठकर शैतानी करने का अवसर न मिले। इसके अलावा पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा और चारित्रिक शिक्षा को अवश्य शामिल किया जाना चाहिए। प्रतिदिन प्रार्थना-सभा में नैतिक शिक्षा देने के अलावा इसे पाठ्यक्रम का अंग बनाना चाहिए। विद्यालयों में छात्रों के लिए इतनी सुविधाएँ बढ़ानी चाहिए कि विद्यालय और वर्गकक्ष में उनका मन लगे। इसके अलावा छात्रों के माता-पिता का अप्रत्यक्ष रूप में वोट लेने के लिए ऐसी नीतियाँ नहीं बनानी चाहिए, जिसका दुष्प्रभाव सीधे छात्रों के भविष्य पर पड़े।


आखिर ऐसी क्या कमी है जो शैक्षिक नीतियाँ बनाने वाले नेता और अधिकारीगण उन्हीं स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ने के लिए नहीं भेजते हैं, जिनके लिए वे नीतियाँ बनाते हैं। आज शिक्षा-प्रणाली और शिक्षा-व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाने की आवश्यकता है। शिक्षा को रोजगारोन्मुख बनाने तथा कल के भविष्य को नैतिक सीख देकर अनुशासनहीनता की बढ़ती समस्या पर अंकुश लगाया जा सकता है।

38. आदर्श विद्यार्थी


विद्यार्थी शब्द दो शब्दों ‘विद्या’ और ‘अर्थी’ के मेल से बना है। इसका शाब्दिक अर्थ है-विद्या को चाहने वाला अर्थात् ज्ञान-प्राप्ति में रुचि रखने वाला। आदर्श विद्यार्थी वह होता है जो आलस्य और अन्य व्यसनों से दूर रहकर विद्यार्जन में अपना मन लगाए। वह अधिकाधिक ज्ञानार्जन को ही अपना लक्ष्य बनाए और उसकी प्राप्ति के लिए सतत प्रयासरत रहे। आदर्श विद्यार्थी का नाम लेते ही हमारे मस्तिष्क में ऐसे छात्र की छवि उभरती है जो विद्यार्जन को सर्वोच्च लक्ष्य मानता है। वह समय से शैय्या त्यागकर दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर नाश्ता आदि करता है, विद्यालय समय से पहुँचता है, विद्यालय के नियमों का पालन करता है, अध्यपाकों को प्रणाम करता है, उनका कहना मानता है, पाठ दोहराता है तथा पढ़ाई में मन लगाता है।


आदर्श विद्यार्थी सदाचार के पथ पर चलते हुए विद्यार्जन के लिए कठिन साधना करता है। इसके लिए वह आलस्य त्यागकर कठोर परिश्रम करता है। परिश्रम के मार्ग पर अनुगमन करता हुआ आदर्श विद्यार्थी अपने सुखों का त्यागकर देता है। विद्यार्थी और सुख में धनात्मक सहसंबंध होने पर विद्यार्जन में बाधा आती है और वह अपने लक्ष्य से भटक जाता है। कहा भी गया है-


सुखार्थिनः कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतो सुखम्

विद्यार्थी वा त्यजेत विद्यां वा त्यजेत सुखम्।


अर्थात् सुख चाहने वाले को विद्या कहाँ और विद्यार्थी को सुख कहाँ विद्यार्थी या तो विद्या को त्याग दे या सुख को त्याग दे। आदर्श विद्यार्थी के लक्षण बताते हुए संस्कृत में ही कहा गया है-


काक चेष्टा बकोध्यानम् श्वान निद्रा तथैव च,

अल्पाहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पंचलक्षणम्।


अर्थात् एक आदर्श विद्यार्थी में अपने लक्ष्य को पाने के प्रति कौए जैसी चेष्टा हो, बगुले जैसा ध्यान लगाने की दक्षता हो और उसकी नींद कुत्ते जैसी हो। अर्थात् तनिक-सी आहट मिलते ही नींद खुलने वाली हो। वह अल्प भोजन करने वाला तथा घर-परिवार के शोरगुलमय वातावरण से दूर रहकर विद्यार्जन करने वाला हो। इसे हम संक्षेप में कह सकते हैं कि विद्यार्थी का जीवन सुख-सुविधा से दूर रहकर तपस्वियों जैसा जीवन बिताने वाला लक्ष्य के प्रति समर्पित होना चाहिए।


आदर्श विद्यार्थी का फैशन और बनाव-श्रृंगार से कुछ लेना-देना नहीं होता है। वह कपड़ों का प्रयोग तन ढकने के लिए करना है, दूसरों को दिखाने या सुंदर लगने के लिए नहीं। उसके कपड़े साफ़-सुथरे होते हैं। इन साधारण से कपड़ों में वह उच्च-विचारों को अपनाकर ‘सादा जीवन उच्च विचार’ की कहावत चरितार्थ करता है। एक आदर्श विद्यार्थी अपने स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहता है। वह जानता है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है। स्वस्थ तन और मन के बिना वह दत्तचित्त होकर विद्यार्जन नहीं कर सकता है। इसके लिए वह स्वस्थ दिनचर्या का पालन करता है और ब्रहममुहूर्त में ही शैय्या त्याग देता है।


दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर वह किसी बगीचे, पार्क या खुले मैदान में भ्रमण के लिए जाता है। वहाँ भ्रमण और व्यायाम करता है। वह अपनी रुचि के अनुरूप योग भी करता है। प्रात:काल की शीतल वायु उसे नवस्फूर्ति से भर देती है। इससे उसका स्वास्थ्य उत्तम बनता है तथा पढ़ाई-लिखाई में मन अधिकाधिक लगता है। आदर्श विद्यार्थी का व्यवहार अनुकरणीय होता है। वह विद्यालय में अपना पाठ समाप्त कर कमजोर सहपाठियों की मदद करता है। वह सहपाठियों से मित्रवत व्यवहार करता है तथा उनसे लड़ाई-झगड़ा नहीं करता है। वह अपने व्यवहार से सभी विद्यार्थियों का प्रिय बन जाता है।


वह खेल के मैदान में भी अपनी अच्छी आदतों का परिचय देता है। वह खेल में हार को भी उसी प्रकार लेता है, जैसे जीत को। वह बेईमानीपूर्वक जीतना पसंद नहीं करता है। वह खेल-भावना का परिचय देता हुआ अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करता है। पुस्तकालय में वह शांतिपूर्वक पढ़ता है तथा पुस्तकालय के नियमों का पालन करता है। वह पुस्तकों के पृष्ठों को न फाड़ता है और न मोड़ता है। वह पुस्तकालय की पुस्तकें समय पर वापस करना अपना कर्तव्य समझता है। वह अपने सहपाठियों की मदद के लिए तैयार रहता है। इसके लिए वह अपने जेबखर्च को भी दूसरों की भलाई के लिए खर्च कर देता है। वह कमजोर छात्रों को अपनी पुस्तकें और कॉपियाँ देकर उन्हें पढ़ाई के लिए प्रेरित करता है।


विद्यालय में सहपाठियों के प्रति अपने कर्तव्य के निर्वहन की भाँति ही आदर्श विद्यार्थी समाज के प्रति भी अपने कर्तव्य को भली प्रकार समझता है। वह सामाजिक नियमों का पालन करते हुए एक सभ्य नागरिक होने का प्रमाण देता है। वह स्वयं ों से दूर रहकर अनुशासित जीवन बिताता है। वह किसी के साथ असभ्यता से पेश नहीं आता है। वह समाजसेवा लेता है। वह बड़ों को सम्मान और छोटों को स्नेह देता है। वह वृद्धजनों और महिलाओं की मदद करता है। वह -दुखियों और उपेक्षितों के प्रति सदयता से व्यवहार करके एक सच्चे नागरिक का कर्तव्य निभाता है। वह अपनी विनम्रता सभी का दिल जीत लेता है। वह अपनी विद्या या ज्ञान पर अभिमान किए बिना विनम्र बना रहता है।


वह ईष्या-द्वेष, क्रोध-लोभ आदि दुर्गुणों से दूर रहता है तथा नशाखोरी, मद्यपान जैसी बुराइयों से दूरी बनाकर रहता है। आदर्श विद्यार्थी अपने सामाजिक कर्तव्यों का बखूबी निर्वाह करता है। वह सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़कर भाग लेता है। निरक्षरता, मद्यपान के विरुद्ध चलाए गए अभियानों में बढ़-चढ़कर भाग लेता है। वह स्वच्छता अभियान, वृक्षारोपण, पल्स पोलियो जैसे सामाजिक सुरक्षा के अभिमानों को भी सफल बनाने का प्रयास करता है। इसी प्रकार वह देश के प्रति अगाध सम्मान रखते हुए उसकी रक्षा करते हुए सब कुछ न्योछावर करने की भावना रखता है।


आदर्श विद्यार्थी केवल किताबी कीड़ा ही नहीं होता है, वह अपने सर्वागीण विकास के लिए पुस्तकीय ज्ञान को ही पर्याप्त नहीं मानता है। इसके लिए वह समाचार-पत्र, विभिन्न प्रकार की पत्रिकाओं आदि का नियमित अध्ययन करता है और अपने बड़ों की बातें सुनकर उनका पालन करता है। एक आदर्श विद्यार्थी का जीवन फूलों की शैय्या नहीं है। उसे तरह-तरह के कष्ट सहते हुए योगियों-तपस्वियों जैसा जीवन जीते हुए अनुकरणीय जीवन जीना होता है। इन गुणों से युक्त होने पर कोई छात्र आदर्श विद्यार्थी की संज्ञा से विभूषित करने योग्य बन पाता है। सभी छात्रों को आदर्श विद्यार्थी बनने का यथासंभव प्रयास करना चाहिए।





39. प्रदूषण-नियंत्रण में मनुष्य का योगदान

अथवा

प्रदूषण-नियंत्रण में हमारी भूमिका


मनुष्य और प्रकृति का साथ अनादि काल से रहा है। प्रकृति की गोद में ही पल बढ़कर वह बड़ा हुआ है। आदि काल में मनुष्य का जीवन पशुओं जैसा था। उसने विकास की सीढ़ियों पर कदम भी नहीं बढ़ाए थे। उसकी आवश्यकताएँ बहुत ही सीमित थीं। किसी-न-किसी तरह से वह अपना पेट भरने और तन ढकने का इंतजाम कर ही लेता था और गुफाओं-कंदराओं में रात्रि बिता लेता था। उस समय वह प्रकृति के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता था। इससे उसका पर्यावरण शुद्ध और जीवन के अनुकूल था, पर ज्यों-ज्यों मनुष्य ने सभ्यता की ओर कदम बढ़ाए, उसकी आवश्यकताएँ बढ़ती ही गई। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसने प्रकृति के साथ छेड़छाड़ की और प्रकृति का भरपूर दोहन किया। इससे हमारा पर्यावरण दूषित हो गया और वर्तमान में यह एक सीमा को पार कर गया है। अब पर्यावरण प्रदूषण के नियंत्रण का उपाय सोचने और करने के लिए मनुष्य विवश हो गया है।


मनुष्य और पृथ्वी के अन्य जीवों का जीवन उसके पर्यावरण पर निर्भर करता है। जीवधारी अपने पर्यावरण में ही पलते-बढ़ते हैं। जीवन और पर्यावरण का संबंध इतना निकट का है कि दोनों का सहअस्तित्व अत्यावश्यक है। ऐसे में शुद्ध पर्यावरण जीवन की सबसे पहली आवश्यकता बन गई है। सजीवों के चारों ओर प्रकृति और उसके अंगों का जो घेरा व्याप्त है, वही उनका पर्यावरण है। हमारे चारों ओर की जैव और अजैव वस्तुएँ हमारे पर्यावरण की रचना करती हैं। इन वस्तुओं में भूमि, पेड़-पौधे, जंगल, पर्वत, नदियाँ, सागर, मरुस्थल, घास-फूस, रंग-बिरंगे फूल, पौधे, मन को हर लेने वाले पक्षी, झील, सरोवर आदि प्रमुख हैं।


हमारे चारों ओर लहराते हरे-भरे पेड़, जल से भरी नदियाँ और तालाब, जल बरसाने वाले बादल पर्यावरण को संतुलित रूप प्रदान करते हैं, जिनसे जीवधारियों को जीवन-योग्य परिस्थितियाँ मिलती हैं। दुर्भाग्य जीवधारियों में श्रेष्ठ और विवेकशील कहलाने वाला मनुष्य ही इस पर्यावरण का दुश्मन बन बैठा है और जाने-अनजाने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने को तैयार है। वह अपने स्वार्थ और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध और अविवेकपूर्ण दोहन करता जा रहा है। प्रकृति ने जीवों का जीवन सुखद और मनोरम बनाने के लिए जो वरदान दिए थे, वह उनका दुरुपयोग करने पर तुला है। इससे प्राकृतिक असंतुलन का खतरा पैदा हो गया है और प्रकृति-तंत्र बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। असमयवृष्टि, सूखा, भू-स्खलन, चक्रवात, समुद्री तूफान, बाढ़ आदि इस बिगड़े प्राकृतिक तंत्र के कुछ दुष्परिणाम हैं जो जान-माल को भारी क्षति पहुँचा रहे हैं।


वायुमंडल में बढ़ती कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य जहरीली गैसों से वैश्विक तापमान बढ़ता जा रहा है, जिससे पहाड़ों और ध्रुवों पर जमी बर्फ़ के पिघलने का खतरा उत्पन्न हो गया है। यदि ऐसा हुआ तो पृथ्वी और समुद्र में हर ओर जल-ही-जल होगा, जिसमें सब कुछ डूबा हुआ नजर आएगा और पृथ्वी पर जीवों का नमोनिशान भी शेष न रहेगा। पर्यावरण प्रदूषण के कारणों में प्रमुख है-वृक्षों की अंधाधुंध कटाई और उनके स्थान पर नए वृक्षों का रोपण न किया जाना। विश्व की जनसंख्या में अंधाधुंध वृद्ध हो रही है। एक ओर विश्व की जनसंख्या 6 अरब से ऊपर पहुँच चुकी है तो दूसरी ओर हमारे देश की जनसंख्या की सवा एक अरब को पार करने वाली है। इतनी अधिक जनसंख्या के लिए भोजन और आवास की समस्या को दूर करने के लिए वनों की कटाई की गई।


खेती करने के लिए जंगलों का सफाया किया गया। कल तक जहाँ हरे-भरे खेत और वन लहराते थे, वहाँ अब कंकरीट के जंगल खड़े कर दिए गए हैं। इस जनसंख्या की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कल-कारखाने लगाए गए, सड़कें और रेल की पटरियाँ बिछाई गई। इन सभी कार्यों के लिए जमीन चाहिए थी, जिसके लिए वनों को काटा गया। इससे प्राकृतिक संतुलन डगमगाने लगा। प्राणवायु ऑक्सीजन देने वाले वृक्षों के कटने से वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड गैस का बढ़ना तय हो गया। इसके अलावा जलविद्युत परियोजना तथा सिंचाई के लिए नहरें निकालने हेतु नदियों पर बाँध बनाए गए जो अप्रत्यक्ष रूप में पर्यावरण-प्रदूषण बढ़ाने का काम करते हैं।


खेती में अधिकाधिक उपज पाने के लिए रासायनिक उर्वरकों और रसायनों का जमकर प्रयोग किया गया, जिससे ये रासायनिक पदार्थ बहकर जलस्रोतों में जा मिले और जल-प्रदूषण को बढ़ाया। इससे मछलियाँ और अन्य जलचर असमय कालकवलित होने लगे। उधर पेड़ों और वनों के निरंतर सफ़ाए के कारण वन्य जीवों की अनेक प्रजातियाँ विलुप्त होने की कगार पर पहुँच गई। ये वन्य जीव प्रकृति को साफ़-सुथरा बनाने में मदद करते थे, पर इनकी घटती संख्या से पर्यावरण प्रदूषित हुआ।


एक ओर मनुष्य अपनी बढ़ती आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कल-कारखाने लगाता जा रहा था, जिनसे निकलने वाला जहरीला धुआँ वायु को प्रदूषित कर रहा था तो दूसरी ओर इनसे निकला रासायनिक तत्वयुक्त जहरीला पानी जल-स्रोतों को दूषित कर रहा था। मनुष्य ने वैज्ञानिक सुविधाओं का खूब लाभ उठाया और उसने मोटर-गाड़ियों का भारी संख्या में निर्माण किया। इन वाहनों के लिए पेट्रोल और डीजल का भरपूर दोहन किया गया। इनसे निकला धुआँ वायु प्रदूषण को बढ़ावा दे रहा है तो इनका शोर ध्वनि प्रदूषण फैला रहा है। इससे साँस संबंधी बीमारियाँ बढ़ रही हैं और शोर के कारण मनुष्य बहरा हो रहा है। इन सबसे हमारा पर्यावरण बुरी तरह प्रदूषित हो रहा है। यदि यह प्रदूषण इसी तरह बढ़ता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब यह नीला ग्रह भी प्राणियों के रहने योग्य नहीं रह जाएगा और जीवन का नामोंनिशान भी शेष नहीं रह जाएगा। ऐसे में पर्यावरण प्रदूषण रोकने की तुरंत आवश्यकता है।


पर्यावरण प्रदूषण रोकने के लिए जनआंदोलन की जरूरत है। यह समस्या किसी व्यक्ति विशेष के रोकने से नहीं रुकने वाली। इसके लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है, जिसमें सरकार और जनसाधारण को मिल-जुलकर प्रयास करना चाहिए। सरकार को चाहिए कि वह कल-कारखानों की चिमनियाँ ऊँची करने का आदेश दे ताकि इनका जहरीला धुआँ हमारे पर्यावरण से ऊपर उठकर वायुमंडल में चला जाए। इन कारखानों का दूषित पानी बिना शोधित किए जल-स्रोतों में नहीं मिलने देना चाहिए। इसके अलावा वर्षा का जल-संरक्षण करने के लिए कानून बनाएँ ताकि हर व्यक्ति इसका पालन करे और भौमिक जलस्तर ऊँचा उठ सके। नदियों और अन्य जल-स्रोतों को दूषित करने वालों के साथ सरकार सख्ती से बर्ताव करे।


जन साधारण को चाहिए कि वे अपने आस-पास की खाली जमीन पर अधिकाधिक पेड़-पौधे लगाकर उनकी देखभाल करें ताकि वे वृक्ष बन सकें। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई करके अपनी स्वार्थपूर्ति की आदत का परित्याग करना चाहिए। पेड़ों की सूखी पत्तियाँ जलाने के बजाय उनकी खाद बनानी चाहिए। खेती में रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों का प्रयोग कम करके जैविक कृषि को बढ़ावा देना चाहिए। वाहनों में डीजल की जगह सी०एन०जी० का प्रयोग करना चाहिए। नदियों के किनारे खेती करने बस्तियाँ बसाने, नए कल-कारखाने लगाने पर तत्काल रोक लगानी चाहिए। पर्यावरण प्रदूषण रोकने तथा पृथ्वी पर जीवन बनाए रखने के लिए यह कदम आज ही उठा लेना चाहिए, क्योंकि कल तक बहुत देर हो चुकी होगी।


40. जनसंख्या में स्त्रियों का घटता अनुपात

अथवा

स्त्रियों की घटती संख्या और बढ़ता सामाजिक असंतुलन

स्त्री और पुरुष जीवन रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं। जिस प्रकार किसी भी गाड़ी को सुचारु रूप से गतिमान रहने के लिए दो पहियों की जरूरत ही नहीं होती बल्कि दोनों पहिए समान गुण और आकार वाले होने चाहिए, उसी प्रकार सामाजिक जीवन की गाड़ी को सुचारु रूप से गतिशील बनाए रखने के लिए स्त्री-पुरुष दोनों की संख्या में समानता होने के अलावा उनके गुणों में भी एकरूपता होनी चाहिए। दुर्भाग्य से भारतीय जनसंख्या में स्त्रियों का अनुपात घटा है। इसका प्रमाण हमें समय-समय पर की गई जनगणनाओं से मिलता है।


स्त्रियों की संख्या में कमी भारत के एक-दो राज्यों को छोड़कर प्रत्येक राज्य में देखी जा सकती है। इससे सामाजिक असंतुलन का खतरा उत्पन्न हो गया है जो किसी भी दृष्टि से शुभ संकेत नहीं है। यदि इस पर ध्यान न दिया गया तो यह असंतुलन बढ़ता ही जाएगा। हमारे देश में प्रत्येक दस वर्ष बाद जनगणना की जाती है। इससे स्त्रियों और पुरुषों की जनसंख्या का पता चल जाता है। विगत दशकों में हुई जनगणना पर ध्यान दें तो यह निष्कर्ष निकलकर सामने आता है कि स्त्रियों की संख्या और उनकी जनसंख्या के अनुपात में निरंतर गिरावट आई है। हरियाणा और पंजाब जैसे शिक्षित और संपन्न राज्यों में स्त्रियों की जनसंख्या प्रति हजार पुरुषों की तुलना में 850 से कम हो चुकी है। यहाँ एक बात और ध्यान देने वाली है कि जो राज्य जितने ही शिक्षित और संपन्न हैं, वहाँ स्त्रियों की संख्या का अनुपात उतना ही कम है। केरल इसका अपवाद है।


पिछड़ा कहे जाने वाले पूर्वोत्तर राज्यों में स्त्रियों की जनसंख्या का अनुपात संपन्न राज्यों से काफी बेहतर है। कुछ शिक्षित और संपन्न राज्यों में विवाह योग्य लड़कों को लड़कियाँ मिलने में काफी परेशानी आ रही है। इन लड़कों के सामने अब यह समस्या उत्पन्न हो गई है कि उनके अविवाहित रहने की स्थिति बन गई है। इससे उनके माता-पिता अब अपने पुत्रों के लिए बहू लाने के लिए अन्य राज्यों की ओर जाने के लिए विवश हुए हैं। समाज में स्त्रियों का घटता अनुपात एक सामाजिक समस्या है। इस समस्या के प्रति कुछ मनीषी, सामाजिक कार्यकर्ता और सरकार के कुछ अधिकारी-कर्मचारी ही परेशान थे, परंतु अपने पुत्रों के अविवाहित रह जाने की आशंका और अपना वंश डूबने । के भय ने लोगों को इस समस्या का हल खोजने के लिए विवश कर दिया है। वे इसके कारणों पर विचार करने के लिए विवश हुए हैं।


भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही पुत्रों को अधिक महत्व दिया गया है। माता-पिता की सोच रही है कि पुत्र के पिंडदान किए बिना उन्हें स्वर्ग नहीं प्राप्त होगा। जब तक महँगाई कम थी, तब तक लोग अधिक बच्चों का पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा का बोझ आसानी से वहन कर लेते थे, परंतु वर्तमान में बढ़ती महँगाई ने परिवार को एक या दो बच्चों तक सीमित रहने पर विवश कर दिया है। लोग यह चाहने लगे हैं कि संतान के रूप में लड़का ही पैदा हो। इसके लिए वे नाना प्रकार की युक्तियाँ अपनाते हैं। इसके लिए ओझा और तांत्रिकों की मदद लेने वाले मनुष्य ने अब वैज्ञानिक उपकरणों का सहारा लेकर गर्भ में ही लिंग-परीक्षण करवाना शुरू कर दिया।


अल्ट्रासाउंड के माध्यम से कराए गए इस लिंग-परीक्षण में मनोनुकूल परिणाम न पाकर वह गर्भपात करवा देता है। दुर्भाग्य से इस पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियाँ भी इस घृणित काम में पुरुषों का साथ देने पर विवश हैं। वे महिला होकर भी कन्याभ्रूण हत्या में पुरुषों का साथ देती नजर आती हैं। इससे दंपती को कन्याभ्रूण से छुटकारा तो मिल जाता है, पर वे इस बात से अनभिज्ञ होते हैं कि आने वाली पीढ़ी को उनके इस कुकृत्य का कितना नुकसान उठाना होगा। वे भूल जाते हैं कि आखिर उनके लाडलों के विवाह के लिए लड़कियाँ कहाँ से आएँगी? उनके इसी कृत्य का दुष्परिणाम है-महिलाओं की जनसंख्या का निरंतर गिरना। इस समस्या का एक अन्य प्रमुख कारण है-समाज की पुरुषप्रधान मानसिकता। इस सोच के कारण समाज में लड़के-लड़कियों के पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा और पुष्पित-पल्लवित होने के अवसर देने में दोहरा मापदंड अपनाया जाता है।


माता-पिता प्राय: कन्याओं के जन्म के बाद से ही पालन-पोषण, देख-भाल, इलाज आदि में लापरवाही बरतते हैं, जिससे जन्म के बाद कन्या शिशुओं की मृत्यु हो जाती है या उनका स्वास्थ्य उत्तम नहीं हो पाता है। समाज में लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई तथा उच्च शिक्षा को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता है, इसलिए उन्हें घर से बाहर नहीं जाने दिया जाता है। लड़कियों को समाज में बोझ माना जाता है। इसका कारण है-उनके विवाह के समय दहेज की व्यवस्था करना, जबकि लड़कों को हर तरह की छूट एवं आजादी दी जाती है।


अल्पायु में लड़कियों के स्वास्थ्य एवं विकास पर ध्यान न देने के कारण वे असमय काल-कवलित हो जाती हैं। इससे स्त्री-पुरुषों की जनसंख्या संबंधी असंतुलन में वृद्ध होती है। अल्पायु में लड़कियों की मृत्यु का असर तत्काल नहीं दिखता है। इसका असर दस-बारह वर्ष बाद दिखाई देता है, तब इसका विकराल रूप समाज और सरकार के लिए चिंता का विषय बन जाता है। बुद्धजीवी वर्ग और सरकारी तंत्र तब इसके लिए उपाय सोचना शुरू करता है। ‘लाडली योजना’, ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’, ‘कन्या विद्याधन’ जैसी सरकारी योजनाएँ इसी दिशा में सरकार द्वारा उठाए गए सफल कदम हैं। इसके अलावा विभिन्न प्रचार माध्यमों द्वारा जनजागरूकता अभियान चलाकर जनचेतना उत्पन्न करने का प्रयास करती है।


कन्या जन्म देने पर माता-पिता को प्रोत्साहन राशि देना, कन्या के विवाह में आर्थिक मदद प्रदान करना आदि इस दिशा में उठाए गए ठोस कदम हैं। सरकार ने भ्रूण-लिंग-परीक्षण को अपराध बनाकर तथा लिंग-परीक्षण करने वाले डॉक्टरों को सजा देने का कानूनी प्रावधान बनाकर सराहनीय प्रयास किया है। इससे लोगों की सोच में बदलाव आया है और वे कन्याओं के प्रति अधिक सदय बने हैं। स्त्री-पुरुष जनसंख्या के घटते अनुपात को कम करने की दिशा में किए जा रहे सरकारी प्रयासों को जन-जन तक विशेषकर पिछड़े और दूरदराज के क्षेत्रों तक पहुँचाने की आवश्यकता है। सरकार प्रचार-तंत्र के माध्यम से ऐसा कर भी रही है। वास्तव में लोगों की विचारधारा में बदलाव लाने की आवश्यकता है ताकि वे लड़के और लड़कियों को एक समान समझे और लड़कियो के जन्म को बोझ न समझे तथा उन्हें इस संसार में आने का अवसर दें।


समाज में लोगों ने किसी सीमा तक इसके दुष्परिणामों का आँकलन कर लिया है। समाज में स्त्रियों की कमी से बहुओं की कमी की आशंका, सामाजिक अपराधों में वृद्ध और बिगड़ते सामाजिक असंतुलन के भय का परिणाम है कि लोगों की सोच में बदलाव आया है। इससे कन्या जनसंख्या में कुछ सुधार आया है, पर अभी इस दिशा में बहुत कुछ सुधार लाने की आवश्यकता है। समाज को इस दिशा में आज से ही ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है वरना आगामी कुछ ही दशकों में वह दिन आ जाएगा, जब किसी भी महिला को द्रौपदी बनने के लिए विवश होना पड़ेगा। ऐसा दिन आने की प्रतीक्षा किए बिना हमें इस दिशा में ठोस कदम उठा लेना चाहिए

41. सठ सुधरहिं सत्संगति पाई अथवा सत्संगति

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में मिल-जुलकर परस्पर सद्भाव से रहता है। वह कभी अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए तो कभी परस्पर विचार-विमर्श के लिए लोगों से मिलता-जुलता है और उनकी संगति करता है। समाज में कुछ लोग अधिक ज्ञानवान, बुद्धमान, विद्वान और सुयोग्य होते हैं। ऐसे लोगों की संगति में उठना-बैठना, बात-चीत करना और उनकी बातों से प्रभावित होना सत्संगति कहलाता है। सत्संगति शब्द ‘संगति’ में ‘सत्’ उपसर्ग लगाने से बना है, जिसका अर्थ है-अच्छे लोगों की संगति। यहाँ अच्छे लोगों से तात्पर्य श्रेष्ठ, सदाचारी और विद्वतजनों से है जो लोगों को कुमार्ग त्यागकर सन्मार्ग पर चलने और श्रेष्ठ आचरण की सीख देते हैं।


ऐसे लोगों के संपर्क में आकर व्यक्ति के दुर्गुणों का नाश होता जाता है और उसमें अच्छे गुणों का उदय होने लगता है। सत्संगति के असर के कारण व्यक्ति के अवांछित गुण लोभ, स्वार्थ, दुर्बुद्ध, विषय-वासनाओं में डूबे रहने की प्रवृत्ति, ईष्र्यालु प्रवृत्ति, परनिंदा आदि का नाश होता है। इससे व्यक्ति में परोपकार, त्याग, मैत्रीभाव, सद्भाव, संतोष जैसे सद्गुणों का उदय एवं पुष्पन-पल्लवन होता है। इससे व्यक्ति की समाज में लोकप्रियता और यश बढ़ता है तथा जीवन में सुख-शांति की प्राप्ति होती है। सत्संगति की महत्ता बताते हुए कवि तुलसीदास ने कहा है-


सठ सुधरहिं सत्संगति पाई।

पारस परस कुधातु सुहाई।


अर्थात् श्रेष्ठ लोगों की संगति पाकर दुष्ट-से-दुष्ट व्यक्ति सुधरकर अच्छा आदमी उसी प्रकार बन जाता है, जैसे पारस पत्थर का स्पर्श पाकर लोहे जैसी साधारण और कुरूप-सी धातु सुंदर और मूल्यवान सोने में बदलकर बहुमूल्य बन जाती है। व्यक्ति के चरित्र-निर्माण में संगति का बहुत महत्व होता है। व्यक्ति जिस प्रकार के लोगों की संगति करता है, वैसा ही बनता है। अच्छों की संगति करके व्यक्ति अच्छा और बुरों की संगति करके बुरा बनता है। इसी संबंध में कहा गया है-


कदली सीप भुजंग ते एक स्वाति गुन तीन।

जैसी संगति बैठिए तैसोई फल दीन।।


अर्थात् संगति का माहात्म्य भी निराला होता है। स्वाति नक्षत्र में आसमान से गिरने वाली वर्षा की बूंदें संगति के अनुसार अलग-अलग स्वरूप पाती हैं। स्वाति की बूंद केले के पत्ते पर गिरकर कपूर का रूप पा जाती है, साँप के फन पर गिरकर मणि बन जाती है और वही बूंद सीप में गिरकर बहुमूल्य मोती बन जाती है। यही दशा व्यक्ति की भी होती है। वह जैसी संगति करता है, वैसा ही बन जाता है। सत्संगति की महत्ता बताते हुए कहा गया है कि ‘बिनु सत्संग विवेक न होई।’ अर्थात् सत्संग के बिना व्यक्ति में सुबुद्ध और विवेक का उदय नहीं होता है। संत कबीर ने सत्संगति को औषधि के समान बताते हुए समस्त प्रकार के दुर्गुण रूपी रोग को हरने वाला बताया है। इसके विपरीत कुसंगति में पड़कर आठों पहर दूसरों का अहित करने की सोचता रहता है। उनका कहना है-

कबिरा संगति साधु की हरै और की व्याधि।

ओछी संगति नीच की आठों पहर उपाधि।

सत्संगति की तुलना कल्यवृक्ष से की जा सकती है, जो मनुष्य को मधुर फल देते हुए सर्वविधि भलाई करती है। कहा भी गया है-‘महाजनस्य संगति: कस्यो न उन्नतिकारक:।’ अर्थात् श्रेष्ठ जनों की संगति किसकी उन्नति नहीं करती। इसका तात्पर्य यह है कि सत्संगति सभी की उन्नति का साधन बनती है। खिलते कमल का साथ पाकर ओस की बूंदें मोती के समान चमक उठती हैं और साधारण से कीट-पतंगे पुष्प की संगति करके देवताओं के सिर पर इठलाने का सौभाग्य पा जाते हैं। इसी प्रकार गंधी (इत्र बेचने वाला) चाहे कुछ दे या न दे पर इत्र की संगति के कारण सुवास (सुगंध) तो दे ही जाता है।


सत्संगति मनुष्य को सदाचार और ज्ञान ही नहीं प्रदान करती, बल्कि इससे मनुष्यों को अच्छे लोगों के विचारों को सुनने, समझने और व्यवहार में लाने की प्रेरणा मिलती है। इससे वह सुख, संतोष एवं शांति की अनुभूति करता है। ऐसा व्यक्ति मोह-माया से ऊपर उठकर लाभ-हानि, सुख-दुख, यश-अपयश को समान समझते हुए ईश्वर के प्रति सच्ची भक्ति-भावना रखता है। ऐसा नहीं है कि केवल श्रेष्ठ पुरुषों की संगति से ही ज्ञान और विवेक मिलता है, इसका अन्य साधन श्रेष्ठ साहित्य भी है। इस साहित्य और अच्छी पुस्तकों का सामीप्य पाकर मनुष्य सत्संगति जैसा ही लाभ प्राप्त करता है।


रामायण, रामचरितमानस, गीता, वेद-पुराण के अलावा महापुरुषों की जीवनियाँ और आत्मकथाएँ पढ़कर ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इनकी संगति की एक अन्य विशेषता यह है कि इनसे ज्ञान और बुद्ध पाने के लिए समय और स्थान की बाध्यता नहीं होती है। पुस्तकें पास होने पर हम किसी समय और कहीं भी, लेटकर या बैठकर इनको पढ़ते हुए आनंदित हो सकते हैं। इसके अलावा सत्संगति के लिए महापुरुषों का हमारे आस-पास और निकट उपस्थित होना आवश्यक होता है, किंतु पुस्तकों के माध्यम से सौ-पचास साल क्या हजारों साल पहले जन्में महापुरुषों के विचारों का लाभ उठाया जा सकता है। वर्तमान में राम, कृष्ण, ईसामसीह, स्वामी विवेकानंद, रवींद्रनाथ टैगोर जैसे महापुरुषों की संगति का लाभ लोग पुस्तकों के माध्यम से ही उठा रहे हैं।


सत्संगति के प्रभाव से व्यक्ति की आत्मा पूर्णतया बदल जाती है। उसका हृदय-परिवर्तन हो जाता है। आजीवन लूटमार करने । वाले वाल्मीकि क्रूर और हिंसक डाकू के रूप में जाने जाते थे, किंतु साधु-महापुरुषों की संगति पाकर वे साधु ही नहीं बने, बल्कि उच्च कोटि के विद्वान बने और संस्कृत भाषा में भगवान राम की पावन गाथा का गुणगान ‘रामायण’ के रूप में करके विश्व प्रसिद्ध हो गए। कुछ ऐसा ही उदाहरण डाकू अंगुलिमाल का है जो लोगों को लूटने के बाद उनकी अंगुली काट लेता था और उनकी माला बनाकर गले में पहन लेता था। उसी क्रूर डाकू का सामना जब महात्मा बुद्ध से हुआ तो उनकी संगति पाकर उसने लूटमार और हत्या का मार्ग त्याग दिया और सदा-सदा के लिए सुधरकर अच्छा आदमी बन गया और भगवद्भजन में रत रहने लगा। इसी प्रकार पुष्पों की संगति पाकर हवा सुवासित हो जाती है और लोगों का मन अपनी ओर खींच लेती है।


सत्संगति व्यक्ति में अनेक मानवीय गुणों का उदय करती है। इससे व्यक्ति में त्याग, परोपकार, साहस, निष्ठा, ईमानदारी जैसे मूल्यों का उदय होता है। सत्संगति से व्यक्ति विवेकी बनता है, जिससे उसका जीवन सुगम बन जाता है। अत: मनुष्य को चाहिए कि ऐसी लाभदायी सत्संगति को छोड़कर भूलकर भी कुसंगति की ओर कदम न बढ़ाए। सत्संगति ही व्यक्ति की भलाई कर सकती है, कुसंगति नहीं। अत: हमें सदैव सत्संगति ही करनी चाहिए।

42. धूम्रपान की बढ़ती-प्रवृत्ति और उसके खतरे

अथवा

धूम्रपान कितना घातक


मनुष्य श्रमशील प्राणी है। मानव-जीवन और श्रम का घनिष्ठ रिश्ता है। आदि काल में वह भोजन पाने के लिए श्रम करता था तो वर्तमान काल में अपनी बढ़ी हुई आवश्यकताओं और क्षुधापूर्ति के लिए। श्रम के उपरांत थकान होना स्वाभाविक है। इस थकान से वह मुक्ति पाना चाहता है। इसके अलावा मनुष्य के जीवन में दुख-सुख आते-जाते रहते हैं। थकान और दुख दोनों से छुटकारा पाने के लिए वह धूम्रपान का सहारा लेने लगता है। उसका दुख और थकान इससे कितना दूर होता होगा, पर वह अपने स्वास्थ्य के लिए नाना प्रकार की मुसीबतें जरूर मोल ले लेता है, जिसका दुष्प्रभाव तात्कालिक न होकर दीर्घकालिक होता है।


‘धूम्रपान’ शब्द दो शब्दों ‘धूम्र’ और ‘पान’ से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है-धूम्र अर्थात् धुएँ का पान करना। अर्थात् नशीले पदार्थों के धुएँ का विभिन्न प्रकार से सेवन करना, जो नशे की स्थिति उत्पन्न करते हैं और यह नशा व्यक्ति के मनोमस्तिष्क पर हावी हो जाता है। इससे धूम्रपान करने वाले व्यक्ति का मस्तिष्क शिथिल हो जाता है और वह अपने आस-पास की वास्तविक स्थिति में अलग-सा महसूस करने लगता है। यही स्थिति उसे एक काल्पनिक आनंद की दुनिया में ले जाती है। एक बार धूम्रपान की आदत पड़ जाने पर इसे छोड़ना मुश्किल होता है, पर यदि दृढ़ इच्छाशक्ति हो तो यह कार्य असंभव नहीं होता है।


समाज में धूम्रपान की प्रवृत्ति बहुत पुरानी है। मनुष्य प्राचीन काल से ही तंबाकू और उनके उत्पादों को विभिन्न रूप में सेवन करता रहा है। इसी तंबाकू एवं अन्य नशीले पदार्थ को बीड़ी, सिगरेट में भरकर उसके धुएँ का सेवन कुछ लोगों द्वारा किया जाता रहा है। समाज की वही प्रवृत्ति उत्तरोत्तर चली जा रही है। श्रमिक वर्ग में धूम्रपान की प्रवृत्ति अधिक देखी जा सकती है। यह वर्ग अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार बीड़ी-तंबाकू का सेवन करता है तो उच्च आयवर्ग के लोग बीड़ी-तंबाकू का सेवन करना अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं समझते हैं। वे प्रसिद्ध कंपनियों द्वारा उत्पादित तथा सिलेब्रिटीज द्वारा विज्ञापित महँगे सिगरेट का सेवन करते हैं। ऐसा करना वे अपनी शान समझते हैं।


दुख तो यह है कि यह शिक्षित एवं प्रतिष्ठित वर्ग धूम्रपान के खतरों से भलीभाँति परिचित होता है, फिर भी धूम्रपान करना अपनी शान एवं प्रतिष्ठा बढ़ाने वाला मान बैठता है। बीड़ी-सिगरेट की उत्पादक कंपनियाँ और सरकार दोनों को ही यह पता है कि बीड़ी-सिगरेट का प्रयोग स्वास्थ्य के लिए घातक होता है, पर कंपनियाँ इनके पैकेटों पर साधारण-सी चेतावनी-‘सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है’ लिखकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेती हैं और सरकार भी इसे मौन स्वीकृति दे देती है। इनके प्रयोग करने वाले इस नाममात्र की वैधानिक चेतावनी को अनदेखा कर उसका धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं और जाने-अनजाने अपने स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करते है।


यद्यपि सरकार ने इस दिशा में कुछ ठोस कदम उठाते हुए सार्वजानिक स्थानों और सरकारी कार्यालयों में इसके प्रयोग पर पाबंदी लगा दी है। उसने ऐसा करने वालों के विरुद्ध दो सौ रूपये का अर्थदंड भी लगाया है, पर लोग किसी कोने में या किनारे खड़े होकर चेहरा छिपाकर धूम्रपान कर लेते हैं। धूम्रपान को रोकने की जिम्मेदारी जिन पर डाली गई है, यदि वे धूम्रपान करने वाले व्यक्ति को पकड़ते भी हैं तो कुछ ले-देकर मामला रफा-दफा करने में उन्हें अपनी भलाई नजर आती है। यह मध्यम मार्ग अपनाने की प्रवृत्ति के कारण धूम्रपान रोकने की यह मुहिम कारगर सिद्ध नहीं हो सकी। इसके विपरीत धूम्रपान करने वाले इस दो सौ रूपये के अर्थदंड का मजाक उड़ाते हुए नजर आते हैं।


धूम्रपान को दोहरा नुकसान है। एक ओर यदि प्रयोग करने वाले के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डालता है तथा गाढ़ी कमाई को बर्बाद करता है तो दूसरी ओर यह हमारे पर्यावरण के लिए हानिकारक है। धूम्रपान करने वालों के पास जो लोग खड़े होते हैं, वे भी अपनी साँस द्वारा उस धुएँ का सेवन करते हैं, जिससे उनका स्वास्थ्य प्रभावित होता है। युवा और बच्चे विशेष रूप से इसका शिकार होते हैं। ऐसे लोग चाहकर भी इस दुष्प्रभाव से नहीं बच पाते हैं। इसके अलावा बच्चों के कोमल मन पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ता है। उनमें अपने बड़ों की देखादेखी धूम्रपान करने की इच्छा पनपती है और वे चोरी-छिपे इसका प्रयोग करना शुरू करते हैं।


विज्ञापन और फ़िल्मों के अलावा समाचार-पत्र एवं पत्रिकाओं में दर्शाए गए विज्ञापनों की जीवन-शैली देखकर युवा मन भी वैसा करने को आतुर हो उठता है। सीमित आय के कारण युवा वैसी जीवन-शैली तो अपना नहीं पाता है, पर धूम्रपान की कुप्रवृत्ति का शिकार जरूर हो जाता है। इस संबंध में युवाओं को खुद ही सोच-समझकर उचित आदत डालने का निर्णय लेना होगा। बीड़ी-सिगरेट आदि सरकार की आय तथा कंपनियों के ऊँचे मुनाफ़े का साधन हैं। इस कारण इन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने में सरकार भी ईमानदारी और दृढ़ता से प्रयास नहीं करती है, पर आय प्राप्त करने के लिए देश की बहुसंख्यक जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करना बुद्धमानी की बात नहीं है। इस पर रोक लगाने से एक व्यावहारिक समस्या यह जरूर उठ सकती है कि इनमें काम करने वाले श्रमिक बेरोजगार हो जाएँगे।


यदि ईमानदारीपूर्वक इस समस्या के समाधान के लिए कदम उठाया जाए तो इसका हल यह है कि इन श्रमिकों को अन्य कामों में समायोजित कर उन्हें भुखमरी से बचाया जा सकता है। लोगों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने के बजाय बीड़ी, तंबाकू और सिगरेट उद्योग पर प्रतिबंध लगाने से ही मानवता का कल्याण हो सकेगा। धूम्रपान के विरुद्ध जन-जागृति भलीभाँति इसलिए नहीं फैल पा रही है, क्योंकि इससे होने वाला नुकसान तत्काल नहीं दिखाई देता है। यह नुकसान बाहय रूप में न होकर आंतरिक होता है जो तुरंत दिखाई नहीं देता है।


धूम्रपान करते समय जो धुआँ श्वासनली से होकर हमारे फेफड़ों में जाता है, वह एक काली परत बना देता है, जिससे श्वास-संबंधी अनेक बीमारियाँ हो जाती हैं। इसकी शुरुआत प्राय: खाँसी से होती है। यह ऐसा व्यसन है जो एक बार छू जाने पर आसानी से नहीं छोड़ता है। यह खाँसी धीरे-धीरे बढ़ती हुई टी०बी० और कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों में बदल जाती है। धूम्रपान रोकने के लिए लोगों को अपनी सोच में बदलाव लाना होगा और इसके खतरों से सावधान होकर इसे त्यागने का दृढ़ निश्चय करना होगा। यदि एक बार ठान लिया जाए तो कोई भी काम असंभव नहीं है।


बस आवश्यकता है तो दृढ़ इच्छाशक्ति की। इसके अलावा सरकार को धूम्रपान कानून के अनुपालन के लिए ठोस कदम उठाना चाहिए। धूम्रपान का प्रचार करने वाले विज्ञापनों पर अविलंब रोक लगाना चाहिए तथा इसका उल्लंघन करने वालों पर कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए। विद्यालय पाठ्यक्रम का विषय बनाकर बच्चों को शुरू से ही इसके दुष्परिणाम से अवगत कराना चाहिए ताकि युवावर्ग इससे दूरी बनाने के लिए स्वयं सचेत हो सके। हमें धूम्रपान रोकने में हर संभव सरकार और लोगों की मदद करनी चाहिए।


43. बढ़ती जनसंख्या : एक भीषण चुनौती

अथवा

समस्याओं की जड़ : बढ़ती जनसंख्या

अथवा

जनसंख्या विस्फोट : एक समस्या


स्वतंत्रोत्तर भारत को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, उनमें जनसंख्या की निरंतर वृद्ध मुख्य है। जनसंख्या-वृद्धि अपने-आप में समस्या होने के साथ-साथ अनेक समस्याओं की जड़ भी है। सरकार समस्याओं को दूर करने के जो उपाय अपनाती है, जनसंख्या विस्फोट के कारण वे अपर्याप्त सिद्ध होते हैं और समस्या पहले से भी भीषण रूप में मुँहबाए सामने खड़ी मिलती है। इस समस्या का प्रभावी नियंत्रण किए बिना आर्थिक उपलब्धियाँ प्राप्त करना कठिन ही नहीं, बल्कि असंभव है।


स्वतंत्रता के बाद देश में स्वास्थ्य सेवाओं में निरंतर सुधार हुआ है। इसके अलावा अन्य सुविधाएँ भी बढ़ी हैं। इसका सीधा असर मृत्यु-दर पर पड़ा है। मृत्यु-दर में आई गिरावट जनसंख्या-वृद्ध का कारण है। 2011 में हुई जनगणना से ज्ञात होता है कि हमारे देश की जनसंख्या 120 करोड़ को पार कर गई है। यह वर्तमान में सवा अरब के निकट पहुँच चुकी होगी। भारत का विश्व में जनसंख्या में दूसरा स्थान है, पर क्षेत्रफल में सातवाँ स्थान। यही विषमता जनसंख्या-संबंधी समस्याओं को बढ़ाती है। इतनी विशाल जनसंख्या के लिए भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, परिवहन, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध कराना ही अपने-आप में भीषण चुनौती है।


भारत जैसे सीमित संसाधनों वाले देश के लिए यह समस्या और भी विकराल रूप में नजर आती है। यहाँ संसाधन सीमित हैं। ऐसे में जनसंख्या पर नियंत्रण किए बिना विकास की बात करना निरर्थक है। जनसंख्या-वृद्ध के कारण भोजन और आवास की समस्या सबसे पहले सामने आती है। जनसंख्या के पोषण के लिए खाद्यान्न की आवश्यकता होती है। इसे उगाने के लिए विस्तृत कृषियोग्य जमीन की आवश्यकता होती है। इसके अलावा आवास के लिए मकान बनाने के लिए भी भूमि की जरूरत होती है। इसके लिए कृषियोग्य जमीन पर कंकरीट के जंगल खड़े किए जाते हैं या फिर हरे-भरे जीवनदायी जंगलों का सफ़ाया करके भवनों का निर्माण किया जाता है। इसका दुष्प्रभाव खाद्यान्न के उत्पादन पर पड़ता है और कृषि-उत्पादन गिरता है।


विकास के नाम पर कल-कारखानों की स्थापना, सड़कों का निर्माण, बढ़ता शहरीकरण आदि भूमि घेरते जा रहे हैं, जिससे खाद्यान्न-उत्पादन कम होता जा रहा है। बढ़ती जनसंख्या की समस्या के कारण खाद्यान्न की कमी और भी बढ़ती जा रही है। इसके अलावा यातायात के साधन, वस्त्र, पेट्रोलियम पदार्थ आदि का उत्पादन जितना बढ़ाया जाता है, वह बढ़ती जनसंख्या रूपी सुरसा के मुँह में चला जाता है और हमारी स्थिति वही ढाक के तीन पात वाली रह जाती है। जनसंख्या-वृद्ध की भयंकरता देखकर यही अंदेशा होने लगा है कि पेट्रोलियम जैसे अनवीकरणीय संसाधन आने वाले कुछ ही वर्षों में समाप्त हो जाएँगे और ये संसाधन पुस्तकों में इतिहास की वस्तु बनकर रह जाएँगे।


जनसंख्या-वृद्ध का दुष्परिणाम स्वास्थ्य सेवाओं पर पड़ा है। यद्यपि स्वतंत्रता के बाद स्वास्थ्य सेवाओं में वृद्ध हुई है। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए सरकार ने नए अस्पताल खुलवाए, स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या में वृद्ध की। उसने नए मेडिकल कॉलेज खोले और पुराने मेडिकल कॉलेजों में सीटों की संख्या में वृद्ध की। स्वास्थ्य सेवाएँ जन-जन तक पहुँचाने के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, आँगनवाड़ी केंद्र, आशा बहनों की नियुक्ति की, पर बढ़ती जनसंख्या के कारण हर एक को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएँ नहीं मिल पा रही हैं। विदेशों की तुलना में यहाँ प्रति डॉक्टर मरीजों की संख्या काफी ज्यादा है। सरकारी अस्पतालों में लगी लंबी-लंबी लाइनें इस बात का प्रमाण हैं। यहाँ प्राइवेट अस्पताल अत्यधिक महँगे हैं और सरकारी अस्पताल आवश्यकता से बहुत कम हैं, जिससे गरीब आदमी मरने को विवश है। यदि जनसंख्या पर नियंत्रण न किया गया तो यह स्थिति और भी भयंकर हो जाएगी।


जनसंख्या-वृद्ध के कारण शत-प्रतिशत साक्षरता की दर का सपना आज भी सपना बनकर रह गया है। शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद भी स्थिति में बहुत बदलाव नहीं आया है। सरकार प्रतिवर्ष सैकड़ों नए विद्यालय खोलती है और हजारों नए शिक्षकों की भर्ती करती है, फिर भी विद्यालयों की कक्षाओं में निर्धारित संख्या से दूने-तिगुने छात्र बैठने को विवश है। यह स्थिति तो प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों की है, पर उच्च शिक्षा की स्थिति और भी खराब है। जनसंख्या-वृद्ध के कारण उच्च शिक्षण संस्थाएँ ऊँट के मुँह में जीरा साबित हो रही हैं। कॉलेजों में एक सीट के विरुद्ध तीस से अधिक आवेदन-पत्र इसी स्थिति को दर्शाते हैं। यातायात एवं परिवहन की समस्या को जनसंख्या-वृद्ध ने कई गुणा बढ़ा दिया है।


प्राइवेट वाहनों की संख्या में निरंतर वृद्ध होने पर भी बस अड्डों, रेलवे स्टेशनों पर टिकट के लिए लंबी लाइनें लगी ही रहती हैं। रेल का आरक्षित टिकट पाने के लिए लोग रात से लाइन में लग जाते हैं, पर अधिकांश के हाथ निराशा ही लगती है। जनसंख्या-वृद्ध ने बेरोजगारी में वृद्ध की है। बेरोजगारी की स्थिति भयावह हो चुकी है। अब तो सरकारी नौकरी के दस-बीस पदों के लिए लाखों में आवेदन-पत्र आने लगे हैं। रोजगार दफ्तरों में पंजीयकों की निरंतर बढ़ती लाइनें देखकर इसका अनुमान लगाया जा सकता है। अकुशल श्रमिकों का हाल और भी बुरा है। प्रात: लेबरचौंक पर इकट्ठे मजदूरों में से आधे को भी काम नहीं मिल पाता है।


जनसंख्या-विस्फोट से उत्पन्न यह बेरोजगारी और भी कई समस्याएँ पैदा करती है। जिस व्यक्ति को काम नहीं मिलता है, वह व्यर्थ की बातों में अपनी ऊर्जा व्यर्थ करता है। कहा भी गया है-‘बुभुक्षक: किम् न करोति पापं।’ अर्थात् भूखा व्यक्ति हर प्रकार का पाप-कर्म करने को तत्पर हो जाता है। यह बेरोजगार जनसंख्या अपराध-कार्यों में संलिप्त होकर समाज में अनैतिक कार्य करते हैं और कानून-व्यवस्था को चुनौती देते हैं। इसके अलावा इससे समाज में विषमता की खाई और चौड़ी होती जाती है, जिससे आक्रोश और असंतोष बढ़ता है। इसका कुप्रभाव सामाजिक एकता और अखंडता पर पड़ता है। वे आर्थिक आधार पर बँटकर असंतुष्ट भाव लिए जीने को विवश रहते हैं।


जनसंख्या-वृद्ध एक नहीं अनेक समस्याओं की जननी है। यह किसी भी दृष्टि से व्यक्ति, देश एवं विश्व के हित में नहीं है। जनसंख्या की वृद्ध रोके बिना किसी समाज और राष्ट्र की उन्नति की बात सोचना भी बेईमानी है। इसे रोकने के लिए जन-जन और सरकार को सामूहिक प्रयास करना होगा। सबसे पहले लोगों में जन-जागरूकता फैलानी होगी। समाज में जनसंख्या-वृद्ध के लिए उत्तरदायी रुढ़िवादी सोच को हतोत्साहित कर ‘लड़का-लड़की एक समान’ होने की सोच पैदा करनी होगी

उन्हें छोटे-परिवार का महत्व बताना होगा तथा कम बच्चे होने पर ही अच्छे रहन-सहन की कल्पना की जा सकती है, यह बात समझानी होगी। दो से अधिक बच्चों वाले नेताओं के चुनाव लड़ने पर, ऐसे कर्मचारियों की वेतन-वृद्ध एवं पदोन्नति पर रोक तथा एक-दो बच्चों वाले माता-पिता को सुविधाएँ देने का प्रयास सरकार द्वारा किया जाना चाहिए। इसके अलावा परिवार-कल्याण जैसे कार्यक्रमों को गाँव-गाँव तथा सुदूर स्थानों तक पहुँचाना चाहिए। जनसंख्या-वृद्ध के दुष्परिणाम संबंधी पाठ विद्यालयी पाठ्यक्रम में शामिल करके बच्चों को जागरूक बनाना चाहिए ताकि आने वाले समय में जनसंख्या-वृद्ध रोकने में वे बेहतर योगदान दे सकें।

44. मोबाइल फोन : सुविधाएँ एवं असुविधाएँ

अथवा

मोबाइल फोन बिना सब सूना


विज्ञान ने मानव-जीवन को अनेक तरह से सुखमय बनाया है। उसने मनुष्य को ऐसे अनेक सुविधाजनक उपकरण दिए हैं, जिनकी वह कभी कल्पना भी नहीं करता था। मानव-जीवन का शायद ही कोई कोना ही जो विज्ञान से प्रभावित न हो। संचार का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। संचार के क्षेत्र में क्रांति लाने में विज्ञान-प्रदत्त कई उपकरणों का हाथ है, पर मोबाइल फोन की भूमिका सर्वाधिक है। मोबाइल फोन जिस तेजी से लोगों की पसंद बनकर उभरा है, उतनी तेजी से कोई अन्य संचार साधन नहीं। आज इसे अमीर-गरीब, युवा-प्रौढ़ हर एक. की जेब में देखा जा सकता है।


मोबाइल फोन अत्यंत तेजी से लोकप्रिय हुआ है। इसके प्रभाव से शायद ही कोई बचा हो। आजकल इसे हर व्यक्ति की जेब में देखा जा सकता है। कभी विलासिता का साधन समझा जाने वाला मोबाइल फोन आज हर व्यक्ति की जरूरत बन गया है। इसकी लोकप्रियता का कारण इसका छोटा आकार, कम खर्चीला होना, सर्वसुलभता और इसमें उपलब्ध अनेकानेक सुविधाएँ हैं। मोबाइल फोन का जुड़ाव तार से न होने के कारण इसे कहीं भी लाना-ले जाना सरल है। इसका छोटा और पतला आकार इसे हर जेब में फिट होने योग्य बनाता है। किसी समय मोबाइल फोन पर बातें करना तो दूर सुनना भी महँगा लगता था, पर बदलते समय के साथ आने वाली कॉल्स नि:शुल्क हो गई। अनेक प्राइवेट कंपनियों के इस क्षेत्र में आ जाने से दिनोंदिन इससे फोन करना सस्ता होता जा रहा है।


मोबाइल फोन जब नए-नए बाजार में आए थे तब बड़े महँगे होते थे। चीनी कंपनियों ने सस्ते फोन की दुनिया में क्रांति उत्पन्न कर दी और उनके फोन भारत के ही नहीं वैश्विक बाजार में छा गए। इन मोबाइल फोनों की एक विशेषता यह भी है कि कम दाम के फोन में जैसी सुविधाएँ चाइनीज फोनों में मिल जाती हैं, वैसी अन्य कंपनियों के महँगे फोनों में मिलती हैं। गरीब-से-गरीब व्यक्ति यहाँ तक कि मजदूर और रिक्शा चालक की जेब में मोबाइल फोन पहुँचाने का श्रेय चीनी कंपनियों को ही है। इसके अलावा जेब में पैसे होने पर अब मोबाइल फोन खरीदने के लिए शहर के बड़े-बड़े बाजारों में जाने की जरूरत नहीं रही। ये फोन सर्वसुलभ हैं। इन्हें गाँवों के छोटे-छोटे बाजारों से खरीदा जा सकता है। इनसे जुड़ी हर छोटी-बड़ी सुविधाएँ और चार्ज करने की सुविधा गली-गली में हो गई है।


मोबाइल फोन को लोकप्रिय बनाने में सर्वाधिक योगदान है, इसमें बढ़ती नित नई-नई सुविधाएँ। पहले इन फोनों से केवल बात की जा सकती थी और सुनी जा सकती थी, पर आजकल इसे जेब का बात करने वाला कंप्यूटर कहें तो कोई ‘अतिशयोक्ति न होगी। अब मोबाइल फोन पर एफ०एम० के माध्यम से प्रसारित संगीत का आनंद उठाया जाता है तो इसमें लगे मेमोरी कार्ड द्वारा रिकॉर्डड संगीत का भी आनंद उठाया जा सकता है। इसमें लगा कैमरा मनचाहे फोटो खींच सकता है तो रिकार्डिंग सिस्ट्म द्वारा कई घंटों की रिकार्डिग करके उनका मनचाहा आनंद उठाया जा सकता है। अब तो फोन पर बातें करते हुए दूसरी ओर से बात करने वाले का चित्र भी देखा जा सकता है। इसमें फाइलें बनाकर विभिन्न प्रकार के डेटा सँभालकर रखे जा सके हैं। इस फोन को प्रिंटर से जोड़कर इनको कागज पर छापा जा सकता है। इसमें लगा कैल्कुलेटर, कैलेंडर भी बड़े उपयोगी हैं, जिनका उपयोग समय-समय पर किया जा सकता है। आधुनिक मोबाइल फोन में उन सभी सुविधाओं का आनंद उठाया जा सकता है तथा उन कामों को किया जा सकता है, जिन्हें कंप्यूटर पर किया जाता है।


मोबाइल फोन ने समय की बचत में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। अब फोन करने के लिए हमें न फोन वाले कमरे में जाने की जरूरत है और न बाहर लगे पी०सी०ओ० के पास। बस जेब से निकला और शुरू कर दिया बातचीत। यद्यपि इसका लाभ हर वर्ग का व्यक्ति उठा रहा है, पर व्यापारी वर्ग इससे विशेष रूप से लाभान्वित हो रहा है। बाजार-भाव की जानकारी लेना-देना, माल का ऑर्डर देना, क्रय-विक्रय का हिसाब-किताब बताने जैसे कार्य मोबाइल फोन पर ही होने लगे हैं। इसके लिए उन्हें शहर या दूसरे बाजार तक जाने की जरूरत नहीं रही। मजदूर वर्ग के पास मोबाइल आ जाने से उनकी रोजी-रोटी में वृद्ध हुई है। अब वे दीवारों, दुकानों और ग्राहकों के पास अपने नंबर लिखवा देते हैं और लोग उन्हें बुला लेते हैं।


राजमिस्त्री, पलबर, कारपेंटर, ऑटोरिक्शा आदि एक कॉल पर उपस्थित हो जाते हैं। अकेले और अपनी संतान से दूर रहने वाले वृद्धजनों के लिए मोबाइल फोन किसी वरदान से कम नहीं है। वे इसके माध्यम से पल-पल अपने प्रियजनों से जुड़े रहते हैं और अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उन्हें जगह-जगह भटकने की समस्या से मुक्ति मिल गई है। मोबाइल फोन के प्रयोग से कामकाजी महिलाओं और कॉलेज जाने वाली लड़कियों के आत्म-विश्वास में वृद्ध हुई है। वे अपने परिजनों के संपर्क में रहती हैं तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में पुलिस या परिजनों को कॉल कर सकती हैं।


विद्यार्थियों के लिए मोबाइल फोन अत्यंत उपयोगी है। अब मोटी-मोटी पुस्तकों को पीडिएफ फॉर्म में डाउनलोड करके अपनी रुचि के अनुसार कहीं भी और कभी भी पढ़ सकते हैं। इससे जटिल चित्रों के फोटो खींचकर बाद में अपनी सुविधानुसार इनका अध्ययन किया जा सकता है। कक्षा में पढ़ाए गए किसी पाठ या सेमीनार के लेक्चर की वीडियो रिकार्डिग करके इसका लाभ उठाया जा सकता है। जिस प्रकार किसी सिक्के के दो पहलू होते हैं, उसी प्रकार मोबाइल फोन का दूसरा पक्ष उतना उज्ज्वल नहीं है।


मोबाइल फोन के दुरुपयोग की प्राय: शिकायतें मिलती रहती हैं। लोग समय-असमय कॉल करके दूसरों की शांति में व्यवधान उत्पन्न करते हैं। कभी-कभी मिस्डकॉल के माध्यम से परेशान करते हैं। कुछ लोग अश्लील एसएमएस भेजकर इसका दुरुपयोग करते हैं। इसका सर्वाधिक नुकसान विद्यार्थियों की पढ़ाई पर हो रहा है। विद्यार्थीगण पढ़ने के बजाए फोन पर गाने सुनने, अश्लील फ़िल्में देखने, अनावश्यक बातें करने में व्यस्त रहते हैं। इससे उनकी पढ़ाई का स्तर गिर रहा है। वे अभिभावकों से महँगे फोन खरीदने की जिद करते हैं तथा अनावश्यक दबाव बनाते हैं जो अभिभावकों की जेब पर भारी पड़ता है। मोबाइल फोन पर बातें करना हमारे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। इस पर ज्यादा बातें करना बहरेपन को न्योता देना है।


आतंकवादियों के हुए,पगतउद्देश्य के ला किया जाता है वे लोइलोड हिंसा, कुमारजैसा घनाओं के ल इसाक प्रयोग करने लगे हैं। मोबाइल फोन नि:संदेह अत्यंत उपयोगी उपकरण और विज्ञान का चमत्कार है। इसका सदुपयोग और दुरुपयोग मनुष्य के हाथ में है। हम सबको इसका सदुपयोग करते हुए इसकी उपयोगिता को कम नहीं होने देना चाहिए। हमें भूलकर भी इसका दुरुपयोग और अत्यधिक प्रयोग नहीं करना चाहिए।


45. बेरोजगारी की समस्या

अथवा

बेरोजगारी का दानव


भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद जो समस्याएँ दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ी हैं, उनमें जनसंख्या-वृद्ध, महँगाई, बेरोजगारी आदि मुख्य हैं। इनमें बेरोजगारी की समस्या ऐसी है जो देश के विकास में बाधक होने के साथ ही अनेक समस्याओं की जड़ बन गई है।


किसी व्यक्ति के साथ बेरोजगारी की स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब उसे उसकी योग्यता, क्षमता और कार्य-कुशलता के अनुरूप काम नहीं मिलता, जबकि वह काम करने के लिए तैयार रहता है। बेरोजगारी की समस्या शहर और गाँव दोनों ही जगहों पर पाई जाती है, परंतु ग्रामीण क्षेत्रों में यह अधिक दिखाई देती है। इसका कारण यह है कि भारत की 80% जनसंख्या गाँवों में बसती है। उनकी रोजी-रोटी का मुख्य साधन कृषि है। कृषि में साल के कुछ ही महीनों में काम होता है, बाकी महीनों में किसान या खेतिहर मजदूरों को बेकार बैठना पड़ता है।

शहरों में रोजगार के साधन गाँवों की अपेक्षा अधिक हैं, पर यहाँ भी बेरोजगारी है, क्योंकि यहाँ रोजगार के अवसर और उन्हें चाहने वाले की संख्या देखकर एक अनार सौ बीमार वाली कहावत चरितार्थ होती नजर आती है। नवीनतम आँकड़ों से पता चला है कि इस समय हमारे देश में ढाई करोड़ बेरोजगार हैं। यह संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती ही जा रही है। यद्यपि सरकार और उद्यमियों द्वारा इसे कम करने का प्रयास किया जाता है, पर यह प्रयास ऊँट के मुँह में जीरा साबित होता है। हमारे देश में विविध रूपों में बेरोजगारी पाई जाती है। इसे ध्यान से देखने पर ज्ञात होता है कि पहले वर्ग में वे बेरोजगार आते हैं जो पढ़-लिखकर शिक्षित और उच्च शिक्षित हैं।


वे सरकारी या प्राइवेट नौकरियाँ करना चाहते हैं, पर उन्हें अवसर नहीं मिल पाता। वे पूँजी, प्रशिक्षण और उचित मार्गदर्शन के अभाव में स्वरोजगार भी नहीं कर पाते हैं और बेरोजगार रहते हैं। यह वर्ग मजदूरी जैसा काम करके अपना पेट भरना नहीं चाहता, क्योंकि ऐसा करने में उसकी शिक्षा आड़े आती है। दूसरे वर्ग में वे बेरोजगार आते हैं जो अनपढ़ और अप्रशिक्षित हैं। पहले उन्हें काम ही नहीं मिलता है, यदि उन्हें काम मिलता भी है तो प्रशिक्षण के अभाव में वे अयोग्य सिद्ध होते हैं और बेरोजगार बने रह जाते हैं। तीसरे वर्ग में वे बेरोजगार आते हैं जो काम तो कर रहे हैं, पर उन्हें अपनी योग्यता और अनुभव के अनुपात में बहुत कम वेतन मिलता है। इससे वे सदा असंतुष्ट बने रहते हैं। चौथे और अंतिम वर्ग में उन बेरोजगारों को रख सकते हैं, जिन्हें साल में कुछ ही महीने काम मिल पाता है और शेष महीने वे बेरोजगार रहते हैं।


खेती में काम करने वाले मजदूर और किसानों को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। इस प्रकार की बेरोजगारी का दूसरा नाम ‘प्रच्छन्न बेरोजगारी’ है। बेरोजगारी के कारणों पर विचार करने से ज्ञात होता है कि इसका मुख्य कारण औद्योगीकरण और नवीनतम साधनों की खोज एवं विकास है। औद्योगीकरण के कारण जो काम पहले हाथ से होते थे और जो हजारों मजदूरों द्वारा महीनों में पूरे किए जाते थे, आज मशीनों की मदद से कुछ ही मजदूरों की सहायता से कुछ ही दिना में पूरे कर लिए जाते हैं। सूती वस्त्र उद्योग, जिसमें कपास के बीज निकालने, साफ़ करके सूत कातने, रंगने, करघे पर बुनने में हजारों मजदूर सालभर लगे रहते थे, आज वही काम मशीनें अल्प समय में कर रही हैं। इससे हथकरघा उद्योग नष्ट हो गया और इन पर काम करके आजीविका कमाने वाले बेरोजगार हो गए।


वृहत पैमाने पर औद्योगीकरण होने से पूर्व हमारे देश में कृषि, बुनाई, सिलाई, कढ़ाई, बर्तनों की ढलाई, चमड़े की रंगाई, धातुकर्म आदि संबंधी लघु उद्योग सुव्यवस्थित एवं सुचारु रूप से चल रहे थे, पर औद्योगीकरण ने हजारों शिल्पकारों-दस्तकारों को बेरोजगार कर सड़क पर ला खड़ा किया। पहले इन कामों को पैतृक रूप में किया जाता था। पिता के अशक्त एवं वृद्ध होने पर उसका बेटा उस कार्य को स्वयंमेव सीख जाता था और पैतृक पेशे को अपनाकर रोजी-रोटी का साधन जुटा लेता था और बेरोजगार होने से बच जाता था। इसके अलावा नई तकनीक आ जाने से बेरोजगारी में असीमित वृद्ध हुई है। खेती में खेत जोतने के लिए ट्रैक्टर का प्रयोग, सिंचाई के लिए ट्यूबवेल, खरपतवार नष्ट करने के लिए खरपतवारनाशी, निराई करने के लिए हैरो एवं कल्टीवेटर, कटाई के लिए हारवेस्टर, मड़ाई के लिए श्रेसर का प्रयोग किए जाने से हजारों-लाखों मजदूर बेरोजगार हुए हैं।


जिन बैंकों में पहले सौ-सौ क्लर्क काम करते थे, उनका काम अब चार-पाँच कंप्यूटरों द्वारा किया जा रहा है। बेरोजगारी का दूसरा सबसे बड़ा कारण है-जनसंख्या-वृद्ध। आजादी मिलने के बाद सरकार ने रोजगार के नए-नए अवसरों का सृजन करने के लिए नए पदों का सृजन किया और कल-कारखानों की स्थापना की। इससे लोगों को रोजगार तो मिला, पर बढ़ती जनसंख्या के कारण यह प्रयास नाकाफी सिद्ध हो रहे हैं। इससे बेरोजगारी की स्थिति ज्यों-की-त्यों बनी हुई है। बेरोजगारी का अन्य कारण है-गलत शिक्षा-नीति, जिसका रोजगार से कुछ भी लेना-देना नहीं है। यह बेरोजगारों की फ़ौज खड़ी करती है।


उच्च शिक्षा प्राप्ति के उपरांत भी व्यक्ति न सरकारी या प्राइवेट नौकरी के लिए कुशल बन पाता है और न स्वरोजगार के योग्य। उचित शिक्षण-प्रशिक्षण के अभाव में देश के युवा तकनीकी ज्ञान नहीं प्राप्त कर पाते हैं और कुशलता के अभाव में बेरोजगार रह जाते हैं। वर्तमान शिक्षा-प्रणाली श्रम के प्रति तिरस्कार-भाव पैदा करती है, जिससे पढ़ा-लिखा व्यक्ति शारीरिक श्रम से जी चुराता है। इसके अलावा स्त्रियों द्वारा नौकरी करने से भी पुरुष बेरोजगारी में वृद्ध हुई है। बेरोजगारी एक ओर जहाँ परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति बाधक है, वहीं यह खाली दिमाग शैतान का घर होने की स्थिति उत्पन्न करती है।

ऐसे बेरोजगार युवा अपनी ऊर्जा का उपयोग समाज एवं राष्ट्रविरोधी कार्यों में करते हैं। इससे लड़ाई-झगड़ा, हत्या, आंदोलन, लूट-पाट, उपद्रव, छीना-झपटी आदि बढ़ती है और सामाजिक शांति भंग होती है तथा अपराध का ग्राफ़ बढ़ता है। बेरोजगारी की समस्या से छुटकारा पाने के लिए शिक्षा को रोजगार से जोड़ने की आवश्यकता है। व्यावसायिक शिक्षा को विद्यालयों में लागू करने के अलावा अनिवार्य बनाना चाहिए। स्कूली पाठ्यक्रमों में श्रम की महिमा संबंधी पाठ शामिल किया जाना चाहिए ताकि युवावर्ग श्रम के प्रति अच्छी सोच पैदा कर सके। इसके अलावा एक बार पुन: लघु एवं कुटीर उद्योग की स्थापना एवं उनके विकास के लिए उचित वातावरण बनाने की आवश्यकता है। इसके लिए प्रशिक्षण देने तथा ब्याज-मुक्त ऋण देकर युवाओं को स्वरोजगार के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। किसानों को खाली समय में दुग्ध उत्पादन, मधुमक्खी पालन, कुक्कुट पालन, मोमबत्ती, अगरबत्ती बनाने जैसे कार्यों के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इस काम में सरकार के अलावा धनी लोगों को भी आगे आना चाहिए ताकि भारत बेरोजगार मुक्त बन सके और प्रगति के पथ पर चलते हुए विकास की नई ऊँचाइयाँ छू सके।




46. भारतीय किसान

अथवा

हमारे अन्नदाता की बदहाल स्थिति


भारत कृषिप्रधान देश है। यहाँ की 70% से अधिक जनसंख्या की आजीविका का साधन कृषि है। यह जनसंख्या भोजन के अलावा अपनी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी खेती पर आश्रित रहती है। कृषि करने वाले ये किसान शहरी तथा अकृषियोग्य क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को भोजन उपलब्ध कराकर अन्नदाता की भूमिका निभाते हैं। देश की अर्थव्यवस्था में किसानों का महत्वपूर्ण योगदान है। हमारे पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री किसानों का महत्व बखूबी समझते थे, तभी उन्होंने ‘जय जवान जय किसान’ का नारा देकर किसानों को गौरवान्वित कराने का प्रयास किया। स्वयं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी किसानों के बारे में कहते थे-‘भारत का हृदय गाँवों में बसता है। वहीं सेवा और श्रम के अवतार किसान बसते हैं। ये किसान नगरवासियों के अन्नदाता और सृष्टिपालक हैं।’


देश को आजादी दिलाने में भी हमारे देश के किसानों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। देश के अन्नदाता अर्थात् भारतीय किसान का स्मरण करते ही एक दीन-दुर्बल किंतु घोर परिश्रमी और सरल स्वभाव वाले व्यक्ति की मूर्ति हमारी आँखों के सामने घूम जाती है। भारतीय किसान की परिश्रमशीलता और सर्दी, गर्मी, बरसात की परवाह किए बिना काम करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति को देखकर किसानों की उपेक्षा करने वालों को संबोधित करते हुए राष्ट्रकवि दिनकर ने कहा है-


यदि तुम होते दीन कृषक तो आँख तुम्हारी खुल जाती,

जेठ माह के तप्त धूप में, अस्थि तुम्हारी घुल जाती।

दाने बिना तरसते रहते, अस्ति तुम्हारी घुल जाती।

मुँह से बात न आती कोई कैसे बढ़-बढ़ बात बनाते तुम।


सचमुच खेती करना अत्यंत ही श्रमसाध्य कार्य है, जिसमें खून-पसीना एक करना पड़ता है। कृषि-कार्य में आराम करने का तो कोई निश्चित समय है ही नहीं। एक भारतीय किसान ऋषियों-मुनियों की तरह ब्रहममुहूर्त में उठकर अपने बैलों तथा अन्य जानवरों को चारा-पानी देकर खेत की ओर चला जाता है। सर्दी, गर्मी, बरसात की परवाह किए बिना वह खेत में निराई-गुड़ाई, जुताई-बुताई, कटाई आदि काम में जुटा रहता है। धान की रोपाई के समय न झुलसाने वाली गर्मी की परवाह रहती है और न माघ महीने की हड्डयाँ कैंपा देने वाली सर्दी में खेतों की सिंचाई करने की। उसे निराई-गुड़ाई-कटाई जैसे श्रमसाध्य कार्य सर्दी-गर्मी की परवाह किए बिना करना पड़ता है। उसका कलेवा खेत की मेड़ पर होता है और कभी भोजन भी दोपहरी में खेत के पास स्थित किसी पेड़ के नीचे हो जाता है। उसे अपनी फसलों की रखवाली करते हुए खुले आसमान के नीचे या कि ऐसे नये जक, सात बनी ही है इस प्रकरउसी दिवाँ अवता असाध्या औ को जनक सवाद नमूना होती है।


भारतीय किसान अत्यंत दीन-हीन दशा में जीवन बिताता है। अब भी दूरदराज के स्थानों और दुर्गम जगहों पर भारतीय कृषि मानसून का जुआ बनी हुई है। वहाँ सिंचाई के लिए वर्षा पर निर्भर रहना होता है। यदि समय पर वर्षा न हुई तो फसल बोने से लेकर उसके पकने तक संदेह बना रहता है। इसके अलावा उसकी फसलें प्राकृतिक आपदा, असमयवर्षा और ओलावृष्टि के अलावा टिड्डयों के आक्रमण का शिकार हो जाती हैं। देश का अन्नदाता दूसरों का पेट तो भरता है, पर उसे रूखा-सूखा खाकर जीवन बिताना पड़ता है। वह गरीबी में पैदा होता है, गरीबी में पलता-बढ़ता है और उसी तंगहाली में जीता-मरता है। पेट तो वह जैसे-तैसे भर भी लेता है, पर उसके शरीर पर शायद ही कभी पूरे कपड़े रहते हों। उसका आवास छप्परों में रहता है।


वह सूदखोरों से कर्ज लेकर अपनी खून-पसीने की कमाई ब्याज में देता रहता है। वह कुरीतियों और रुढ़ियों का शिकार होकर आजीवन घोर विपन्नता में दिन बिताता है। प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों विशेषकर ‘पूस की रात’ में ‘होरी’, और ‘कफ़न’ में घीसू माधव के चरित्र के माध्यम से इसे स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।


भारतीय किसान का स्वभाव अत्यंत सीधा और सरल होता है। साहूकार, नेता-मंत्री उसका शोषण करते हैं तथा दिवास्वप्न दिखाते हैं। हर बार चुनाव के समय उसकी दशा सुधारने का वायदा किया जाता है, पर अगले चुनाव में ही नेताओं को उसकी याद आती है। उसकी आवश्यकताएँ अत्यंत सीमित होती हैं। वह रूखा-सूखा खाकर भी संतुष्टि की अनुभूति करता है। रूखा-सूखा जो भी मिला खा लिया, मोटा-महीन जैसा भी वस्त्र मिला पहन लिया और धरती माँ की गोद में विश्राम कर लिया। प्रकृति ‘ की निकटता पाकर वह स्वस्थ रहता है। उसमें मुनियों-सा त्याग, संतोष तथा गरीबी में भी खुश रहने की प्रवृत्ति होती है तो उसकी हड्डयों में दधीचि की हड्डयों जैसी मजबूती होती है।


वह छल-कपट, ईष्या से दूर रहता है, पर दूसरों के छल-कपट का शिकार हो जाता है। किसानों की इस दयनीय स्थिति के एक नहीं अनेक कारण हैं। सर्वप्रथम उसके पास जमीन की मात्रा सीमित होना है, जिसमें वह अपने खाने भर के लिए अनाज पैदा कर पाता है, जिससे वह अपनी मूलभूत आवश्यकताएँ ही पूरी कर पाता है। दूसरे भारतीय किसानों का अशिक्षित होना। अशिक्षा के कारण भारतीय किसान अपने अधिकारों के बारे में अनभिज्ञ रहते हैं। वे सरकारी योजनाओं से अनभिज्ञ रहकर उनका लाभ नहीं उठा पाते हैं। उनकी अशिक्षा का सर्वाधिक फायदा साहूकार उठाते हैं जो थोड़े से रुपये उधार देकर उनसे मनचाही राशि पर अँगूठा लगवा लेते हैं। इसके अलावा अशिक्षा के कारण वे बैंकों तक जाने में भयभीत रहते हैं और उनसे कम ब्याज दर पर भी ऋण लेते हुए डरते हैं। उनकी दयनीय दशा का तीसरा कारण सरकार द्वारा की गई उपेक्षा है।


सरकार उनके कल्याण के लिए घोषणाएँ तो करती है, पर ये योजनाएँ कागजों तक ही सीमित रह जाती हैं। भारतीय किसान को उसकी दयनीय दशा से उभारने के लिए सरकारी प्रयास अत्यंत आवश्यक है। सर्वप्रथम किसानों को सरकारी और गैर-सरकारी ऋण से मुक्ति दिलाई जाए तथा उन्हें खाद, बीज और उन्नत यंत्रों के लिए सस्ती दरों पर ऋण दिया जाना चाहिए। उनकी उपज का समर्थन मूल्य बढ़ाया जाना चाहिए तथा उनकी फसल का बीमा करवाना चाहिए ताकि वे प्राकृतिक आपदाओं की मार से बच सकें। इसके अलावा किसानों को मुर्गीपालन, मधुमक्खी पालन, दुधारू पशुओं का पालन कर दुग्ध उत्पादन करने जैसे कृषि से जुड़े लघु उद्योगों का प्रशिक्षण देना चाहिए। देश के अन्नदाता की उन्नति के बिना राष्ट्र’ की तरक्की की कल्पना करना बेईमानी है। अत: उनकी उन्नति के लिए सरकारी संस्थाओं के अलावा निजी संस्थाओं को भी आगे आना चाहिए। हमें किसानों को सम्मान देना चाहिए, क्योंकि शहरी लोगों को भोजन मिलना, उनके परिश्रम का ही परिणाम है। डॉ० रामकुमार वर्मा ने ठीक ही कहा था-


हे ग्राम देवता ! नमस्कार

सोने-चाँदी से नहीं किंतु मिट्टी से तुमने किया प्यार,

हे ग्राम देवता नमस्कार।



47. मेरे सपनों का भारत


स्वर्ग के समान सुखद और सुंदर जिस भू-भाग पर मैं रहता हूँ, दुनिया उसे भारत के नाम से जानती-पहचानती है। प्रकृति ने हमारे देश को मुक्त हस्त से सुंदरता और समृद्ध का खजाना सौंपा है। हमारा देश इतना धनवान हुआ करता था कि प्राचीन काल में इसे ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था। यही वह देश है, जहाँ ज्ञान की गंगा बहती थी, और इसी देश ने ज्ञान का आलोक दुनिया के कोने-कोने तक पहुँचाया। इसी देश में दूध की नदियाँ बहती थीं। यह देश शांति का केंद्र रहा है, जहाँ दुनिया भर से लोग शांति की खोज में आया करते थे।


कालांतर में परिस्थितियाँ बदलीं। विदेशी आक्रमणकारियों और अंग्रेजी कुशासन के कारण ‘सोने की चिड़िया’ कहलाने वाला भारत विपन्नता के जाल में घिर गया। दूध-दही की नदियाँ न जाने क्यों सूख गई। सारी शांति अशांति में बदल गई और यहाँ गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, अलगाववाद आदि समस्याएँ लगातार बढ़ने लगीं। इससे लोगों का जीवन दुखमय हो गया। मेरे सपनों के भारत में इन समस्याओं के लिए कोई स्थान नहीं होगा। मैं चाहता हूँ कि भारत अपने उस खोए गौरव को पुन: प्राप्त करे और ज्ञान का आलोक बिखेरता हुआ विश्व का सिरमौर बने। जहाँ सारे सुखी और स्वस्थ हों, मैं ऐसे भारत का सपना देखा करता हूँ।


मैं चाहता हूँ कि हमारे भारत में एक बार पुन: रामराज की स्थापना हो। यद्यपि रामराज की स्थापना उस समय राजतंत्र के माध्यम से हुई थी, पर मैं आधुनिक भारत में रामराज की स्थापना लोकतंत्र के माध्यम से ही करना चाहता हूँ। यहाँ प्रधानमंत्री की लगभग वही स्थिति है जो किसी समय राजा की हुआ करती थी। हमारा नेतृत्व प्राचीन राजाओं राम, कृष्ण, शिवाजी, सम्राट अशोक के समान प्रभावी एवं ओजस्वी हो। वह राम और कृष्ण की तरह ही जनता का शुभचिंतक एवं रक्षक हो। हमारे प्रधानमंत्री के सलाहकार आचार्य चाणक्य जैसे कुशल कूटनीतिज्ञ एवं प्रणेता हों। उनमें ‘सादा जीवन उच्च विचार’ की भावना हो। वे फैशन तथा दिखावे से दूर रहकर अपने त्यागमयी जीवन से देश के लोगों में प्रेरणा एवं नव उत्साह भर सकें। ऐसे राष्ट्रनायक के मन में लोगों के प्रति सच्ची सहानुभूति हो, वे लोगों के सच्चे हितैषी हों। उनके मन में यह भावना अवश्य होनी चाहिए कि लोगों का सर्वविधि कल्याण ही उनके जीवन का लक्ष्य है। एक राजा को अपने कर्तव्य के प्रति सचेत करते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने कहा था-


जासु राज निज प्रजा दुखारी।

सो नृप अवश्य नरक अधिकारी।।


मेरे सपनों के भारत में कुशल नेतृत्व स्वार्थपरता से दूर रहते हुए आदर्शवादी होना चाहिए। उसके शासन-काल में ऐसी परिस्थितियाँ होनी चाहिए कि सभी को अपनी-अपनी योग्यता-क्षमता के अनुरूप कार्य मिले, जिससे सभी को सुखमय जीवन जीने का अवसर मिले। हर हाथ को काम मिलने से आधी समस्याएँ स्वयंमेव हल हो जाएँगी। लोगों को अवसर प्रदान करने में भाई-भतीजावाद, जातिवाद, धार्मिकता, क्षेत्रीयता जैसी संकीर्ण भावनाओं का त्यागकर उनसे ऊपर उठकर काम करना चाहिए ताकि नेतृत्व पर ‘अंधा बाँटे रेवड़ी पुनि-पुनि अपने को देय’ का आरोप न लगे। इससे योग्य व्यक्तियों को ही योग्य पदों पर सेवाएँ देने का अवसर मिलेगा जो समाज और देश के विकास में सहायक होगा। इससे समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार का बोलबाला कम होगा। मैं अपने सपनों के भारत में दूसरा महत्वपूर्ण बदलाव शिक्षा-नीति में चाहूँगा।


वोट के लालच में बच्चें को जबरदस्ती अगली कक्षाओं में उत्तीर्णकर उन्हें मजदूर बनाने की कुचाल बंद होनी चाहिए। ऐसी शिक्षा-नीति बनानी चाहिए, जिसमें शिक्षकों को मन लगाकर काम करने का अवसर मिले। छात्रों के मन में फेल होने का भय उत्पन्न करना ही होगा ताकि वे अपनी पढ़ाई के प्रति सजग बनें और पढ़कर उत्तीर्ण होना चाहें। उनके मनोमस्तिष्क से नकल की बात निकाल देनी चाहिए। परिश्रमपूर्वक ज्ञानार्जन से वे सुयोग्य अधिकारी और प्रशासक बनकर अपने कर्तव्य का निर्वहन करेंगे, तब रिश्वतखोरी, जालसाजी आदि में कमी आएगी। उस समय विद्वान सम्मान की दृष्टि से देखें जाएँगे। तब लोगों में धन-पिपासा कम होगी। लोग शिक्षा के प्रति जागरूक होंगे।


ऐसे वातावरण में नकली डिग्रियाँ खरीदने-बेचने, ट्रांसफर-पोस्टिंग में रिश्वतखोरी, सांसदों-विधायकों का नोट के बदले वोट देने की प्रवृत्ति, गवन, छपले, घोटाले आदि गुजरे समय की बात बनकर रह जाएगी। शिक्षा ही लोक सेवकों में सेवाभाव पैदा कर सकती है। मैं चाहता हूँ कि हमारे देश में लोगों के मन में यह बात फिर पैदा हो कि ‘नर सेवा नाराण सेवा।’ अपने सपनों के भारत में मैं चाहता हूँ कि सभी स्वस्थ एवं नीरोग रहें। इसके लिए लोगों को स्वास्थ्य सुविधाओं की जानकारी एवं सुलभता होनी चाहिए। इसके लिए देशभर में नए-नए अस्पताल, स्वास्थ्य-केंद्र खुलने चाहिए, जिससे लोग अपने इलाज के लिए यहाँ-वहाँ न भटकें।


लोगों को दवाइयाँ नि:शुल्क मिलें या अत्यंत उचित दर पर मिलें ताकि ये जनसाधारण की पहुँच में हों। इसके अलावा यहाँ अच्छे डॉक्टरों की कमी न हो। इसके लिए सुयोग्य और प्रशिक्षित डॉक्टर तैयार हों और उनमें सेवाभाव कूट-कूटकर भरा हो। उनका कार्य-व्यवहार इस तरह हो कि मरीज उन्हें ईश्वर का दूसरा रूप समझे। इससे चरक और सुश्रुत का सपना साकार होता दिखेगा। मैं अपने सपनों के भारत में चाहता हूँ कि सभी की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो। इसके लिए सबसे पहले कृषि-उत्पादन बढ़ाने पर इतना जोर दिया जाना चाहिए कि हमारे देश में जरूरत से अधिक अनाज पैदा हो। यहाँ अनाज का बफर स्टॉक हो ताकि कोई भूखे पेट न सोए और सभी को पेटभर भोजन मिले। इसके अलावा वस्त्र-उत्पादन भी इस तरह हो कि हर तन को पूरी तरह ढकने के लिए पर्याप्त वस्त्र मिले। अमीर-गरीब, ऊँच-नीच, छोटा-बड़ा कोई भी नग्न या अर्धनग्न नजर न आए।


लोगों की तीसरी मूलभूत आवश्यकता है-उनके सिर पर छत होना। मैं चाहता हूँ कि हर देशवासी के सिर पर छत हो। इसके लिए सस्ते मकान बनाकर यह जरूरत पूरी की जा सकती है। किसी देश में लोगों को सुख-सुविधाओं का लाभ तभी मिलता है, जब वे लोगों की पहुँच में हों। अर्थात् उनका मूल्य देशवासियों की जेब के अनुरूप हो। इसके लिए महँगाई पर तत्काल अंकुश लगाने की जरूरत है। महँगाई पर अंकुश लगाए बिना सभी को सुविधाएँ दिलाने की बात सोचना बेईमानी होगी। मैं चाहता हूँ कि रोटी, कपड़ा और मकान के अलावा स्कूटर, कार, फ्रिज, टेलीविजन, फोन जैसी सुविधाएँ इतनी सस्ती हो कि वे हर एक को सुलभ हो सकें। मैं चाहता हूँ कि मेरे सपनों के भारत में न्याय-व्यवस्था सुलभ, सरल और त्वरित हो।


लोगों का देश की न्याय-प्रणाली में विश्वास हो। यहाँ संचार, परिवहन, यातायात की सुविधाएँ उन्नत हों। लोगों में परस्पर सौहार्द एवं भाईचारा हो। जातीयता-धार्मिक कट्टरता, क्षेत्रीयता, भाषायी विरोध आदि से हमारा देश मुक्त हो। यहाँ लोगों में एकता हो ताकि समय पड़ने पर देश के दुश्मनों और बाहरी शक्तियों से मुकाबला किया जा सके। इसके अलावा यहाँ की जनसंख्या-वृद्ध पर अंकुश लगे ताकि सेवाओं का इतना बँटवारा न हो जाए कि लोगों के हिस्से में उनका टुकड़ा भी न आए।


अंत में मैं यही चाहूँगा कि यहाँ रोजगार के इतने अवसर हों कि सभी को काम मिले, उनकी आय अच्छी हो ताकि वे स्वस्थ, नीरोग रहते हुए राष्ट्र की उन्नति में अपना अमूल्य योगदान दे सकें और हमारा देश दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करता हुए अपने प्राचीन गौरव को पुन: प्राप्त कर ले।

48. मनोरंजन के आधुनिक साधन

अथवा

मनोरंजन के बढ़ते साधन

मनुष्य परिश्रमी प्राणी है। परिश्रम से उसका संबंध आदि काल से रहा है। आदि काल में पशुओं जैसा जीवन बिताने वाला मनुष्य अपने भोजन और अपनी सुरक्षा के लिए परिश्रम किया करता था। इससे उत्पन्न थकान से मुक्ति पाने के लिए उसे मनोरंजन की आवश्यकता हुई होंगी। मनुष्य ने उसी समय अर्थात् आदि काल से ही मनोरंजन के साधन ढूँढ़ लिए होंगे। मनुष्य ने ज्यों-ज्यों सभ्यता . की दिशा में कदम बढ़ाए, त्यों-त्यों उसके मनोरंजन के साधनों में भी बढ़ोत्तरी और बदलाव आता गया। आज प्रत्येक आयुवर्ग की रुचि के अनुसार मनोरंजन के साधन उपलब्ध हैं, जिनका प्रयोग कर लोग आनंदित हो रहे हैं।

प्राचीन काल में मनोरंजन के साधन प्राकृतिक वस्तुएँ और मनुष्य के निकट रहने वाले जीव-जंतु थे। वह पालतू पशुओं कुत्ता, खरगोश, बिल्ली, भेड़ा (नर भेड़) से मनोरंजन करता था। वह तोता, कबूतर, मुर्गा, तीतर आदि पालकर उन्हें लड़ाकर अपना मनोरंजन किया करता था। इसके अलावा वह पत्थर के टुकड़ों, कपड़े की गेंद, गुल्ली-डंडा, दौड़, घुड़दौड़ आदि से भी मन बहलाया करता था। स्वतंत्रता के बाद मनोरंजन के साधनों में भरपूर बदलाव आया।

मनोरंजन के आधुनिक साधनों में रेडियो सबसे लोकप्रिय सिद्ध हुआ। आकाशवाणी के विभिन्न केंद्रों की स्थापना और उन पर प्रसारित क्षेत्रीय भाषाओं के कार्यक्रमों ने इसकी आवाज को घर-घर तक पहुँचाया। आकार में छोटा होना, लाने-ले जाने में सरल होना, बैट्री का प्रयोग, बिजली की अनिवार्यता न होना इसकी लोकप्रियता बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुए। दूरदर्शन की खोज से पहले यह हमारे देश की करोड़ों जनता का सस्ता और सुलभ साधन था। उस समय यह हर अमीर-गरीब की जरूरत बन गया था, विशेषकर श्रमिक वर्ग की। रेडियो की एक विशेषता यह थी कि यह काम करने में बाधक नहीं साधक सिद्ध होता था। मजदूर इस पर कार्यक्रम, गीत-संगीत आदि सुनते हुए अपना मनोरंजन करता था तथा बिना थकान महसूस किए काम करता जाता था।

गृहणियाँ इसे सुनते हुए रसोई में काम करती थीं तो प्रौढ़ इसके कार्यक्रम सुनकर मनोरंजन करते थे। रेडियो छात्रों के लिए भी कम उपयोगी न था। उनके लिए विविध शैक्षिक कार्यक्रम प्रसारित किए जाते थे। इसके कार्यक्रमों में इतनी विविधता होती थी कि हर आयुवर्ग की रुचि का ध्यान रखकर इसका प्रसारण किया जाता था। एफ०एम० चैनलों के प्रसारण से एकबार फिर रेडियो की लोकप्रियता में वृद्ध हुई। हमारे देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने ‘मन की बात’ के माध्यम से लोगों से जुड़ने की जो पहल की है, उसका साधन रेडियो ही है। पहाड़ी, दुर्गम और दूर-दराज के क्षेत्रों में मनोरंजन का सर्वाधिक सुलभ, सस्ता और लोकप्रिय साधन रेडियो है। मनोरंजन के आधुनिक साधनों में दूरदर्शन जितनी तेजी से लोकप्रिय हुआ है, उतनी तेजी से कोई अन्य साधन नहीं। यह उच्च, मध्यम और निम्न वर्ग सभी को समान रूप से आकर्षित करता है।

रेडियो के माध्यम से हम प्रसारित कार्यक्रमों की आवाज ही सुन पाते थे, परंतु दूरदर्शन पर आवाज के साथ-साथ विभिन्न अदाओं और हाव-भाव वाले चित्र भी साक्षात् रूप में देखे जाते हैं। ये चित्र मानव-जीवन का प्रतिबिंब होते हैं, जिनसे दर्शक स्वयं को जुड़ा हुआ महसूस करता है। दूरदर्शन के माध्यम से हम घर बैठे-बिठाए उन स्थानों और घटनाओं को देख सकते हैं, जिन्हें हम कभी सोच भी नहीं सकते थे। दूरदर्शन पर प्रसारित कार्यक्रमों में इतनी विविधता होती है कि हर आयुवर्ग इसकी ओर आकर्षित हो जाता है। इस पर बच्चों के लिए कार्टून, छात्रों के लिए शैक्षिक कार्यक्रम, युवाओं के लिए धारावाहिक, फ़िल्में और खेलों का सजीव प्रसारण, प्रौढ़ों के लिए धारावाहिक, चर्चाएँ फ़िल्में आदि प्रसारित की जाती हैं। इसके अलावा महिलाओं और युवाओं के बीच दूरदर्शन अत्यधिक लोकप्रिय है। इतना ही नहीं किसानों, व्यापारियों, उद्यमियों आदि के लिए भी विविध रूपों में जानकारियाँ दी जाती हैं। वास्तव में दूरदर्शन ने अपने कार्यक्रमों से जनजीवन में विशेष जगह बना लिया है।

टेपरिकॉर्डर और वीडियो क्रमश: रेडियो और दूरदर्शन के समांतर उनके थोड़े सुधरे रूप हैं। इनके माध्यम से मनचाहे कार्यक्रमों को मनचाहे समय पर सुना और देखा जा सकता है, क्योंकि इन कार्यक्रमों का रिकॉडेंड रूप इन पर प्रसारित किया जाता है। लोगों का सामूहिक मनोरंजन करने के लिए विभिन्न कार्यक्रमों में भी इनका उपयोग किया जा रहा है। वीडियोगेम और कंप्यूटर पर खेले जाने वाले कुछ खेल भी बच्चों और युवाओं के मनोरंजन के साधन हैं। इन साधनों की एक कमी यह है कि इन्हें घर में बैठकर देखना या सुनना पड़ता है।

घर से बाहर मैदानों की ओर चलकर लोग विभिन्न खेलों के माध्यम से भी अपना मनोरंजन करते हैं। खेल मनोरंजन के अलावा स्वास्थ्यवर्धन के भी अच्छे साधन हैं। क्रिकेट, फुटबॉल, वालीबॉल, टेनिस, दौड़, तैराकी, व्यायाम, घुड़सवारी आदि घर से बाहर खेले जाने वाले खेलों के रूप में हमारा मनोरंजन, ज्ञानवर्धन एवं स्वास्थ्यवर्धन करते हैं। ताश, लूडो, शतरंज, कैरमबोर्ड आदि खेलों द्वारा घर बैठे-बिठाए मनोरंजन किया जाता है। आजकल पर्यटन द्वारा मनोरंजन करने की प्रवृत्ति जोरों पर है। पहले यह प्रवृत्ति राजाओं और धन-सम्पन्न लोगों तक ही सीमित थी, परंतु वर्तमान में मध्यम और निम्न वर्ग भी अपनी आय के अनुरूप दूर था निकट के स्थानों पर कुछ दिनों के लिए भ्रमण पर जाकर मनोरंजन करने लगा है। इस काम को सरकार द्वारा प्रोत्साहित किया जा रहा है। इसके लिए नए-नए पर्यटन केंद्र खोले जा रहे हैं और वहाँ तक पहुँचने के लिए सड़कों तथा यातायात के साधनों का विकास किया जा रहा है। इन पर्यटन स्थलों पर ठहरने और खाने-पीने की उत्तम व्यवस्था होने से लोगों का रुझान पर्यटन द्वारा मनोरंजन करने की ओर झुका है।

पर्यटन की दृष्टि से ऐतिहासिक स्थल, प्राचीन इमारतें, समुद्री इलाके, पहाड़ और अभयारण्य लोगों को खूब पसंद आते हैं। गोवा, केरल, ऊँटी, माउंटआबू, जयपुर, अजंता-एलोरा की गुफाएँ, शिमला, मसूरी, हरिद्वार, नैनीताल, कौसानी, दार्जिलिंग, सिक्किम, जम्मू-कश्मीर तथा कर्नाटक आदि कुछ प्रमुख पर्यटन स्थल हैं। इसके अलावा विभिन्न अभयारण्य, म्यूजियम, वन-उपवन आदि सरकार द्वारा विकसित किए गए हैं। मनोरंजन के लिए खेल सर्वोत्तम साधन है। इसे ध्यान में रखते हुए सरकार ने जगह-जगह स्टेडियम और खेल-परिसरों का निर्माण करवाया है। इनमें समय-समय पर खेल प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं। ये स्टेडियम क्रिकेट और फुटबॉल के आयोजन के समय खचाखच भर जाते हैं। इनसे लोगों का स्वास्थ मनोरंजन होता है तथा जीवन उमंग एवं उत्साह से भर जाता है। इसके अलावा खेल-संबंधी अन्य प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं, जिनमें लोगों का मनोरंजन होता है।

शिक्षित वर्ग के मनोरंजन का अन्य साधन है-पुस्तकालय में विभिन्न प्रकार की पुस्तकें पढ़ना तथा उनसे आनंद प्राप्त करना। इसके अलावा कवि-सम्मेलन, नाट्यमंचन, मुशायरे का आयोजन भी लोगों के मनोरंजनार्थ किया जाता है। हास्य कवियों की कविताएँ इस दिशा में अत्यधिक लोकप्रिय हुई हैं। वर्तमान काल में विज्ञान की प्रगति के कारण मोबाइल फोन में ऐसी तकनीक आ गई है, जिससे गीत-संगीत सुनने, फ़िल्में देखने का काम अपनी इच्छानुसार किया जा सकता है। इससे भी दो कदम आगे बढ़कर फोटो खींचने एवं सजीव रिकार्डिग की सुविधा के कारण अब मनोरंजन की दुनिया सिमटकर मनुष्य की जेब में समा गई है। इस प्रकार आज अपनी आय के अनुसार व्यक्ति अपना मनोरंजन कर सकता है क्योंकि मनोरंजन की दुनिया बहुत विस्तृत हो चुकी हैं।


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