Chapter 4 आय और रोजगार का निर्धारण Notes in Hindi ~ Only Study Gyan

Chapter 4 आय और रोजगार का निर्धारण Notes in Hindi ~ Only Study Gyan

 
4. आय और रोजगार का निर्धारण

समग्र माँग :-

एक अर्थव्यवस्था के समस्त क्षेत्रों द्वारा एक दिए हुए आय स्तर पर एवं एक निश्चित समयावधि में समस्त अंतिम वस्तुओं एवं सेवाओं के नियोजित क्रय के कुल मूल्य को समग्र मांग कहते हैं । 
➡️ एक अर्थव्यवस्था में वस्तुओं व सेवाओं की कुल मांग को समग्र मांग ( AD ) कहते हैं इसे कुल व्यय के रूप में मापा जाता है । 

समग्र मांग तालिका -

आय और समग्र मांग या कुल व्यय के बीच का संबंध तालिका के रूप में दर्शाया जाना समग्र मांग तालिका कहलाता है।

समग्र मांग वक्र : 

समग्र मांग तालिका का रेखाचित्र के रूप में प्रस्तुतिकरण समग्र मांग वक्र कहलाता है।
नोट : AD वक्र 'Y' अक्ष अर्थात् समग्र मांग की अक्ष से ही प्रारंभ होता है।
🔹शून्य आय के स्तर पर भी उपभोक्ता के द्वारा उपभोग किया जाता है तथा विनियोग ( Ia - स्वायत्त विनियोग ) स्थिर होता है।

समग्र मांग के मुख्य घटक :- 

समग्र मांग के घटक को दो वर्गों में बांटा गया है -

1. बंद अर्थव्यवस्था के अंतर्गत समग्र मांग की घटक :

(a). दो क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था के अंतर्गत समग्र मांग के घटक - 
AD = परिवार क्षेत्र + फर्म क्षेत्र
AD = C + I
(b). तीन क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था के अंतर्गत समग्र मांग के घटक -
AD =  परिवार क्षेत्र + फर्म क्षेत्र + सरकार
AD = C + I + G

2. खुली अर्थव्यवस्था के अंतर्गत समग्र मांग की घटक :

(a). चार क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था के अंतर्गत समग्र मांग के घटक -
AD = परिवार क्षेत्र + फर्म क्षेत्र + सरकारी क्षेत्र + विदेशी क्षेत्र
AD = C + I + G + ( X - M ) ➡️ Net Export

समग्र पूर्तिः-

एक अर्थव्यवस्था की सभी उत्पादक इकाईयों द्वारा एक निश्चित समयावधि में सभी अंतिम वस्तुओं एवं सेवाओं के नियोजित उत्पादन के कुल मूल्य को समग्र पूर्ति कहते हैं ।
➡️ एक अर्थव्यवस्था में वस्तुओ और सेवाओं की कुल पूर्ति को समग्र पूर्ति कहते है। 
➡️ समग्र पूर्ति के मौद्रिक मूल्य को ही राष्ट्रीय आय कहते हैं । अर्थात् राष्ट्रीय आय सदैव समग्र पूर्ति के समान होती है । 
AD = C + S 
समग्र पूर्ति देश के राष्ट्रीय आय को प्रदर्शित करती है । 
AS = Y ( राष्ट्रीय आय )

समग्र पूर्ति की तालिका : 

आय और समग्र पूर्ति के बीच का संबंध तालिका के रूप में दर्शाया जाता है, समग्र पूर्ति तालिका कहलाता है।

समग्र पूर्ति वक्र : 

समग्र पूर्ति तालिका का रेखाचित्र के रूप में प्रस्तुतिकरण समग्र पूर्ति वक्र कहलाता है।

नोट : समग्र पूर्ति रेखा आय और समग्र पूर्ति के बीच धनात्मक या सीधा या समान आनुपातिक संबंध को दर्शाता है। जिसके कारण AS मूल बिंदु पर 45° का कोण बनता है।

उपभोग फलनः- 

उपभोग फलन आय ( Y ) और उपभोग ( C ) के बीच फलनात्मक सम्बन्ध को दर्शाता है ।
     C = f ( Y )          ,   C = c + bY
यहाँ  ,
  •   C = उपभोग 
  •   Y = आय 
  •   f = फलनात्मक सम्बन्ध 
➡️ जब आय शून्य होता है तो उपभोग अपने न्यूनतम स्तर पर होता है जिसे स्वायत्त उपभोग (Autonomous Consumption) कहते हैं। इस स्थिति में बचत ऋणात्मक होता है।
Y = 0, c ➡️ Minimum, S ➡️ -ve

उपभोग फलन तालिका : 




स्वायत्त उपभोग ( C ) :-
आय के शून्य स्तर पर जो उपभोग होता है उसे स्वायत्त उपभोग कहते हैं । जो आय में परिवर्तन होने पर भी परिवर्तित नहीं होता है , अर्थात् यह आय बेलोचदार होता है ।

प्रत्याशित उपभोग :-
 राष्ट्रीय आय के मिश्रित स्तर पर नियोजित निवेश को कहते है ।

प्रेरित उपभोग :- 
उस उपभोग स्तर से है जो प्रत्यक्ष रूप से आय पर निर्भर करता है । 0 

उपभोग प्रवृति :- 

उपभोग प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है
( 1 ) औसत उपभोग प्रवृत्ति ( APC ) 
( 2 ) सीमांत उपभोग प्रवृत्ति ( MPC ) 

औसत उपभोग प्रवृत्ति ( APC ) :-

औसत प्रवृत्ति को कुल उपभोग तथा कुल आय के बीच अनुपात के रूप में परिभाषित किया जाता है । 
APC = कुल उपभोग ( C ) / कुल आय ( Y ) 

🔹APC के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण बिन्दु :-
( i ) APC इकाई से अधिक रहता है जब तक उपभोग राष्ट्रीय आय से अधिक होता है । समविच्छेद बिन्दु से पहले , APC > 1 . 
( ii ) APC = 1 समविच्छेद बिन्दु पर यह इकाई के बराबर होता है जब उपभोग और आय बराबर होता है । C = Y 
( iii ) आय बढ़ने के कारण APC लगातार घटती है । 
( iv ) APC कभी भी शून्य नहीं हो सकती , क्योंकि आय के शून्य स्तर पर भी स्वायत्त उपभोग होता है । 

सीमांत उपभोग प्रवृत्ति ( MPC ) :-

उपभोग में परिवर्तन तथा आय में परिवर्तन के अनुपात को , सीमांत उपभोग प्रवृत्ति कहते हैं । 

➡️  MPC का मान शून्य तथा एक के बीच में रहता है । लेकिन यदि सम्पूर्ण अतिरिक्त आय उपभोग हो जाती है 
तब ∆C = ∆Y , अत : MPC = 1
इसी प्रकार यदि सम्पूर्ण अतिरिक्त आय की बचत कर ली जाती है
 तो ∆C = 0 . अत : MPC = 0 . 

बचत फलन :- 

बचत और आय के बीच फलनात्मक सम्बन्ध को दर्शाता है । 
S = f ( Y ) 
यहाँ ,
  • S = बचत 
  • Y = आय 
  • f = फलनात्मक सम्बन्ध 

बचत फलन तालिका : 


बचत प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है : - 

1. औसत बचत प्रवृत्ति ( APS ) :-

कुल बचत तथा कुल आय के बीच अनुपात को APS कहते हैं ।

औसत बचत प्रवृत्ति APS की विशेषताएँ :-
1 . APS कभी भी इकाई या इकाई से अधिक नहीं हो सकती क्योंकि कभी भी बचत आय के बराबर तथा आय से अधिक नहीं हो सकती । 
2 . APS शून्य हो सकती है : समविच्छेद बिन्दु पर जब C = Y है तब S = 0 . 
3 . APS ऋणात्मक या इकाई से कम हो सकता है । समविच्छेद बिन्दु से नीचे स्तर पर APS ऋणात्मक होती है । क्योंकि अर्थव्यवस्था में अबचत ( Dissavings ) होती है तथा C > Y . 
4 . APS आय के बढ़ने के साथ बढ़ती हैं 

2. सीमांत बचत प्रवृत्ति ( MPS ) :- 

आय में परिवर्तन के फलस्वरूप बचत में परिवर्तन के अनुपात को सीमांत बचत प्रवृत्ति कहते हैं ।


✴️ MPS का मान शून्य तथा इकाई ( एक ) के बीच में रहता है । लेकिन यदि 
( i ) यदि सम्पूर्ण अतिरिक्त आय की बचत की ली जाती है , तब AS = AY , अत : MPS = 1 . 
( ii ) यदि सम्पूर्ण अतिरिक्त आय , उपभोग कर ली जाती है , तब AS = 0 , अतः MPS = 0 . 

औसत उपभोग प्रवृत्ति ( APC ) तथा औसत प्रवृत्ति ( APS ) में सम्बन्ध :-

सदैव APC + APS = 1 यह सदैव ऐसा ही होता है , क्योंकि आय को या तो उपभोग किया जाता है या फिर आय की बचत की जाती है । 
प्रमाणः Y = C + S
दोनों पक्षों का Y से भाग देने पर 
          

         1 = APC + APS 
          APC = 1 - APS
          APS = 1 - APC | 
इस प्रकार APC तथा APS का योग हमेशा इकाई के बराबर होता है । 

सीमांत उपभोग प्रवृत्ति ( MPC ) तथा सीमांत बचत प्रवृत्ति ( MPS ) में सम्बन्ध:- 

सदैव MPC + MPS = 1 ; MPC हमेशा सकारात्मक होती है तथा 1 से कम होती है । इसलिए MPS भी सकारात्मक तथा 1 से कम होनी चाहिए
प्रमाण ∆Y = ∆C + ∆S . 

दोनों पक्षों को AY से भाग करने पर 


1 = MPC + MPS
MPC = 1 - MPS
MPC = 1 - MPC 


निवेश फलन (Investment Function) :

        एक अर्थव्यवस्था में एक वित्तीय वर्ष में पूँजीगत वस्तुओं के स्टॉक में वृद्धि को पूँजी निर्माण / निवेश कहते हैं । 
I = f( MEC, r )
जहां, 
        I = Investment ( निवेश)
        f = function (फलन)
        MEC = Marginal Efficiency of Capital (पूंजी की सीमांत क्षमता
       r = rate of Interest (ब्याज की दर)
➡️ पूंजी की सीमांत क्षमता नयी पूंजी संपत्ति द्वारा लागतों को मिलाकर प्राप्त होने वाली भावी आय ज्ञात किया जाता है।
➡️ निश्चित समयावधि के लिए तरलता परित्याग का पुरस्कार ब्याज की दर कहलाता है।
➡️ निवेश दो प्रकार के होते हैं -

1.  प्रेरित निवेश :-

प्रेरित निवेश वह निवेश है जो लाभ कमाने की भावना से प्रेरित होकर किया जाता है । प्रेरित निवेश का आय से सीधा सम्बन्ध होता है ।
I = Ia + Ii



2. स्वतंत्र ( स्वायत्त ) निवेश :- 

स्वायत्त निवेश वह निवेश है जो आय के स्तर में परिवर्तन से प्रभावित नहीं होता अर्थात् आय निरपेक्ष होता है । 


नियोजित बचत :- 

एक अर्थव्यवस्था के सभी गृहस्थ ( बचतकर्ता ) एक निश्चित समय अवधि में आय के विभिन्न स्तरों पर जितनी बचत करने की योजना बनाते हैं , नियोजित बचत कहलाती है । 


नियोजित निवेश :- 

एक अर्थव्यवस्था के सभी निवेशकर्ता आय के विभिन्न स्तरों पर जितना निवेश करने की योजना बनाते हैं , नियोजित निवेश कहलाती है ।

वास्तविक बचत :-

अर्थव्यवस्था में दी गई अवधि के अंत में आय में से उपभोग व्यय घटाने के बाद , जो कुछ वास्तव में शेष बचता है , उसे वास्तविक बचत कहते हैं । 

वास्तविक निवेश :-

किसी अर्थव्यवस्था में एक वित्तीय वर्ष में किए गए कुल निवेश को वास्तविक निवेश कहा जाता है । इसका आंकलन अवधि के समाप्ति वास्तविक पर किया जाती है । 

आय का संतुलन स्तर :-

आय का वह स्तर है जहाँ समग्र माँग , उत्पादन के स्तर ( समग्र पूर्ति ) के बराबर होती है अत : AD = AS या s = I . 

पूर्ण रोजगार :-

इससे अभिप्राय अर्थव्यवस्था की ऐसी स्थिति से है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति जो योग्य है तथा प्रचलित मौद्रिक मजदूरी की दर पर काम करने को तैयार है , को रोजगार मिल जाता है ।

ऐच्छिक बेरोजगारी :-

ऐच्छिक बेरोजगारी से अभिप्रायः उस स्थिति से है , जिसमें बाजार में प्रचलित मजदूरी दर पर कार्य उपलब्ध होने के बावजूद योग्य व्यक्ति कार्य करने को तैयार नहीं है । 

अनैच्छिक बेरोजगारी :-

अर्थव्यवस्था की ऐसी स्थिति है जहाँ कार्य करने के इच्छुक व योग्य व्यक्ति प्रचलित मजदूरी दर पर कार्य करने के लिए इच्छुक है लेकिन उन्हें कार्य नहीं मिलता । 

आय, रोजगार तथा उत्पादन का निर्धारण : 

आय, रोजगार तथा उत्पादन के निर्धारण के लिए दो महत्वपूर्ण दृष्टिकोण है -
1. AD = AS दृष्टिकोण
2. S = I दृष्टिकोण

1. समग्र मांग समग्र पूर्ति दृष्टिकोण : 

➡️ प्रोफेसर केल्स के अनुसार आए रोजगार और उत्पादन के निर्धारण समग्र मांग और समग्र पूर्ति के आपस में बराबर होने से होता है।
ie. AD = AS



➡️ जब समग्र मांग और समग्र पूर्ति बिंदु 'E' पर बराबर होता है तो राष्ट्रीय आय संतुलन का निर्धारण के साथ-साथ रोजगार और उत्पादन का भी निर्धारण होता है जिसे प्रभावपूर्ण मांग भी कहते हैं।

2. बचत निवेश दृष्टिकोण :

➡️ जब बचत और निवेश आपस में बराबर होते हैं तो किसी अर्थव्यवस्था के अंतर्गत आय, रोजगार और उत्पादन का निर्धारण होता है।


🔘 अर्थव्यवस्था सादापुरने रोजगार की स्थिति में रहती है ➡️ J.B. किन्स।
🔘 जे.बी. से के अनुसार "पूर्ति अपनी मांग स्वयं उत्पन्न करती है।" 
से का बाजार नियम प्रतिष्ठित रोजगार सिद्धांत पर आधारित है वे एक फ्रांसीसी अर्थशास्त्री थे जिन्होंने बाजार नियम को 19वीं शताब्दी में प्रतिपादित किया जिस से का बाजार नियम के नाम से जाना जाता है।

'से' का बाजार नियम :

पूर्ति अपनी मांग स्वयं उत्पन्न करती है अर्थात उत्पादन के प्रत्येक क्रिया से आए सृजित होती है औरों से मांग उत्पन्न होती है जिससे समस्त उत्पादन बिक जाते हैं।

🔹से के बाजार नियम की आलोचनाएं :
  • अवास्तविक मान्यताएं
  • पूर्ति स्वयं मांग उत्पन्न नहीं करती ➡️ कींस
  • दीर्घकालीन संतुलन की मान्यता गलत।
  • सारे बचत का विनियोग होना जरूरी नहीं।
  • मजदूरी कटौती से रोजगार नहीं बढ़ता।
  • मुद्रा तटस्थ नहीं है।

समता बिंदु :

समता बिंदु से तात्पर्य आए के अस्तर में उस बिंदु से है जिन बिंदुओं पर उपभोग और आए अर्थात समग्र मांग और समग्र पूर्ति आपस में बराबर हो जाता है।

🔘 लोचशील कीमत, लोचशील ब्याज दर , लोचशील मजदूरी के कारण अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार संतुलन की अवस्था सत्ता स्थापित हो जाता है।

🔘 आय तथा रोजगार निर्धारण के आधुनिक सिद्धांत के अनुसार किसी अर्थव्यवस्था में एक निश्चित समय के अंतर्गत आय तथा रोजगार का निर्धारण उसी स्तर पर होता है,  जहां समग्र मांग और समग्र पूर्ति है बराबर होते हैं । इस स्थिति में बचत और निवेश भी बराबर होते हैं।

निवेश गुणक :- 

निवेश में परिवर्तन के फलस्वरूप आय में परिवर्तन के अनुपात को निवेश गुणक कहते हैं ।
➡️इसे अंग्रेजी अक्षर के छोटा 'k' के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है।
➡️MPC और k में धनात्मक संबंध होता है।

➡️ कैंसर के रोजगार सिद्धांत में गुना का विशेष महत्व है प्रोफ़ेसर किसका विश्वास था कि विनियोग में वृद्धि करके आए में कई गुना वृद्धि की जा सकती है।
➡️ गुणक का आकार सदैव MPC पर निर्भर करता है।


➡️ गुणक और MPC के बीच सीधा संबंध पाया जाता है।
MPC⬆️ ➡️ k⬆️
MPC ⬇️ ➡️ k⬇️
परंतु गुणक और MPS के बीच विपरीत संबंध पाया जाता है।
MPS ⬆️ ➡️ k⬇️
MPS ⬇️ ➡️ k⬆️

गुणक प्रक्रिया : इस प्रक्रिया के अंतर्गत निवेश में परिवर्तन के फल स्वरुप आए में परिवर्तन होता है जिससे उपभोग में भी परिवर्तन होता है। परिणाम स्वरूप एक बार पुनः आए में परिवर्तन देखने को मिलता है जो गुणांक प्रक्रिया को स्पष्ट करता है।

अधिमंग / आधिक्य मांग : वह स्थिति जिसमें समग्र मांग किसी देश की अर्थव्यवस्था के अंतर्गत पूर्ण रोजगार स्तर के अनुरूप समग्र पूर्ति से अधिक होती है।

➡️ अधिमांग के कारण अर्थव्यवस्था में स्फीति अंतराल उत्पन्न होता है

स्फीति अंतराल : वास्तविक समग्र मांग और पूर्ण रोजगार संतुलन को बनाए रखने के लिए आवश्यक सामग्री मांग के बीच का अंतर स्फीति अंतराल कहलाता है।


➡️ स्फीति अंतराल समग्र मांग के आधे के को महा पता है यह अर्थव्यवस्था में स्थिति कारी प्रभाव उत्पन्न करता है।

अधिमांग को ठीक करने के उपाय : 
  • राजकोषीय नीति या बजट में कमी।
  • आय नीति
  • व्यय नीति
  • सार्वजनिक ऋण
  • घाटे की वित्त व्यवस्था।
  • मौद्रिक नीति।
  • मात्रात्मक उपाय
  • बैंक दर
  • खुले बाजार की क्रियाएं।
  • नकद रिजर्व अनुपात (CRR)
  • संवैधानिक तरल अनुपात (SLR)
  • गुणात्मक उपाय
  • सीमांत आवश्यकताएं
  • नैतिक दबाव।
पूर्ण रोजगार : यह अर्थव्यवस्था की एक ऐसी स्थिति है जिसमें प्रति व्यक्ति जो योग्य है तथा प्रचलित मौद्रिक मजदूरी की दर पर काम करने को तैयार होता है और उसे रोजगार मिल जाता है।

न्यून मांग / आभावी मांग : वह स्थिती जिसमें समग्र मांग किसी देश की अर्थव्यवस्था के अंतर्गत पूर्ण रोजगार स्तर के अनुरूप समग्र पूर्ति से कम होती है।
AD < AS


➡️ न्यून मांग के कारण अर्थव्यवस्था में अवस्फीतिक अंतराल उत्पन्न होता है।

अवस्फीतिक अंतराल : वास्तविक समग्र मांग और पूर्ण रोजगार संतुलन को बनाए रखने के लिए आवश्यक सामग्री मांग के बीच का अंतर आवास्फितिक अंतराल कहलाता है । यह समग्र मांग में कमी को दर्शाता है साथ ही साथ अर्थव्यवस्था में अवस्फीति को उत्पन्न करता है।
अभावी मांग के कारण किसी देश की अर्थव्यवस्था के अंतर्गत आवास्फिति अंतराल उत्पन्न होता है जिसे एक रेखा चित्र के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है।


अभावी मांग को ठीक करने के उपाय :
  • राजकोषीय नीति (सरकार) -
    • सार्वजनिक व्यय में वृद्धि।
    • करो में कमी।
    • सार्वजनिक ऋणों में कमी।
    • घाटे की वित्त व्यवस्था।
  • मौद्रिक नीति (केंद्रीय बैंक - RBI) -
    • बैंक दर।
    • खुले बाजार की क्रियाएं।
    • सदस्य बैंकों के रिजर्व अनुपात में परिवर्तन।
    • सीमांत अनिवार्यताओं में परिवर्तन।

🔘जब समग्र मांग ( AD ) , पूर्ण रोजगार स्तर पर समग्र पूर्ति ( AS ) से अधिक हो जाए तो उसे अत्यधिक मांग कहते हैं । 
🔘जब समग्र मांग ( AD ) , पूर्ण रोजगार स्तर पर समग्र पूर्ति ( AS ) से कम होती है , उसे अभावी मांग कहते हैं । 
🔘स्फीतिक अंतराल , वास्तविक समग्र मांग और पूर्ण रोजगार संतुलन को बनाए रखने के लिए आवश्यक समग्र मांग के बीच का अंतर होता है । यह समग्र मांग के आधिक्य का माप है । यह अर्थव्यवस्था में स्फीतिकारी प्रभाव उत्पन्न करता है । 
🔘अवस्फीति अंतराल , वास्तविक समग्र मांग और पूर्ण रोजगार संतुलन को बनाए रखने के आवश्यक समग्र मांग के बीच का अंतर होता है । यह समग्र मांग में कमी का माप है । यह अर्थव्यवस्था अवस्फीति ( मंदी ) उत्पन्न करता है ।



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