Chapter 6 खुली अर्थव्यवस्था : समष्टि अर्थशास्त्र Notes in Hindi ~ Only Study Gyan
Class : 12th
Subject : Economics (अर्थशास्त्र)
Book : Macro Economics (समष्टि अर्थशास्त्र)
Chapter : 6. खुली अर्थव्यवस्था : समष्टि अर्थशास्त्र
Type : Notes
भुगतान शेष :-
🔹भुगतान शेष एक वर्ष की अवधि में किसी देश के सामान्य निवासियों और शेष विश्व के बीच समस्त आर्थिक लेन - देनों का एक विस्तृत एवं व्यवस्थित विवरण होता है । इसे विदेशी विनिमय के वार्षिक अन्त : प्रवाह तथा बाह्य प्रवाह का लेखा भी कहा जाता है ।
भुगतान संतुलन का भुगतान शेष हमेशा संतुलित अवस्था में होता है :
👉Jams Ingram के अनुसार " भुगतान शेष एक देश के उन सभी आर्थिक लेन-देन का संक्षिप्त विवरण है जो उसके एवं विशेष विश्व के निवासियों के बीच एक दिए हुए समय में किए जाते हैं"।
भुगतान शेष के घटक :-
1. चालू खाता :-
इस खाते में वस्तुओं व सेवाओं के निर्यात एवं आयात और चालू अन्तरणों की प्राप्तियों व भुगतान के विवरण दर्ज होते हैं । जो चालू वर्ष (एक वर्ष) में पूरे किए जाते है।
चालू खाते का संतुलन = (दृश्य + अदृश्य निर्यात) - (दृश्य + अदृश्य आयात) = 0
चालू खाते की मदें :-
1 . दृश्य मदें ( वस्तुओं का आयात - निर्यात )
2 . अदृश्य मदें ( सेवाओं का आदान - प्रदान )
3 . एक पक्षीय अन्तरण
- वस्तुओं के परिवहन लागत।
- व्यापार, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं मनोरंजन हेतु की गई सेवाओं से संबंधित व्यय।
- बीमा के प्रीमियम का भुगतान।
- विभिन्न सेवाओं से संबंधित भुगतान।
- अनुदान और प्रवासियों द्वारा प्रेषित राशि।
- व्यापारिक विऋणों का भुगतान।
2. पूँजीगत खाता :-
🔹इस खाते में परिसम्पत्तियों जैसे मुद्रा स्टॉक , बन्ध पत्र आदि अर्थात् किसी अर्थव्यवस्था और शेष विश्व के बीच परिसम्पत्तियों एवं दायित्वों के स्वामित्व का हस्तांतरण शामिल होते हैं ।
➡️ पूंजी खाते में सभी लेनदेन केवल वित्तीय अंतरणो से ही संबंधित होते हैं इसलिए इसका देश के उत्पादन आय एवं रोजगार पर कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ता है।
पूँजीगत खाते की मदें :-
1 . प्रत्यक्ष विदेशी निवेश , पोर्टफोलियो निवेश
2 . विदेशी ऋण
3 . विदेशी मुद्रा कोष में परिवर्तन पूँजीगत खाते की मदें सम्पत्ति व दायित्वों में परिवर्तन लाती हैं ।
- अल्प वाद्र कालीन अंतरराष्ट्रीय पूंजीगत अंतरणो।
- स्वर्ण का आदान प्रदान
- निजी भुगतान।
- राष्ट्रीय संस्थानों से संबंधित भुगतान तथा प्राप्तियां।
- सरकारी ऋण, ब्याज, अनुदान आदि।
व्यापार शेष / संतुलन :-
🔹किसी देश के सामान्य निवासियों ओर शेष विश्व के बीच दृश्य मदों ( वस्तुओं ) के आयात तथा निर्यात का अन्तर होता है ।
🔹व्यापार संतुलन को व्यापार से सिया अदायगी शेष के नाम से जाना जाता है
🔹व्यापार संतुलन का वितरण तैयार करते समय दोहरी प्रवृष्टि प्रणाली अपनाई जाती है जो इस प्रकार है -
1. लेनदारियां (credit / Receipty) : इसके अंतर्गत विदेशी मुद्रा की लेनदारियों का विवरण होता है तथा या धनात्मक पक्ष को दर्शाता है।
2. देनदारियां (Debit / payments) : इसके अंतर्गत देश की समस्त देनदारियों के विवरण को दर्शाया जाता है तथा यह ऋण आत्मक पक्ष को स्पष्ट करता है।
➡️ व्यापार शेष तीन प्रकार का होता है -
1. संतुलित व्यापार शेष :
( निर्यात - आयात ) = 0
( Ex - Im ) = 0
Ex = Im
2. अनुकूल व्यापार शेष :
( निर्यात - आयात ) > 0
( Ex - Im ) > 0
Ex > Im
3. प्रतिकूल व्यापार शेष :
( निर्यात - आयात ) < 0
( Ex - Im ) < 0
Ex < Im
भुगतान शेष सदैव संतुलित होने के कारण :
🔹भुगतान से सैया भुगतान संतुलन हमेशा असंतुलित होता है इसके संतुलित होने के प्रमुख कारण इस प्रकार है -
इसके अंतर्गत लेनदेन के दोनों पक्ष ( लेनदारियों और देनदारियों ) योग राशि में बराबर होते हैं तथा उन्हें एक-दूसरे के विरुद्ध लिखा जाता है अर्थात लेखक के संदर्भ में भुगतान से सदैव संतुलित रहता है।
🔹लेनदारियां और देनदारियों दोनों के अंतर को ऋण द्वारा पूर्ति कर के समान दिखाया जाता है जिसके कारण में भुगतान से समय का संतुलित हो जाता है।
➡️ इस प्रकार के संतुलन में चालू खाता और पूंजी खाता को ध्यान में रखना आवश्यक है यदि केवल चालू खत्म कर लिया जाए तो मतदान से सिया भुगतान संतुलन असंतुलित हो सकता है।
🔹भुगतान शेष में असंतुलन आने के कारण :
यदि स्वायत्त डेबिट ( भुगतानों ) से स्वायत्त क्रेडिट ( प्राप्तियां ) अधिक हो तो भुगतान संतुलन में अतिरेक होता है तथा इसके विपरीत होने पर भुगतान संतुलन में घटा होता है।
भुगतान शेष में असंतुलन के निम्न कारण है -
- विकास एवं विनियोग कार्यक्रम।
- चक्रीय उच्चावचन।
- आय एवं कीमत प्रभाव।
- निर्यात मांग में परिवर्तन।
- विकसित देशों में आयात प्रतिबंध।
- विकासशील देशों में तीव्र जनसंख्या वृद्धि दर।
- अंतरराष्ट्रीय ऋण एवं विनियोग।
- प्रदर्शन प्रभाव।
विकासशील देशों में भुगतान शेष असंतुलित होने के कारण :
- प्राथमिक उत्पादन के कैंपों में अस्थाई प्रवृत्ति।
- विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों में विनियोग में कमी।
- निर्यातो के विशिष्टिकरण में अंतर।
- विश्व बाजार में विकासशील देशों की वस्तुओ के विज्ञापन एवं प्रतिष्ठा का आभाव।
भुगतान शेष के असंतुलन / असाम्य में सुधार के उपाय :
1. मौद्रिक उपाय :
- मुद्रा संकुचन
- विनिमय नियंत्रण
- अवमूल्यन
- विनिमय मूल्य ह्रास
2. गैर मौद्रिक उपाय :
- आयतों पर प्रतिबंध
- प्रशुल्क (आयात कर)
- निर्यात प्रोत्साहन कार्यक्रम
- विदेशी पर्यटकों को प्रोत्साहन
विकासशील देशों के प्रतिकूल भग्तान शेष में सुधार के उपाय :
- अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली में सुधार
- विनिमय की दर स्थिर।
- पूंजी के पलायन पर रोक
- विदेशी विनियोग को प्रोत्साहन (FDI)
- जनसंख्या नियंत्रण
- सुरक्षित भंडार का निर्माण
- बचत एवं विनियोग को प्रोत्साहन
- निर्यातों में विविधता एवं नए बाजारों की खोज
- नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना
स्वायत्त सौदों :-
से अभिप्राय उन आर्थिक लेन देनों से है जिन्हें लाभ के उद्देश्य से किया जाता है । इनका उद्देश्य भुगतान शेष खाते में सन्तुलन बनाए रखना नहीं होता । इन्हे रेखा के ऊपर की मदें कहा जाता है ।
समायोजन मदें :-
वे आर्थिक सौदें हैं जिन्हें किसी देश की सरकार द्वारा भुगतान शेष को सन्तुलित बनाए रखने के लिए किया जाता है , इनका उद्देश्य भुगतान शेष खाते के असन्तुलन को दूर करना होता है , इन्हें रेखा के नीचे की मदें भी कहा जाता है ।
भुगतान शेष में घाटा :-
जब स्वायत्त प्राप्तियों का मूल्य , स्वायत्त भुगतान के मूल्य से कम हो जाता है तो भुगतान शेष में घाटा कहते हैं ।
विनिमय दर :-
एक देश की करेन्सी का जिस दर पर दूसरे देश की करेन्सी से विनिमय किया जाता है उसे विदेशी विनिमय दर कहते हैं ।
स्थिर विदेशी विनिमय दर :-
वह विदेशी विनिमय दर जिसका निर्धारण या तो देश की सरकार या मौद्रिक अथॉरिटी ( केन्द्रीय बैंक ) करें उसे स्थिर विदेशी विनिमय दर कहते हैं ।
लोचशील या नम्य विनिमय दर :-
लोचशील या नम्य विनिमय दर का निर्धारण विदेशी विनिमय की मांग तथा पूर्ति की शक्तियों पर निर्भर करता है । विदेशी मुद्रा की मांग तथा नम्य विनिमय दर में विपरीत सम्बन्ध होता है । यदि विनिमय दर ऊँची है तो विदेशी मुद्रा की मांग कम होगी और विलोमशः इसके विपरीत विदेशी विनिमय दर व विदेशी मुद्रा की पूर्ति में प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है । यदि विदेशी विनिमय दर अधिक है , तो विदेशी मुद्रा की पूर्ति अधिक होगी ।
विदेशी मुद्रा मांग के स्रोत :-
( i ) विदेशों में वस्तुओं व सेवाएँ खरीदने के लिए
( ii ) विदेशों में वित्तीय परिसम्पत्तियां ( जैसे बांड , शेयर ) खरीदने के लिए
( iii ) विदेशी मुद्राओं के मूल्यों पर सट्टेबाजी के लिए
( iv ) विदेशो में प्रत्यक्ष निवेश ( जैसे - दुकान , मकान , फैक्टरी खरीदना ) के लिए
विदेशी मुद्रा की पूर्ति के स्रोत :-
( i ) विदेशियों द्वारा घरेलू बाजार में प्रत्यक्ष ( वस्तुओं व सेवाओं की ) खरीद
( ii ) विदेशियों द्वारा प्रत्यक्ष निवेश
( iii ) विदेशी पर्यटकों का हमारे देश में भ्रमण
( iv ) विदेशों में रहने वाले अनिवासी भारतीय द्वारा भेजा गया धन या प्रेषणाएँ ( एक पक्षीय हस्तातरण )
( v ) वस्तुओं एवं सेवाओं का निर्यात
नम्य विनिमय दर के गुण :-
( i ) विदेशी मुद्राओं के भण्डार की आवश्यकता नहीं
( ii ) संसाधनों का सर्वोत्तम आबंटन
( iii ) भुगतान सन्तुलन खाते में स्वतः समायोजन
( iv ) व्यापार ओर पूँजी के आवागमन में आने वाली रूकावटों को दूर करना
नम्य विनिमय दर के दोष :-
( i ) विदेशी विनिमय दर में अस्थिरता
( ii ) सट्टेबाजी को बढ़ावा
नम्य विनिमय दर का निर्धारण :-
नम्य विनिमय दर प्रणाली के अन्तर्गत , विदेशी विनिमय दर का निर्धारण बाजार शक्तियों द्वारा होता हैं । दूसरे शब्दों में सन्तुलन विनिमय दर का निर्धारण विदेशी मुद्रा की मांग तथा उसकी पूर्ति द्वारा होता है ।
विदेशी विनिमय की मांग तथा विनिमय दर में विपरीत सम्बन्ध होता है । इसलिए विदेशी विनिमय की मांग वक्र ऋणात्मक ढाल की होती है । विदेशी विनिमय की पूर्ति तथा विनिमय दर में धनात्मक ( प्रत्यक्ष ) सम्बन्ध होता है । इसलिए विदेशी विनिमय की पूर्ति वक्र धनात्मक ढाल की होती है । दोनों वक्रों के अतः क्रिया द्वारा सन्तुलन विदेशी विनिमय दर का निर्धारण होता है ।
सन्तुलन विनिमय दर :-
वह विदेशी विनिमय दर जिस पर विदेशी विनिमय की मांग और पूर्ति दोनों बराबर होते हैं उसे सन्तुलन विदेशी विनिमय दर कहते हैं । चित्र में OR संतुलन विनिमय दर है ।
प्रबंधित तरणशीलता :-
एक ऐसी प्रणाली है , जिसमें केन्द्रीय बैंक विदेशी विनिमय दर के निर्धारण को बाजार शक्तियों पर छोड़ देता है परन्तु समय - समय पर आवश्यकता के अनुसार दर को प्रभावित करने के लिए हस्तक्षेप भी करता है । जब विदेशी विनिमय की दर अत्यधिक निम्न हो केन्द्रीय बैंक विदेशी विनिमय का क्रय करना शुरू कर देता है और जब विदेशी विनिमय की दर अधिक हो तो विदेशी विनिमय का विक्रय शुरू कर देता है ।
अवमूल्यनः-
जब देश की सरकार अथवा केन्द्रीय बैंक घरेलू मुद्रा का बाह्य मूल्य घटाती है तो उसे अवमूल्यन कहते हैं । इससे आयात महंगी तथा निर्यात सस्ती हो जाती है । सामान्यतः यह स्थिर विनियम दर प्रणाली में होता है ।
अधिमूल्यनः-
जब सरकार अथवा केन्द्रीय बैंक घरेलू मुद्रा के बाह्य मूल्य को बढ़ाती है तो मुद्रा का अधिमूल्यन कहलाता हैं । सामान्यतः यह स्थिर विनिमय दर में होता हैं ।
मुद्रा का मूल्यहास :-
जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में मुद्रा की माँग तथा पूर्ति के फलस्वरूप घरेलू मुद्रा के मूल्य में विदेशी मुद्रा के मूल्य के सापेक्ष गिरावट आती है तो यह मुद्रा को मूल्यहास कहलाता है ।
मुद्रा की मूल्यवृद्धि :-
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में , मुद्रा की मांग तथा पूर्ति के फलस्वरूप घरेलू मुद्रा के मूल्य में विदेशी मुद्रा के सापेक्ष बढ़ोतरी होती है तो यह मुद्रा की मूल्यवृद्धि कहलाती है ।